।।राजेंद्र तिवारी।।
(कारपोरेट संपादक, प्रभात खबर)
पिछले हफ्ते एक युवा शोधार्थी ने कहा कि दिल पर बोझ रहता है कि हम कुछ कर क्यों नहीं रहे. पूरा समाज भेड़चाल में है. हम आनेवाली पीढ़ी को क्या देने जा रहे हैं? वह थोड़ा निराश था, लेकिन हताश नहीं. निराशा हो भी क्यों न! शुक्रवार को संसद ने एक संशोधन विधेयक पारित किया कि जेल में बंद लोग (अंडरट्रायल कैदी) चुनाव लड़ सकते हैं. यानी देश चाहता है कि भ्रष्ट और अपराधी तत्व चुन कर न जायें, लेकिन हमारे चुने हुए प्रतिनिधि इसका ठीक उलट सोचते हैं और तर्क भी गढ़ लेते हैं. दूसरी खबर, आइएएस, आइपीएस व आइएफएस अधिकारी अब सरकारी खर्चे पर विदेश में इलाज करा सकेंगे और उनके व उनके एक सहयोगी (तीमारदार) के आने-जाने का खर्च भी सरकार देगी. इस बाबत केंद्र से सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को सूचना भेज दी गयी है.
अब तक ये अधिकारी यदि इलाज के लिए विदेश जाते थे, तो इनको अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के प्राइवेट वार्ड में लगनेवाले खर्च के हिसाब से ही भुगतान होता था और आने-जाने का टिकट इनको अपनी जेब से देना होता था. एक और खबर, पटना के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में एक कोर्स के लिए फैकल्टी में एक ही परिवार के लोग हैं. ऐसी खबरें अक्सर आती रहती हैं. बहुत से लोग सोचते होंगे इन पर. यह शोधार्थी भी सोचता होगा. उसने सवाल भी किया, ऐसा क्या हुआ, माजी का वह कौन-सा मोड़ है जहां गड़बड़ शुरू हो गयी और इसकी जिम्मेदारी किन पर है? ठीक करनेवाली ताकतें कहां हैं? हैं भी क्या?
मुझे याद आया कि इंदौर में एक कार्यक्र म के दौरान एक वरिष्ठ पत्रकार ने राजनीति में भ्रष्टाचार पर चर्चा के दौरान एक किस्सा सुनाया था. 1957 के आम चुनाव के दौरान इलाहाबाद से कांग्रेस के अधिकृत उम्मीदवार के खिलाफ किसी स्थानीय, छोटे अखबार में छोटी-सी खबर छपी, जिसमें उस पर कदाचार का आरोप लगाया गया था. खबर जवाहरलाल नेहरू के पास पहुंची. उन्होंने उस उम्मीदवार को वापस ले लिया और सुरक्षित (डमी) उम्मीदवार के रूप में कांग्रेस द्वारा जिस दूसरे व्यक्ति से पर्चा भराया गया था, उसे अधिकृत उम्मीदवार घोषित कर दिया गया. यह सुरिक्षत उम्मीदवार थे लाल बहादुर शास्त्री. आज, 56 साल बाद, जेल से चुनाव लड़ने देने के लिए संसद में कानून पारित किया जा रहा है, जिससे वे सारे दागी लोग जो चुनाव जीत कर कानून निर्माता बने हुए हैं, कानून निर्माता बने रहें. है न बड़ा बदलाव!
ब्यूरोक्रेसी की बात करें तो हाल में खबर छपी थी कि बिहार के कैमूर जिले के डीएम ने मौजूदा आर्थिक हालात को देखते हुए साइकिल से चलना शुरू किया. उनकी देखा-देखी कुछ और अधिकारी और जनप्रतिनिधि भी छोटी-मोटी दूरी साइकिल से या पैदल ही तय करने लगे. यह एक बहुत छोटी पहल है, लेकिन बहुत बड़ा संदेश लिये. ताज्जुब की बात यह है कि न सिविल सोसाइटी की तरफ से और न ही ब्यूरोक्रेसी की तरफ से उनकी इस पहल को बड़े स्तर पर ले जाने की कोई कोशिश हुई. सोचिए, यदि समाज में इस तरह का कोई आंदोलन चले, जो लोग समाज के लिए अपने स्तर पर छोटे-बड़े प्रयास कर रहे हैं, उनको सामने लाया जाये, तो क्या हालात बेहतर होने नहीं शुरू हो जायेंगे?
