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मरते हैं भूमिपुत्र, खुश हैं यमराज यहां..
डॉ बुद्धिनाथ मिश्र वरिष्ठ साहित्यकार भारत का किसान आज फटेहाल ही नहीं, जीवन के जंजालों से ऊब चुका है. उसे अब किसी पर भरोसा नहीं रह गया है. पहले वह संकट के दिनों को देवी-देवताओं के सहारे गुजार लेता था. कुछ बुद्धिजीवी लोगों ने उसका देवी-देवता भी छीन लिया. फैसला उसी दिन हो गया था […]
डॉ बुद्धिनाथ मिश्र
वरिष्ठ साहित्यकार
भारत का किसान आज फटेहाल ही नहीं, जीवन के जंजालों से ऊब चुका है. उसे अब किसी पर भरोसा नहीं रह गया है. पहले वह संकट के दिनों को देवी-देवताओं के सहारे गुजार लेता था. कुछ बुद्धिजीवी लोगों ने उसका देवी-देवता भी छीन लिया.
फैसला उसी दिन हो गया था इस साल किसानों के भाग्य का, जब फागुन में यमराज के भैंसे जैसे काले-काले बादलों ने गरज-बरस कर गांव के लोगों को फाग की जगह कजरी गाने को विवश कर दिया था. फेसबुक पर किसी कवि ने कुछ दोहे कहे थे:
फागुन में रोने लगे, होली के सब रंग।
कजरी गाते फिर रहे, काले मेघ भुजंग।।
मंजरियों का मधु बहा, भ्रमरों का मकरंद।
धनिया का काजल बहा, बहा काल का छंद।।
गांव के किसान पहले भी प्राकृतिक आपदाओं को ङोलते रहे हैं. कभी अतिवृष्टि, कभी अनावृष्टि. मगर यह अकालवृष्टि थी, किसानी के लिए अकालमृत्यु. जब काल का छंद बहता है, तो ग्रामीण जीवन के समक्ष प्रलय आ जाता है. मेरी चादर इतनी बड़ी नहीं है कि उससे किसानों का आंसू पोछ सकूं. फिर भी मैंने एक निश्चय कर पिछले एक मास से बड़े-बड़े कवि सम्मेलनों का मोह छोड़ कर गांव-गांव घूमता रहा हूं. मैंने किसानों को रात-रात भर कहरते हुए सुना है.
यह फसल उनके लिए बेटे की महंगी पढ़ाई की फीस थी, बेटी की दहेज थी, बैंकों के कर्ज की चुकौती थी, साल भर पूरे परिवार के दुख-सुख की सहायिका थी. उसकी भरपाई क्या सरकारी महकमों के गंदे हाथों से मिली मामूली मुआवजे की राशि से होगी? कितनी बेरहम हैं देश की राजधानियां!
भूखे-प्यासे रह कर पुरखे, जिये अकालों में।
मरा डूब कर गांव, कर्ज के गहरे तालों में।।
सरकारें एक ओर किसानों को ‘अन्नदाता’ जैसे सम्मानित शब्द से पूजती हैं, और दूसरी ओर उन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए तोरणद्वार सजाती हैं, जो येन केन प्रकारेण किसानों को अपने इंद्रजाल में फंसा कर उनका सब कुछ लूट लेना चाहती हैं. यह एक नये प्रकार की जहरखुरानी है, जिसने हजारों किसानों की जान-माल छीन ली है और जिसमें निश्चित रूप से हमारे कर्णधारों की भागीदारी है. किसानों का अभी हाल यह है:
फसलें उजड़ गयीं खेतों की। घर-आंगन छाया सन्नाटा। गाय बेच, गिरवी जमीन रख। हरखू तीर्थाटन से लौटा। जिस बामी के सांप पहरुए। उस बामी के दिन गिनती के..
देश को यह भी सोचना है कि क्या अन्नदाता की अंतिम नियति अब आत्महत्या ही रह गयी है? पिछले दिनों मैने जो अनुभव किया, वह विस्मय में डालनेवाला है. एक गांव में एक कॉलेज का अध्यापक है, जो सप्ताह में मुश्किल से पांच घंटे क्लास में जाता है (पढ़ाता क्या है, यह उसके छात्र ही बतायेंगे!), और हर महीने नियमित रूप से डेढ़ लाख रुपये वेतन पाता है.
