इन दिनों पूरा झारखंड और बिहार गरम हवाओं के लपेटे में है. हर तरफ लोग परेशान हैं. हर कोई सूरज को कोस रहा है. तापमान 40 डिग्री से ऊपर है. पहले रातें थोड़ी सुकून से कट जाती थीं, अब तो दिन-रात दोनों तप रहे हैं. दिन और रात के तापमान का अंतर घट रहा है.
मौसम का मिजाज अचानक नहीं बदला है, मौसम की लगातार मिलती चेतावनी की अनदेखी का यह नतीजा है. सूरज को उकसाया समाज ने ही है. मई का अंतिम सप्ताह आंधी व पानी की हल्की बौछारों का रहता है, पर पिछले कुछ सालों से अगस्त के महीने तक बिहार तप रहा है. झारखंड में गरमी जून तक जून-जुलाई तक खिंच रही है.
इसने हमारे पूरे जीवन को प्रभावित किया है. लीची और आम के स्वाद बिगड़ गये. पशु-पक्षियों के लिये यह बड़ी यातना है, आखिर वे कहां जायें? सड़कों पर चलना मुश्किल हो रहा है. हाल ही में एक रिपोर्ट में खुलासा हुआ कि पटना समेत अनेक शहरों में अल्ट्रा वायलट किरणों का असर बढ़ा है. साथ ही मेडिकल शोध के आंकड़े बता रहे हैं कि बिहार में त्वचा और आंखों की बीमारी के मामले बढ़े है. इनमें से सत्तर फीसदी मामले सूरज की किरणों के प्रभाव का नतीजा है. कई और कारण भी है. गरमी के दिनों में प्यास बुझाने वाले प्याऊ अब गायब है. शहरों में दूर-दूर तक छांव नहीं मिल सकेगी.
घंटों धूप में भटकने के अलावा कोई चारा नहीं. गर्मियों में पहले कई संस्थाएं पानी व शरबत पिलाती नजर आती थीं, अब सड़कों पर ऐसी कोई सामाजिकता नहीं दिखती. मौसम की मार अब पहले से ज्यादा लोगों को प्रभावित कर रही है, कारण हमारा सामाजिक तंत्र भी टूटा है. हम सिर्फ अपने तक सीमित रह गये हैं, सबका जीवन कीमती है और हम सब मौसम के साझा शिकार होंगे, इसलिये वक्त है संभलने का. बिहार और झारखंड अब भी खुद को बचा सकते हैं.
इन दोनों राज्यों में अभी शहरीकरण पूरी तरह नहीं हुआ है. खेती-किसानी प्रदेश का मुख्य काम है, झारखंड में जंगल भी काफी बचे हुए हैं. थोड़ी-सी सामाजिक सूझ-बूझ हमें बचा सकती है. साझा सामाजिक जिम्मेदारी जरूरी है, वरना बदलता मौसम हमें तबाह कर देगा. अन्य अनेक आपदाओं की तरह गर्मी की मार भी गरीबों पर ही ज्यादा पड़ती है. इसलिए गरीब की फिक्र खास तौर पर जरूरी है.