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इस अर्थशास्त्र का समाजशास्त्र भी समझिए

बाजार अर्थशास्त्र की ट्रिकल डाउन थ्योरी पिछले 20-22 वर्ष में तो कामयाब होती नहीं दिखायी दी. समाज में खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है और वह भी तब, जब नीति-नियंता और कर्ता-धर्ता वंचित समुदाय के वोटों के सहारे ही उस जगह पहुंचते हैं. केंद्र की मोदी सरकार के एक साल की उपलब्धियों पर तमाम […]

बाजार अर्थशास्त्र की ट्रिकल डाउन थ्योरी पिछले 20-22 वर्ष में तो कामयाब होती नहीं दिखायी दी. समाज में खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है और वह भी तब, जब नीति-नियंता और कर्ता-धर्ता वंचित समुदाय के वोटों के सहारे ही उस जगह पहुंचते हैं.
केंद्र की मोदी सरकार के एक साल की उपलब्धियों पर तमाम बातें कही जा रही हैं. राजनेताओं से लेकर आमजन तक, घर से लेकर फेसबुक व व्हाट्सएप्प तक, हर जगह मोदी सरकार के एक साल पर दावे और प्रति दावे मिल जायेंगे. हम समाज के तौर पर किस दिशा में चले हैं, यह कोई भी राजनीतिक दल या राजनेता नहीं बता रहा, बताना नहीं चाह रहा या फिर बता नहीं पा रहा है. जबकि यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण है. हमने कितने पुल बना दिये, कितनी सड़कें बना दीं, कितने जंगल काट दिये, कितना बीमा कर दिया, कितने कानून बना दिये या सुधार दिये, आदि आंकड़े तब तक पूरी बात नहीं बताते, जब तक यह न बताया जाये कि ये पुल लोगों को जोड़ेंगे या दूरियां पैदा करेंगे? इनको जोड़नेवाली सड़क किधर से गुजरेगी? समाज इन सबसे किस दिशा में जायेगा? सारे दावे और प्रति दावे सुन कर क्या इन सवालों के जवाब का थोड़ा सा भी अनुमान लगाया जा सकता है? यानी अर्थशास्त्र का समाजशास्त्र जाने बिना विफलता-सफलता की कहानी निर्थक ही है.
आइये देश के सबसे बड़े समुदाय यानी खेती-किसानी पर आश्रित लोगों की बात करते हैं. इस समुदाय के लोगों के बीच क्या बाजार अर्थव्यवस्था का थोड़ा भी फायदा मिलने की उम्मीद जगी है? देश की करीब 65 फीसदी आबादी वाला यह समुदाय देश के सकल घरेलू उत्पाद में सिर्फ 15 फीसदी का योगदान कर पाता है. और यह योगदान घटता ही जा रहा है. इसका मतलब यह हुआ कि इस समुदाय के लोगों के जीवन में आर्थिक मुश्किलें बढ़ती ही जा रही हैं. उदाहरणस्वरूप, 1991 के बाद से पूर्णिया जिले के एक किसान की तीसरी पीढ़ी काम में लग चुकी है. इस किसान के पास पांच एकड़ जमीन है. 1991 में मजे से जीवन चलता था. एक बेटा था, वह भी खेती में ही लग गया. लेकिन अब उनका पोता एक ढाबे में बरतन मांजता है, क्योंकि खेती में इतना कर्ज चढ़ा हुआ है कि खर्चा चलाना मुश्किल है. एक दूसरे किसान का कहना है कि घर के मर्द अगर दिल्ली-पंजाब न जायें, तो खर्च नहीं चल पायेगा. गांव में जो पक्के घर हैं, वे पंजाब-दिल्ली की कमाई से ही बन पाये हैं, खेती से नहीं. सवाल यह है कि यदि खेती-किसानी पर आश्रित 75 करोड़ लोगों की जिंदगी बाजार अर्थव्यवस्था के आने के बाद खराब हुई है, तो देश कैसे आगे बढ़ रहा है? मैंने कुछ किसानों से पूछा कि क्या उनकी कमाई और उनकी जिंदगी में कुछ सुधार के संकेत मिल रहे हैं, तो जवाब मिला- हां, कोलकाता व मुंबई से कुछ लोग आये थे, जो मकई को थोड़ा ज्यादा दामों पर खरीदना चाहते हैं. ऐसा हुआ तो कमाई थोड़ी बढ़ जायेगी. लेकिन जब हमने पूछा कि क्या पिछले 20 साल में खेती के लिए सहूलियतें बढ़ी हैं, तो जवाब मिला- नहीं, बल्कि मुश्किलें बढ़ी हैं.