शोधार्थी ने एक सवाल और दागा कि जिसे देखो, उसके जीवन का मकसद बाइक, गाड़ी, और बड़ी गाड़ी, बढ़िया फर्नीचर, महंगे कपड़े, ब्यूटी सैलून, गैजेट आदि ही नजर आते हैं. क्या ऐसा पहले भी था? वह कह रहा था कि पहले जिनके पास पैसा होता था, वे भी साइकिल से ही चलते थे. बाइक व कार के बारे में सोचते भी नहीं थे. 165 लिटर के फ्रिज के आगे दुनिया ही न थी. ..और भी बहुत सी बातें कहीं उसने. बिलकुल ठीक बात थी. हम सब जब बच्चे थे, तो हमारे मां-बाप चाहे जितने पैसेवाले रहे हों या चाहें जितने गरीब, हम पढ़ते एक ही स्कूल में थे. कॉलेज-यूनिवर्सिटी आये, तब भी हॉस्टल एक ही जैसे थे और एक ही मेस. एक ही टीचर और एक ही लाइब्रेरी. एक जैसी ही किताबें. पता नहीं ये सब सवाल आज के युवा के दिमाग में उठते हैं या नहीं, लेकिन इस युवा शोधार्थी ने ये सवाल उठाये.
मुझे तो लगता है कि सारी समस्या और टकराव की जड़ सदियों की हमारी मानसिक बुनावट और पश्चिमी सभ्यता के बीच टकराव, विरोधाभास है. हम उसे आत्मसात नहीं कर पा रहे, लेकिन करना चाहते हैं. हमारी सभ्यता का मूल तत्व त्याग है और पश्चिमी सभ्यता का न्याय. शायद यही वजह है कि पश्चिमी सभ्यता से निकले विचार (सेकुलरिज्म, डेमोक्रेसी, बाजार आदि) हमारे यहां विकृत रूप धारण करते जा रहे हैं. हमारी मानसिक बुनावट के मूल में हमारा जो इतिहास है, हमारे जो मूल्य हैं, वे कहीं न कहीं पश्चिमी विचारों के मूलाधार से मेल नहीं खाते. यह बिलकुल वैसी ही बात हुई कि मिट्टी के बने लोग, मोम से बने लोगों की तरह पानी में तैरने की कोशिश करें. मिट्टी से बने लोगों का गलना तय है. यही हमारे यहां हो रहा है. है न?
और अंत में..
पेश हैं दुष्यंत कुमार की दो गजलें-
बाढ़ की संभावनाएं सामने हैं,
और नदियों के किनारे घर बने हैं.
चीड़-वन में आंधियों की बात मत कर,
इन दरख्तों के बहुत नाजुक तने हैं.
इस तरह टूटे हुए चेहरे नहीं हैं,
जिस तरह टूटे हुए ये आईने हैं.
आपके कालीन देखेंगे किसी दिन,
इस समय तो पांव कीचड़ में सने हैं.
जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में
हम नहीं हैं आदमी, हम झुनझने हैं.
अब तड़पती सी गजल कोई सुनाए,
हमसफर ऊंघे हुए हैं, अनमने हैं.
ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो/ अब कोई ऐसा तरीका भी निकालो यारो.
दर्दे दिल वक्त का पैगाम भी पहुंचाएगा,
इस कबूतर को जरा प्यार से पालो यारो.
लोग हाथों में लिये बैठे हैं अपने पिंजरे,
आज सय्याद को मह़फिल में बुला लो यारो.
आज सीवन को उधेड़ो तो जरा देखेंगे,
आज संदूक से वो खत तो निकालो यारो.
रहनुमाओं की अदाओं पे फिदा है दुनिया/ इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारो.
कैसे आकाश में सुराख नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो
लोग कहते थे कि ये बात नहीं कहने की/ हमने कह दी है तो कहने की सजा लो यारो.