रिटायर होने पर पेंशन अलग से उसे निश्चिंत करता है. दूसरी ओर एक किसान है, जो दिन-रात जाड़ा-गर्मी एक कर मुश्किल से अपने परिवार को एक शाम खिला पाता है. क्या यह विसंगति किसी योजनाकार की नजर में नहीं आती है? वे दिन गये जब ‘उत्तम खेती मध्यम बान.’ माना जाता था. इस समय सबसे निकृष्ट और हेय कार्य है खेती. जी हां, सिर पर मैला ढोने से भी बदतर. इसलिए, छोटे किसानों के बेटे सुलभ शौचालय की नौकरी कर संतुष्ट हैं.
मनरेगा ने एक कर्मठ कौम को किस तरह काहिल बना दिया है, इसे देखना हो तो किसी गांव में जाकर देखिए. जिसे एक दिन का ढाई सौ रुपये मनरेगा में मजूरी मिले और दो रुपये किलो चावल, वह क्यों सातों दिन खटे? खेतिहर मजूर गांवों में दुर्लभ प्राणी हो गये हैं. छोटे किसान किराये पर कृषि-यंत्र लेकर काम चलाते हैं, जो उनके लिए काफी महंगा पड़ता है. बीज, उर्वरक, ट्रैक्टर से लेकर थ्रैशर तक इतने बिल हैं कि उन्हें भरने के बाद छोटे किसान के पास कुछ नहीं बचता है. सरकार की सारी योजनाएं बड़े किसानों की पृष्ठ-पोषक हैं. इसलिए छोटे किसान गांव छोड़ रहे हैं और उनकी जमीन बड़े किसान औने-पौने दाम पर खरीद रहे हैं.
घर के बीज सड़े कुठलों में। खेत हुए बंजर। सत्यानाशी नये बीज ने। छीन लिया गौरव। कौन मुनाफा कितना लूटे। ठनी दलालों में..
जब तक गाय-बैल के साथ किसानी चलती थी, तब तक किसानों के दिन इतने कठोर नहीं थे कि वे आत्महत्या के लिए विवश हों. समस्या तबसे विकट हुई है, जबसे डीजल के सहारे चलने लगी है:
बैलों के संग सदा सुखी थे, डीजल पीकर मरी किसानी।
भूत-प्रेत से ज्यादा डरती, टोपी से मित्रों मरजानी।।
जो राजनेता पशु-मेले की ऋण-मेलों का उत्सव रचते हैं, क्या वे नहीं जानते कि बैंको से मिलनेवाले ऋणों में दस में से सात देवों पर चढ़ जाते हैं और लाभार्थी को मात्र तीन लेकर बैठ जाना पड़ता है. यह बड़ी भयावह स्थिति है, जिसकी ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए कवि कहता है:
खिसक रही जमीन/ नीचे, पांव के किसान के/ अमीन लोग आज/ माई-बाप संविधान के/ वो भेड़-बकरियां हैं/ जिनको कहते आम आदमी/ है नाम देवभूमि/ किंतु दिव्यता नहीं रही/ स्वतंत्रता गरीब की/ स्वतंत्रता नहीं रही..
भारत का किसान आज फटेहाल ही नहीं, जीवन के जंजालों से ऊब चुका है. उसे अब किसी पर भरोसा नहीं रह गया है. पहले वह संकट के दिनों को देवी-देवताओं के सहारे गुजार लेता था. कुछ बुद्धिजीवी लोगों ने उसका देवी-देवता भी छीन लिया. पहली बार किसी किसान की आत्महत्या का समाचार विदर्भ के यवतमाल से आया था, जिसे हिंदी के एक कवि ने यों रेखांकित किया था:
हार गया यवतमाल,
फैल गया गांव-गांव, कर्जे का मकड़जाल..
बीज खाद पानी के, दाम आसमान में
रूठ गये खेत सभी, दम नहीं किसान में
सूदखोर चंगेजों ने, पहले ललचाया
कस दिया शिकंजों में, सबका जीना मुहाल। हार गया यवतमाल..
सुरसा के मुंह जैसे, बढ़ता है ब्याज यहां
मरते हैं भूमिपुत्र, खुश हैं यमराज यहां..
उसने अपने समय के वित्तमंत्रियों से तीखी अपील भी की थी, जिसे आलोचना-शास्त्र की फूटी झाल बजानेवालों ने अनसुना कर दिया:
मंत्री जी, देश के बजट में, रखिए निदान
लावारिस खेत के, कफन का भी प्रावधान।
खोखले हुए सारे, जनपद के मेरुदंड
मौत अन्नदाता की, पुलकित कृत्रिम अकाल..
मानिए न मानिए, आज का सच्चा राष्ट्रगीत यही है.
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