प्रधानमंत्री ने मंगलवार को ‘किसान’ चैनल लांच करते हुए देश के किसानों को जो सलाह दी, उससे ही स्पष्ट है कि ये 75 करोड़ लोग किस प्राथमिकता पर हैं. प्रधानमंत्री ने कहा कि किसानों को अपनी एक तिहाई जमीन में फसलें उगानी चाहिए, एक तिहाई में पशुओं के लिए चारा और एक तिहाई में इमारती लकड़ी वाले वृक्ष लगाने चाहिए. यहां यह जानना जरूरी है कि देश में औसत जोत 1.15 हेक्टेयर है, यानी तीन एकड़ से थोड़ा कम. अब ऊपर दी गयी सलाह के मुताबिक, किसान परिवार का खर्च एक एकड़ की जमीन से चल जाना चाहिए! यानी सरकार की प्राथमिकता में वे किसान ही हैं, जो इस अनुपात में इस्तेमाल करने योग्य जोत रखते हों. 2011 के फार्म सेंसस के मुताबिक, 85 फीसदी किसान दो हेक्टेयर या इससे कम की जोत वाले हैं. 10 हेक्टेयर से ज्यादा जोत वाले किसान मात्र 0.70 फीसदी हैं. स्पष्ट है कि सरकार के विजन में कितने व कौन किसान शामिल हैं. यानी पहले की तरह अब भी किसान के जीवन में बाजार अर्थव्यवस्था से कोई फायदा नहीं मिलनेवाला. इस उदारीकरण का फायदा उठाने के लिए उसे किसानी छोड़ कर नयी अर्थव्यवस्था के क्षेत्रों में रिस्क लेना पड़ेगा. क्या यह व्यावहारिक है?
सोचनेवाली बात यह भी है कि शिक्षक और चिकित्सक समुदाय को बाजार व उदार अर्थव्यवस्था का जो फायदा मिल रहा है, उसकी कीमत भी यही खेतिहर समुदाय अदा कर रहा है. पहले सरकारी स्कूल में अच्छे शिक्षक और अच्छी पढ़ाई होती थी, सरकारी अस्पतालों में अच्छी चिकित्सा और अच्छे चिकित्सक होते थे, लेकिन आज इस समुदाय को हारी-बीमारी में अच्छे चिकित्सक व अच्छी चिकित्सकीय सुविधाओं के लिए कर्ज लेना पड़ता है. अगर अपने बच्चे को वे अच्छी शिक्षा दिलवाना चाहते हैं, तो उन्हें अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा खर्च करना पड़ता है. उच्च या प्रोफेशनल शिक्षा के लिए कर्ज लेना ही पड़ता है.
मतलब यह हुआ कि समाज में खाई चौड़ी होती जा रही है. बाजार अर्थशास्त्र की ‘ट्रिकल डाउन थ्योरी’ पिछले 20-22 वर्ष में तो कामयाब होती नहीं दिखायी दी. यह खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है और वह भी तब, जब नीति-नियंता और कर्ता-धर्ता इसी वंचित समुदाय के वोटों के सहारे ही उस जगह पहुंचते हैं. जब तक उदारीकरण से पैदा हो रहे सरकारी संसाधनों का उचित हिस्सा गांव और किसानों के लिए ऐसा इन्फ्रास्ट्रर विकसित करने में नहीं लगाया जायेगा, जो हाशिये पर पड़े देश के इस सबसे बड़े तबके को उदारीकरण व बाजार अर्थव्यवस्था से उपजे अवसरों का लाभ लेने की स्थिति में ला सके, तब तक प्रगति के सारे नारे खोखले ही रहेंगे और लोकतंत्र के लिए भी खतरे बढ़ते जायेंगे.
और अंत में..
यह कॉलम लिखते हुए मुङो दुष्यंत कुमार की एक कविता याद आती रही. आप भी पढ़ें-
आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख।
घर अंधेरा देख तू आकाश के तारे न देख।।
एक दरिया है यहां पर दूर तक फैला हुआ।
आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख।।
अब यकीनन ठोस है धरती हकीकत की तरह।
यह हकीकत देख, लेकिन खौफ के मारे न देख।।
वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुङो।
कट चुके जो हाथ, उन हाथों में तलवारें न देख।।
दिल को बहला ले इजाजत है मगर इतना न उड़।
रोज सपने देख, लेकिन इस कदर प्यारे न देख।।
ये धुंधलका है नजर का, तू महज मायूस है।
रोजनों को देख, दीवारों में दीवारें न देख।।
राख, कितनी राख है चारों तरफ बिखरी हुई।
राख में चिंगारियां ही देख, अंगारे न देख।।
राजेंद्र तिवारी
कॉरपोरेट एडिटर
प्रभात खबर
rajendra.tiwari@prabhatkhabar.in

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