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बच्चों के जीवन से न खेलें

बच्चे ही देश के भविष्य हैं. अगर ये कमजोर हो रहे हैं, तो इसका असर देश पर भी पड़नेवाला है. अब जब कमियां सामने आ गयी हैं, सिर्फ चिल्लाने से कुछ नहीं होगा. बच्चों के फेफड़े अगर कमजोर पाये गये हैं तो इसका निदान खोजना होगा. हाल ही में एक सर्वे की रिपोर्ट जारी हुई […]

बच्चे ही देश के भविष्य हैं. अगर ये कमजोर हो रहे हैं, तो इसका असर देश पर भी पड़नेवाला है. अब जब कमियां सामने आ गयी हैं, सिर्फ चिल्लाने से कुछ नहीं होगा. बच्चों के फेफड़े अगर कमजोर पाये गये हैं तो इसका निदान खोजना होगा.

हाल ही में एक सर्वे की रिपोर्ट जारी हुई है, जिसमें कहा गया है कि देश के शहरों में रहनेवाले 35 प्रतिशत स्कूली बच्चों के फेफड़े कमजोर हो चुके हैं. उनकी स्थिति दयनीय है. यह सर्वे ब्रीथ ब्लू और हील फाउंडेशन द्वारा देश के चार महानगरों दिल्ली, कोलकाता, मुंबई और बेंगलुरु के 2000 स्कूलों में किया गया था. इन बच्चों की उम्र 8 से 14 साल की है. फेफड़ा कमजोर ऐसे ही नहीं हुआ है, प्रदूषण ने यह हाल कर दिया है. दिल्ली के स्कूलों में बच्चों की स्थिति और भी खराब है जहां 40 प्रतिशत बच्चों के फेफड़े कमजोर हैं. यह आंकड़ा बता रहा है कि प्रदूषण की क्या कीमत बच्चे चुका रहे हैं. यह सर्वे भले ही चार महानगरों में हुआ हो, लेकिन वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन की हाल में जो रिपोर्ट आयी है, उसमें दुनिया के 20 सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों में 13 भारत के हैं. राजधानी दिल्ली की स्थिति तो और भी खराब है. दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में दिल्ली को एक माना जाता है. अब समय आ गया है, जब लोगों को चेतना ही होगा.

सर्वे रिपोर्ट तो सिर्फ फेफड़े के बारे में है. प्रदूषण (खास कर वायु) ने पूरी दुनिया में क्या हाल कर रखा है, उसका उदाहरण है हर साल इससे होनेवाली मौत. हर साल सिर्फ प्रदूषण से 24 लाख लोगों की मौत होती है. भारत और पूर्वी एशिया सबसे ज्यादा प्रभावित हैं. भारत में हर साल लगभग 5 लाख 49 हजार लोगों की जान प्रदूषण से होनेवाली बीमारियों के कारण जाती है. दुनिया के विकसित देश चेत चुके हैं. उन्हें पता है कि इसकी क्या कीमत चुकानी पड़ती है. प्रदूषण के कारण यूरोपीय संघ के देशों की अर्थव्यवस्था पर हर साल 1.6 ट्रिलियन डॉलर का असर पड़ रहा है. ये देश बड़ी राशि खर्च कर, कड़े कानून बना कर प्रदूषण को कम करने का प्रयास कर रहे हैं, पर भारत में इसके प्रति लोग गंभीर नहीं हैं. ऐसा नहीं है कि सिर्फ इन्हीं बच्चों के फेफड़े पर प्रदूषण का असर पड़ा है. छोटे बच्चों पर और ज्यादा असर पड़ा होगा. बच्चों पर इसका असर इसलिए ज्यादा पड़ता है, क्योंकि उनका शरीर प्रदूषण से लड़ने के लिए परिपक्व नहीं रहता. बड़ों की भी यही हालत होगी.

