विवेक शुक्ला
वरिष्ठ पत्रकार
नेहरू के बाद भारत बहुत बदला है. पर बड़ा सवाल यह है कि क्या भारत उस नेहरू को भूलने का साहस कभी करेगा, जिसकी वजह से यहां पर लोकतंत्र ने पैर जमाये और जिसने भारत को धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों को मानने के लिए प्रेरित किया?
आज देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की पुण्यतिथि है. देश में आजकल पंडित नेहरू की कमियां निकालने का मौसम चल रहा है. ऐसे में यह बहस समीचीन होगी कि नेहरू जी ने देश को क्या दिया?
नेहरू बहुत शिद्दत के साथ मानते थे कि स्वस्थ लोकतंत्र के लिए सशक्त विपक्ष अनिवार्य है. गांधी जी की 1948 में हत्या और फिर सरदार पटेल के 1951 में निधन ने उन्हें पूरा मौका दिया था कि वे लगभग निरंकुश भाव से देश को चलाते. इसके विपरीत उन्होंने संसद में छोटे, बंटे हुए, पर बेहद संभावनाओं से लबरेज विपक्ष को महत्व दिया.
वे चाहते तो देश के पहले लोकसभा चुनाव को देश के विभाजन और शरणार्थियों के पुनर्वास का बहाना बना कर टलवा सकते थे. इसके विपरीत उन्होंने पहले लोकसभा चुनाव में उन सांप्रदायिक ताकतों को पानी पिला दिया, जो भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते थे.
पहले लोकसभा चुनाव के प्रचार के दौरान नेहरू जी ने 25 हजार किमी का सफर तय किया. उन्होंने देश के कोने-कोने में जनता को संबोधित किया.
3 दिसंबर, 1951 को उन्होंने लेडी माउंटबेटन को एक पत्र लिखा. उन्होंने कहा, ‘इस चुनाव प्रचार से मुङो भारत और भारत की जनता को एक बार फिर से जानने-समझने का मौका मिला. दिल्ली में सरकार का कामकाज करते हुए मैं जनता से दूर हो गया था.’
अपने कद के अनुसार नेहरू ने जनता से सीधा संपर्क बनाया. वे रोज एक घंटे लोगों के दुख-दर्द सुनते थे, भले ही वे कितने व्यस्त हों. नेहरू जी अक्तूबर 1947 से लेकर दिसंबर 1963 तक हर महीने की पहली और पंद्रहवीं तारीख को राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखते रहे.
उसमें वे अपनी सरकार की नीतियों को विस्तार से बताते-समझाते थे. वे मुख्यमंत्रियों से सुझाव-सलाह भी लेते थे. उनके पत्र लंबे होते थे. उनमें सरकार की देश-विदेश नीति पर बात होती थी. लेकिन हां, कभी-कभी पत्रों में ज्ञान देनेवाला भाव भी होता था.
नेहरू ने अपने प्रधानमंत्रित्वकाल में यह सुनिश्चित किया कि सरकार और धार्मिक मामलों के बीच किसी तरह का कोई घालमेल नहीं हो. उनका मानना था कि कानून की नजर में हर भारतीय एक हो, जिससे साबित हो कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है.
नेहरू युग का अंत 50 साल पहले हो गया था. लेकिन, जिस तरह से देश ने पिछले साल अपनी 16वीं लोकसभा को चुना है, उसका कुछ क्रेडिट नेहरू द्वारा लोकतंत्र की मजबूती के लिए उठाये गये कदमों को भी देना होगा.
जरा अपने आसपास नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, मालदीव, दक्षिण-पूर्व एशिया,पूर्वी एशिया,अफ्रीका को देखिए, तब समझ आयेगा कि नेहरू की बदौलत भारत में संसदीय लोकतंत्र किस तरह से फल-फूल रहा है. अपने 17 वर्षो के शासन में नेहरू ने भारत के लोकतंत्र को उसके शैशवकाल से परिपक्व होता देखा.
नेहरू के दिल के बेहद करीब थे लोकतंत्र और मानवाधिकार. एक बार उन्होंने कहा भी था, ‘मैं लोकतांत्रिक व्यवस्था के सवाल पर कोई समझौता नहीं कर सकता.’ पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बिधान चंद्र राय को 25 दिसंबर,1949 को लिखे पत्र से समझा जा सकता है कि उनके लिए लोकतंत्र का क्या अर्थ है. उन्होंने लिखा, ‘सिर्फ जनता के लिए काम करना ही काफी नहीं, बल्कि उसके साथ मिल कर काम किया जाये, ताकि उसे यह यकीन हो कि सच में उसका कोई हितैषी है.’
नेहरू जी संसद में चलनेवाली बहसों में बैठे रहते थे. उन्हें सुनते थे. वे संसद में लगातार बोलते भी थे और अपनी बात भी रखते थे. हालांकि, उनके दौर में कांग्रेस को संसद में प्रचंड बहुत प्राप्त था, पर वे यह सुनिश्चित करते थे कि संसद में पारित होनेवाले विधेयक से देश को यह संदेश न जाये कि विपक्ष की अनदेखी हो रही है. अपने अंतिम दिनों में खासे अस्वस्थ होने के बाद भी उन्होंने संसद में भाग लेना नहीं छोड़ा.
नेहरू विचारभिन्नता को लोकतंत्र की आत्मा मानते थे. उन्होंने 2 जून, 1950 को एक जगह कहा था, ‘मैं विपक्ष से भयभीत नहीं होता. मेरी तो चाहत है कि विपक्ष का विस्तार हो. मैं यह कतई नहीं चाहता कि भारत में लाखों लोग एक इंसान की हां में हां कहें. मैं भारत में सशक्त विपक्ष देखना चाहता हूं.’ उनके जीवनीकार एस गोपाल कहते हैं कि नेहरू को हमेशा लगा कि लोकतंत्र से इतर भारत का कोई रास्ता हो ही नहीं सकता.
नेहरू के बाद भारत बहुत बदला है.
पर बड़ा सवाल यह है कि क्या भारत उस नेहरू को भूलने का साहस कभी करेगा, जिसकी वजह से यहां पर लोकतंत्र ने पैर जमाये और जिसने भारत को धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों को मानने के लिए प्रेरित किया? भारत पर नेहरू का प्रभाव इतना स्पष्ट और व्यापक है कि बार-बार उसकी समीक्षा करना महज मूर्खता ही होगी. उनकी विरासत इस देश की विरासत है, भले ही हमारा उनसे कुछ मसलों पर मतभेद या असहमति ही क्यों न हो.