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कश्मीरी पंडितों की वापसी

शुजात बुखारी वरिष्ठ पत्रकार व्यापक राजनीतिक मसलों की अवहेलना कर अपने राजनीतिक एजेंडे के अनुरूप चुनिंदा समस्याओं पर पहल कर मोदी सरकार कश्मीर का भला नहीं कर रही है. इससे यही संदेश जा रहा हि कि सरकार विलगाव की जमीनी हकीकतों की परवाह नहीं करती है. कश्मीरी पंडितों की वापसी कश्मीर समस्या के समाधान का […]

शुजात बुखारी

वरिष्ठ पत्रकार

व्यापक राजनीतिक मसलों की अवहेलना कर अपने राजनीतिक एजेंडे के अनुरूप चुनिंदा समस्याओं पर पहल कर मोदी सरकार कश्मीर का भला नहीं कर रही है. इससे यही संदेश जा रहा हि कि सरकार विलगाव की जमीनी हकीकतों की परवाह नहीं करती है. कश्मीरी पंडितों की वापसी कश्मीर समस्या के समाधान का अभिन्न हिस्सा है और इसे अलग कर नहीं देखा जाना चाहिए.

भारत सरकार के पत्र सूचना कार्यालय द्वारा सात अप्रैल को जारी एक विज्ञप्ति के अनुसार जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद ने केंद्रीय गृह मंत्री को भरोसा दिलाया है कि ‘राज्य सरकार बहुत जल्दी घाटी में मिश्रित बस्तियों के लिए जमीन का अधिग्रहण और आवंटन करेगी.’ यह पंक्ति दोनों नेताओं की सामान्य बैठक में हुई चर्चा को ही उल्लिखित करता है, लेकिन कश्मीर को लेकर कोई भी संवेदनशील बात राजनीतिक हलचल पैदा करने की क्षमता रखती है.

यही इस बयान के साथ भी हो रहा है. इसने न सिर्फ एक नये विवाद को जन्म दे दिया है, बल्कि पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी और भारतीय जनता पार्टी गंठबंधन को भी परेशानी में डाल दिया है. भाजपा के लिए कश्मीरी पंडितों का मसला उनकी ‘कश्मीर पर राजनीति’ का अभिन्न अंग है, और पीडीपी के लिए मुश्किल यह है कि वह ऐसा कुछ करने का जोखिम नहीं उठा सकती है, जो राज्य के बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओं पर केंद्रित राजनीति को नुकसान पहुंचाये.

दोनों पार्टियों के लिए सरकार का गठन परदे के पीछे चली दो महीने की गहन बातचीत का नतीजा था. सरकार ‘गंठबंधन का एजेंडा’ नामक दस्तावेज के आधार पर बनी है, जिसमें अन्य विवादास्पद मसलों के साथ कश्मीरी पंडितों की वापसी का भी उल्लेख है.

इस दस्तावेज में ‘राज्य के नागरिक होने के उनके अधिकारों के आधार पर सम्मान के साथ कश्मीरी पंडितों की वापसी सुनिश्चित कर तथा उन्हें कश्मीरी वां्मय में पुनर्स्थापित और एकीकृत कर जातीय और धार्मिक विविधता की सुरक्षा और उसके संरक्षण’, जिसके लिए ‘शुरुआत राज्य के भीतर और नागरिक समाज में समुदाय को भरोसे में लेने के साथ’ करने की बात कही गयी है. जहां तक शब्दों के चयन का मामला है, यह बिल्कुल स्पष्ट है, इसमें किसी मिश्रित या अलग बस्ती का जिक्र नहीं है. इसलिए एक प्रक्रिया शुरू करनी होगी.

लेकिन जिस तरह से गृह मंत्रलय ने यह विज्ञप्ति जारी की, उससे विवाद खड़ा हो गया, जो कि स्वाभाविक भी था. विधानसभा में मुख्यमंत्री द्वारा अलग बस्तियों की किसी भी योजना से इनकार करने से पहले ही मामला बिगड़ चुका था. स्थिति स्पष्ट करने की राज्य सरकार की पूरी कोशिश के बावजूद गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने नौ अप्रैल को फिर से बयान दिया कि केंद्र सरकार पंडितों के पुनर्वास की योजना को लागू करेगी. दूसरी तरफ अलगाववादियों की प्रतिक्रिया भी अतिवादी थी.

चिंताएं सही हो सकती हैं, लेकिन जल्दबाजी में फिलिस्तीन के साथ तुलना करने से मुद्दे को समुचित तरीके से समझने के लिए माहौल बनाने में मदद नहीं मिल सकती है. श्रीनगर-स्थित कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के अध्यक्ष संजय टिक्कू ने कहा है कि ‘अलगाववादी पंडितों की वापसी का विरोध भी कर रहे हैं और उनकी ससम्मान वापसी की बात भी कर रहे हैं.’ टिक्कू एक सही आवाज हैं और उनकी बात की अवहेलना नहीं की जा सकती है, क्योंकि वे उन 651 परिवारों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो कश्मीर में अशांति के बावजूद घाटी में ही बसे रहे हैं.

