पवन के वर्मा
सांसद एवं पूर्व प्रशासक
मूलभूत सच यह है कि गरीबी अधिक बच्चे पैदा करती है. जहां लोग अत्यधिक निर्धन हैं, शिक्षा और स्वास्थ्य से वंचित हैं और जहां महिला सशक्तीकरण निम्न है, वहां जनसंख्या वृद्धि अधिक है. इसका धर्म या भौगोलिक स्थिति से कोई लेना-देना नहीं है तथा यह हिंदुओं एवं मुसलिमों पर समान रूप से लागू होता है. ऐसा नहीं है कि जो दंपत्ति अपना परिवार दो बच्चों तक रखने का फैसला करते हैं, उनके मस्तिष्क में ‘धार्मिक’ कोशिकाएं कम होती हैं.
भाजपा की सरकार को सत्तासीन हुए एक वर्ष बीत चुका है. कई लोगों का मानना है कि अभी इसका मूल्यांकन करना जल्दबाजी होगी, जबकि अन्य लोग कहते हैं कि उम्मीदें विफल साबित हुई हैं. भाजपा प्रवक्ता उपलब्धियों के ढोल पीट रहे हैं, जबकि उनके विरोधी इसे केवल प्रोपगैंडा मानते हैं : समाज का कोई भी तबका खुश नहीं है, चाहे वह किसान, निर्धन, मध्यवर्ग अथवा यहां तक कि कॉरपोरेट (एक-दो प्रियपात्रों को छोड़ कर) ही क्यों न हों. एक चीज तो निश्चित ही सच है कि इतने ज्यादा बहुमत से सत्ता में आयीं गिनी-चुनी सरकारों की लोकप्रियता में इतनी तेजी से कमी आयी है. दिल्ली चुनाव और देश में सामान्य रूप से व्याप्त असंतुष्टि की भावना इसके सबूत हैं.
संघ परिवार से वास्तविक खतरा उस विचारात्मक ब्रेनवाशिंग को लेकर है, जिसे वे संस्थागत स्वरूप देने की चेष्टा करते हैं. उनके पसंदीदा मुद्दों में से एक यह है कि भारत में किसी-न-किसी तरह हिंदू ‘खतरे में’ हैं. जनवरी के शुरू में भाजपा सांसद साक्षी महाराज ने हिंदू महिलाओं को निर्देश दिया था कि वे ‘हिंदू धर्म की रक्षा हेतु’ कम-से-कम चार बच्चे पैदा करें, वरना वे लोग बहुमत में आ जायेंगे, जिनकी ‘चार बीवियां और चालीस बच्चे’ हैं.
कुछ दिन बाद पश्चिम बंगाल के भाजपा नेता श्यामल गोस्वामी ने कहा कि हिंदू महिलाओं को पांच बच्चे होने चाहिए. एक हफ्ते बाद बद्रिकाश्रम के शंकराचार्य वासुदेवानंद सरस्वती ने इलाहाबाद के माघ मेले में इसे दोगुना करते हुए कहा कि ‘हर हिंदू महिला को 10 बच्चे होने चाहिए.’ फरवरी में साध्वी प्राची ने कहा कि हिंदू महिला का यह प्रजनन कर्तव्य है कि वह 40 पिल्ले नहीं, बल्कि चार बच्चे पैदा करे.
यह सब एक जनसांख्यिक भय फैलाने की नयी मुहिम है. एक स्तर पर यह असंवेदनशीलता हिंदू महिलाओं को हर अविवेकी भाषणबाज के आदेश पर बच्चे पैदा करनेवाली मशीन के रूप में देखती है, तो दूसरे स्तर पर इस पूरी मुहिम का तथ्यों से कोई वास्तविक सरोकार नहीं है.
हर दशक में एक बार भारत के महापंजीयक तथा जनगणना आयुक्त धार्मिक आधार पर हमारी आबादी का वर्गीकरण करते हैं. जिस पिछली जनगणना से ये आंकड़े उपलब्ध हैं, वह 2001 की जनगणना है (2011 की जनगणना के आंकड़े अभी जारी नहीं हुए हैं). वर्ष 2001 के आंकड़ों के अनुसार, हमारी आबादी में हिंदुओं तथा मुसलमानों की संख्या क्रमश: 80.5 प्रतिशत तथा 13.4 प्रतिशत है. वर्ष 1991 की जनगणना के अनुसार, ये संख्याएं क्रमश: 82.6 प्रतिशत तथा 11.4 प्रतिशत थीं.
अत: यह बहुत साफ है कि हिंदुओं का भारी बहुमत बना हुआ है और उनकी ‘समाप्ति’ का कोई खतरा नहीं है, जैसा लोगों की भावनाएं भड़कानेवाले बताने की कोशिश कर रहे हैं. फिर, हिंदुओं के इस भारी बहुमत के अलावा, उनकी वास्तविक संख्या इससे भी ज्यादा हो सकती है, क्योंकि उपयरुक्त आंकड़े प्राप्त करने की कार्यविधि में कई त्रुटियों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए. पहली, 1991 में मुसलिम बहुमत वाले जम्मू-कश्मीर को ‘अशांत क्षेत्र’ की श्रेणी में डाल देने की वजह से उसे विस्तृत जनगणना में शामिल नहीं किया गया था.