यह स्थिति कोई दो-चार साल में उत्पन्न नहीं हुई है. आज से 40-50 साल पहले वनों की क्या स्थिति थी, आज क्या है? बड़ी संख्या में जंगल लगातार कटते गये. जंगल कटते गये, शहर बसते गये. शहरों में भी पहले पर्याप्त संख्या में पेड़ हुआ करते थे. सड़कों के किनारे बड़े-बड़े वृक्ष होते थे. सड़कों के चौड़ीकरण के नाम पर इन पुराने पेड़ों को काट दिया गया. ये पेड़ न सिर्फ छाया देते थे, बल्कि इन सड़कों पर चलनेवाले वाहनों से निकलनेवाली जहरीली गैस को सोखते भी थे. बच्चों का बड़ा समय स्कूल में गुजरता है. शहर के स्कूल से पेड़ गायब हो गये. पेड़ लगते नहीं. पर्यावरण संतुलन पर गौर नहीं किया गया. प्रति व्यक्ति आय बढ़ी. संपन्नता बढ़ी और इसके साथ तेजी से वाहनों की संख्या बढ़ी. कारखाने तेजी से बढ़ते गये. उनसे काला-काला और विषैला धुआं निकलता रहा, किसी ने चिंता नहीं की. पहाड़ कटते गये. क्रशर मशीनों की बाढ़ आ गयी. इनमें काम करनेवालों के फेफड़े की जांच हो, तो 80 फीसदी से ज्यादा लोग अस्वस्थ निकलेंगे. सुरक्षा पर किसी ने गौर नहीं किया.

अब आंख खोलने का वक्त आ गया है. मोदी सरकार स्वच्छता पर जोर दे रही है. यह भी पर्यावरण का एक हिस्सा है. अच्छी बात है. लेकिन पूरे देश को अब पर्यावरण को बेहतर करने में जुट जाना होगा. अगर हालात खराब हो रहे हैं, तो सिर्फ सरकार ही दोषी नहीं है. समाज भी बराबर का जिम्मेवार है. पर्यावरण को प्रदूषित कौन कर रहा है, हम सब ही न. शहरों की अपेक्षा गांव आज भी सुरक्षित हैं. वहां आज भी घरों-स्कूलों में अच्छी संख्या में पेड़-पौधे मिल जायेंगे. लेकिन शहर में एक-एक इंच जमीन के लिए मारामारी है. अपार्टमेंट कल्चर ने जीवन को और कठिन बना दिया है. एक समय था, जब बच्चे स्कूल से आकर घर में बैग रख कर खेल के मैदान में कूद जाते थे. लेकिन अब ऐसा नहीं होता. बच्चों की जीवन शैली बदल गयी है. खेल के मैदान गायब हो गये हैं. आखिर कहां खेलेंगे वे? उनका स्थान टेलीविजन, कंप्यूटर और मोबाइल ने ले लिया है. बच्चे खेलेंगे नहीं, दौड़ेंगे नहीं, तो उनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता नहीं बढ़ेगी. बच्चों के फेफड़े कमजोर हैं, तो इसका कारण प्रदूषण तो है ही, उनका लाइफ स्टाइल भी है.

बच्चे ही देश के भविष्य हैं. अगर ये कमजोर हो रहे हैं, तो इसका असर देश पर भी पड़नेवाला है. अब जब कमियां सामने आ गयी हैं, सिर्फ चिल्लाने से कुछ नहीं होगा. बच्चों के फेफड़े अगर कमजोर पाये गये हैं तो इसका निदान खोजना होगा. हो सकता है कि सरकार को इस पर कोई नीति बनानी पड़े. अगर बनानी है, तो जल्द बनाइए. पूरे देश के स्कूली बच्चों के स्वास्थ्य की जांच हो, तब सच्चई सामने आयेगी. इसके लिए कैंप लगाना पड़े, तो लगाइए, लेकिन बच्चों को बचाइए.

अनुज कुमार सिन्हा

वरिष्ठ संपादक

प्रभात खबर

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