चूंकि कश्मीरी पंडितों का विस्थापन कश्मीर के इतिहास का एक काला अध्याय है, इसलिए उनकी वापसी पर शायद ही कोई असहमति है. आप किसी आम कश्मीरी से बात करें, तो वह अपने पंडित पड़ोसियों के बगैर अधूरा अनुभव करता है, क्योंकि उनके रहने से ही कश्मीर एक अनूठी जगह था, जिस पर आज भी हम नाज करते हैं. लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि विवाद में आप मसलों को सुलझाने का प्रयास करते हैं, तो हर सकारात्मक पहल पर नकारात्मक राजनीति हावी हो जाती है.

अगर भाजपा ऐसी राजनीति खेलना जारी रखती है और जो समुदाय को घाटी के अन्य लोगों से और भी अलग-थलग करती है, तो वह उनका कोई भला नहीं कर रही है. विस्थापन के बाद से अधिकतर कश्मीरी पंडित भाजपा से संबद्ध थे, लेकिन गत विधानसभा चुनाव में यह साफ हो गया कि एक वर्ग को छोड़ कर, उन्होंने पार्टी से खुद को दूर कर लिया है, और उन्हें संभवत: बहुसंख्यक समाज का विरोधी नहीं माना जाना चाहिए.

अगर दिल्ली और जम्मू में पंडितों के कुछ संगठनों के प्रस्तावों को देखें, तो लगता है कि वे कश्मीर में वापस आ रहे हैं, न कि अपने ‘घरों’ में. केंद्र और राज्य सरकारों को गृह मंत्री और अन्य लोगों द्वारा प्रयुक्त शब्दावली पर स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता है.

‘मिश्रित बस्ती’ का मतलब आम तौर पर यह है कि सभी समुदाय के लोग उसका हिस्सा होंगे, लेकिन घाटी के बदलते परिदृश्य में ऐसी जगह बना पाना संभव नहीं दिखता. सामान्यत: कश्मीरी पंडितों को अपने घरों में लौटना चाहिए. लेकिन अधिकांश लोगों ने अपनी संपत्ति बेच दी है और सिर्फ ग्रामीण क्षेत्रों में रहनेवाले पंडितों के जजर्र घर और खेत बचे हैं. खैरात के जरिये पंडितों को लुभाने की अब तक की गयी कोशिशें असफल साबित हुई हैं.

पिछली सरकार ने शेखपुरा और वेस्सु जैसी जगहों पर उनके लिए सुरक्षित कॉलोनियां बनायी थी तथा 4,000 से अधिक पंडित लड़के-लड़कियों को नौकरियां उपलब्ध करायी थी, पर इसके वांछित परिणाम नहीं निकल सके थे. इनमें से अधिकांश जम्मू और दिल्ली लौट गये. कितने फीसदी कश्मीरी पंडित भारत में और बाहर अच्छी नौकरियां छोड़ कर कश्मीर वापस आने के लिए तैयार हैं? उनकी सुरक्षा की गांरटी कौन देगा, जब सैन्य बलों के विशेषाधिकार कानून हटाये जाने पर सरकार का रवैया इस बात से प्रेरित है कि घाटी में ‘स्थितियां इसके अनुकूल नहीं हैं’.

हालांकि, अलगाववादियों को राय देने का पूरा अधिकार है, परंतु वे भी पंडितों की वापसी के लिए किसी कारगर समाधान में योगदान करने में असफल रहे हैं. सरकार से अलग कोई उपाय लेकर वे कितनी बार विस्थापितों तक पहुंचे हैं? एक विशेष रवैया अपना कर वे तर्क और व्यावहारिकता के आधार पर एक समझ बनाने में भी मददगार नहीं हो रहे हैं.

कश्मीर समस्या के समाधान की प्रक्रिया के वे भी हिस्सेदार हैं, लेकिन 25 वर्षो का अनुभव यही बताता है कि उनके पास कोई दिशा नहीं है. भारत सरकार अपने तरीके से पंडितों का पुनर्वास करना चाहती है, जो स्थिर कश्मीर के लिए सही प्रतीत नहीं हो रहा है. चूंकि उसमें राज्य के मसलों, जो इस पुनर्वास से भी गंभीर हैं, को सुलझाने के लिए लोगों को साथ लेकर चलने की प्रतिबद्धता का अभाव है, इसलिए उसके किसी भी प्रस्ताव को समर्थन नहीं मिलेगा.

व्यापक राजनीतिक मसलों की अवहेलना कर अपने राजनीतिक एजेंडे के अनुरूप चुनींदा समस्याओं पर पहल कर नरेंद्र मोदी सरकार कश्मीर का भला नहीं कर रही है. इससे यही संदेश जा रहा हि कि सरकार विलगाव की जमीनी हकीकतों की परवाह नहीं करती है.

कश्मीरी पंडितों की वापसी कश्मीर समस्या के समाधान का अभिन्न हिस्सा है और इसे अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए. इसका समाधान कश्मीर के नागरिक समाज को साथ लेकर ही किया जा सकता है, न कि अलग बस्तियां बना कर. स्थायी समाधान के लिए इस पूरी प्रक्रिया में कश्मीर के बहुसंख्यक समुदाय को भरोसे में लेना बहुत जरूरी है.

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