चूंकि जम्मू-कश्मीर के कई जिलों में कुल प्रजनन दर- जो किसी महिला द्वारा अपनी प्रजनन उम्र के अंत तक जन्मे बच्चों की कुल संख्या का मापन है- वस्तुत: बहुत नीचे गिर चुकी थी, अत: जनगणना के अंतिम आंकड़ों द्वारा प्रदर्शित मुसलिम आबादी की वृद्धि दर अतिशयोक्तिपूर्ण थी. दूसरी, इस जनगणना में पहली बार जनगणना प्रश्नावली में बौद्धों, जैनियों, आदिवासियों तथा अन्य का अलग-अलग संज्ञान लिया गया. इस जनगणना के अनुसार, भारत में अस्सी लाख बौद्ध थे, चालीस लाख जैनी थे और साठ लाख आदिवासी तथा अन्य थे. यदि इन एक करोड़ अस्सी लाख व्यक्तियों को हिंदुओं की श्रेणी में डाल दिया जाये, तो हिंदुओं का प्रतिशत और ज्यादा हो जायेगा.
संघ परिवार से संबद्ध बहुत-सी वेबसाइट मुसलिमों की बहुविवाह प्रथा तथा जन्म नियंत्रण के प्रति उनकी विमुखता को उनकी आबादी की कथित वृद्धि की वजहें बताते हैं. 2002 में नरेंद्र मोदी ने स्वयं सार्वजनिक और व्यंग्यात्मक रूप में मुसलिमों को ‘हम पांच, हमारे पच्चीस’ कह कर संदर्भित किया था. लेकिन सच्चाई कुछ और बयान करती है. 1961 की जनगणना के मुताबिक, सबसे ज्यादा बहुविवाह आदिवासियों (15.2 प्रतिशत), बौद्धों (7.9 प्रतिशत), जैनियों (6.7 प्रतिशत) और हिंदुओं (5.8 प्रतिशत) में होता है.
मुसलिमों के लिए यह आंकड़ा सबसे कम (5.7 प्रतिशत) है. हालांकि ये आंकड़े पुराने हैं, पर ये इतना तो बताते ही हैं कि बहुविवाह की अनुमति होते हुए भी मुसलिमों में उसका बहुत अधिक प्रचलन नहीं है. इसके अलावा, अवलोकित आंकड़ों के अनुसार प्रत्येक 1,000 मुसलिम पुरुषों पर मुसलिम महिलाओं की संख्या 936 है. इस स्थिति में यदि प्रत्येक मुसलिम पुरुष चार महिलाओं से विवाह करे, तो 75 प्रतिशत मुसलिम पुरुष अविवाहित ही रह जायेंगे!
परिवार नियोजन की बात करें, तो तथ्य यह है कि सभी बड़ी मुसलिम आबादीवाले देशों में जनसंख्या वृद्धि दर घटती जा रही है. मसलन, तुर्की में प्रजनन उम्र वर्ग के 63 प्रतिशत दंपत्ति गर्भनिरोध का इस्तेमाल करते हैं. इंडोनेशिया जैसे अधिक रूढ़िवादी देश में भी यह संख्या 48 प्रतिशत है.
दिग्भ्रमित धार्मिक जोश ने लोगों को खुद के विषय में विवेकपूर्ण निर्णय लेने से शायद ही कभी रोका हो. कैथोलिक रूढ़िवादी इटली तथा स्पेन में परिवार नियोजन को कभी टेढ़ी नजरों से देखा जाता था, मगर अब तो इन देशों में कुल प्रजनन दर 1.2 प्रतिशत तक गिर चुकी है. यहां तक कि भारत में भी, ज्यादा समृद्ध तथा शिक्षित राज्य केरल में मुसलिमों में यह दर 1.6 प्रतिशत तक के सबसे निचले स्तर पर है.
मूलभूत सच यह है कि गरीबी अधिक बच्चे पैदा करती है. जहां लोग अत्यधिक निर्धन हैं, शिक्षा और स्वास्थ्य से वंचित हैं और जहां महिला सशक्तीकरण निम्न है, वहां जनसंख्या वृद्धि अधिक है. इसका धर्म या भौगोलिक स्थिति से कोई लेना-देना नहीं है तथा यह हिंदुओं एवं मुसलिमों पर समान रूप से लागू होता है. ऐसा नहीं है कि जो दंपत्ति अपना परिवार दो बच्चों तक रखने का फैसला करते हैं, उनके मस्तिष्क में ‘धार्मिक’ कोशिकाएं कम होती हैं. दरअसल, वे अपने सामाजिक-आर्थिक सशक्तीकरण की वजह से अपनी खुशहाली के लिए ज्यादा जानकारीभरे फैसले लेने में सक्षम होते हैं.
भारत में हिंदू भारी बहुमत में हैं और आगे भी रहेंगे.
हिंदुओं तथा मुसलिमों के बीच का अनुपात दशकों से लगभग स्थिर रहा है. वर्ष 2011 की जनगणना के आंकड़ों की प्रतीक्षा की जा रही है और इस पर हैरत भी होती है कि उनके जारी होने में इतनी देर क्यों हो रही है. जैसे-जैसे मुसलिमों की अधिक संख्या आर्थिक विकास के फायदे उठाती जायेगी और जैसे-जैसे ज्यादा मुसलिम महिलाएं सशक्त होती जायेंगी, मुसलिम जनसंख्या वृद्धि दर कम होगी और यही स्थिति हिंदुओं के साथ भी होगी.
संघ परिवार द्वारा सृजित भय के वातावरण का कोई तथ्यात्मक आधार नहीं है, बल्कि यह पूरी तरह असत्य बातों पर आधारित है, जिसका उद्देश्य चुनावी फायदों के लिए धार्मिक घृणा भड़काना है. तरस की बात है कि इस घृणास्पद खेल में भाजपा नेतृत्व मौन साधे हुए है, और इस तरह खुद भी इसमें संलिप्त है.
(अनु : विजय नंदन)