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जनभावना का ख्याल रखें सभी दल

।।सुधांशु रंजन।।(वरिष्ठ टीवी पत्रकार) गत 10 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट की एक खंड पीठ ने लिली थॉमस बनाम भारतीय संघ में जन प्रतिनिधित्व कानून, 1951 की धारा 8(4) को असंवैधानिक करार दिया था. कोर्ट ने निर्णय दिया कि यह धारा संविधान के अनुच्छेद 102 एंव 191 का उल्लंघन है. केंद्र सरकार ने इस निर्णय की […]

।।सुधांशु रंजन।।
(वरिष्ठ टीवी पत्रकार)

गत 10 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट की एक खंड पीठ ने लिली थॉमस बनाम भारतीय संघ में जन प्रतिनिधित्व कानून, 1951 की धारा 8(4) को असंवैधानिक करार दिया था. कोर्ट ने निर्णय दिया कि यह धारा संविधान के अनुच्छेद 102 एंव 191 का उल्लंघन है. केंद्र सरकार ने इस निर्णय की समीक्षा के लिए याचिका दायर की जिस पर परंपरा से हट कर खुली अदालत में विचार किया गया और न्यायालय ने उसे भी खारिज कर दिया. इस फैसले को पलटने के लिए केंद्र सरकार ने गत 30 अगस्त को राज्यसभा में जन प्रतिनिधित्व कानून (दूसरा संशोधन) विधेयक 2013 पेश किया. सभापति ने इसे संसद की स्थायी समिति को भेज दिया. इसके बाद सरकार ने इस निर्णय को निष्प्रभावी करने के लिए एक अध्यादेश तैयार किया. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने सवाल उठाया कि अध्यादेश जारी करने की हड़बड़ी क्या है और तीन केंद्रीय मंत्रियों को सफाई देने के लिए तलब किया.

इस मामले में कोई प्रगति होती और विवाद आगे बढ़ता, इसके पहले कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने इस अध्यादेश को बकवास बता दिया. उन्होंने बड़ी बेबाकी से कहा कि राजनीति के अपराधीकरण को खत्म करना जरूरी है और इसके लिए कोई समझौता नहीं किया जाना चाहिए. विपक्ष ने उन पर प्रहार किया कि वह अपनी ही सरकार को कटघरे में खड़े कर रहे हैं और यह जनमत के दबाव में दिया गया बयान है. यदि सभी दल तय कर लें कि वे अपराधियों को चुनाव में प्रत्याशी नहीं बनायेंगे, तो यह समस्या बिना कानूनी डंडे के हल हो जायेगी.

इस पूरे प्रकरण में अध्यादेश के औचित्य पर सवाल उठा है. संविधान के अनुच्छेद 123 एवं 213 क्रमश: राष्ट्रपति तथा राज्य के राज्यपालों को अधिकार देते हैं कि जब सदन सत्र में न हो, तो आपातकालीन स्थितियों से निपटने के लिए वे यदि संतुष्ट हों, तो अध्यादेश जारी कर सकते हैं. जाहिर है राष्ट्रपति एवं राज्यपाल को मंत्रिमंडल के परामर्श पर काम करना होता है. अध्यादेश में अधिनियम की शक्ति होती है, परंतु अध्यादेश को सदन का सत्र शुरू होते ही पारित कराना अनिवार्य है. यदि सत्र प्रारंभ होने के 6 सप्ताह के अंदर सदन उसे पारित नहीं करता है, तो वह खत्म हो जायेगा. 38 वें संविधान संशोधन के जरिये दो अनुच्छेद 123 एंव 213 में उपधारा 4 जोड़ी गयी कि क्रमश: राष्ट्रपति एवं राज्यपाल की संतुष्टि को किसी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है. 44वें संविधान संशोधन में इसे खत्म कर दिया गया. यानी जैसे अन्य कानूनों की संवैधानिकता को अदालत में चुनौती दी जाती है, वैसे ही अध्यादेश को भी दी जा सकती है. यह स्थापित है कि अध्यादेश केवल आपात स्थितियों में ही जारी किया जाना चाहिए. यह एक औपनिवेशिक अधिकार है, जो भारत सरकार अधिनियम, 1935 से लिया गया है. राष्ट्रमंडल के किसी भी देश के संविधान में ऐसा प्रावधान नहीं है. यानी, ऐसे प्रावधान के बिना भी आपातकालीन स्थितियों से निपटा जा सकता है. यह भी माना जा रहा है कि गठबंधन की मजबूरी के कारण सरकार अध्यादेश लाने कोविवश हुई.

राहुल गांधी के बयान के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी अमेरिका में बयान जारी किया कि राहुल गांधी का पत्र भी उन्हें मिला है और उनके भारत लौटने पर मंत्रिमंडल इस पर विचार करेगा. अब जब कि कई बड़े दलों में इस मुद्दे पर मतैक्य बन रहा है, तो सबको मिल कर अपराधीकरण के नासूर का खात्मा कर देना चाहिए. इसमें क्षेत्रीय दलों की भूमिका ज्यादा संदिग्ध है. किंतु बड़े दल छोटे दलों से निपट सकते हैं.

सुप्रीम कोर्ट के निर्णय में कुछ ऐसी बातें हैं, जो पूरी तरह संविधान सम्मत नहीं दिखती हैं. फिर भी उसकी मंशा सराहनीय है. संविधान के अनुच्छेद 103 के अनुसार यदि किसी सांसद की अयोग्यता का सवाल उठता है, तो उसे राष्ट्रपति के पास भेजा जायेगा, जिनका निर्णय अंतिम होगा, पंरतु राष्ट्रपति कोई भी निर्णय चुनाव आयोग से परामर्श करने के बाद ही करेंगे. इसलिए न्यायालय का यह फैसला कि सजा सुनाये जाने के दिन से ही सांसद या विधायक की सदस्यता समाप्त हो जायेगी, पूरी तरह सही नहीं लगता है. इसमें एक तर्क दिया जा सकता है कि अयोग्यता के जो अन्य आधार हैं, उन पर तो विवाद हो सकता है, इसलिए राष्ट्रपति को विचार करने की जरूरत है. परंतु अदालती फैसले पर क्या विवाद हो सकता है? अयोग्यता के अन्य आधार हैं- लाभ के पद पर होना, अस्थिर मस्तिष्क का होना, दिवालिया हुआ व्यक्ति जिसकी देनदारी है, तथा भारत का नागरिक नहीं है या स्वेच्छा से दूसरे देश की नागरिकता उसने ग्रहण कर ली है. इस पूरे मसले पर सभी राजनीतिक दलों को नफा-नुकसान का ख्याल न कर राष्ट्रहित में एक ठोस कानून बनाना चाहिए.

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