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बेहतर सिनेमा के सपने को सम्मान

विनोद अनुपम फिल्म समीक्षक बेसिर-पैर की भूमिकाओं और सिनेमा के प्रति शशि कपूर की अनथक दौड़ का अर्थ उनके प्रशंसकों को तब समझ में आया, जब उन्होंने ‘शेक्सपियरवाला’ के नाम से अपने होम प्रोडक्शन की शुरुआत की. इस बैनर के माध्यम से उन्होंने श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, अपर्णा सेन, गिरीश कर्नाड जैसे अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता […]

विनोद अनुपम
फिल्म समीक्षक
बेसिर-पैर की भूमिकाओं और सिनेमा के प्रति शशि कपूर की अनथक दौड़ का अर्थ उनके प्रशंसकों को तब समझ में आया, जब उन्होंने ‘शेक्सपियरवाला’ के नाम से अपने होम प्रोडक्शन की शुरुआत की. इस बैनर के माध्यम से उन्होंने श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, अपर्णा सेन, गिरीश कर्नाड जैसे अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के लिए चर्चित फिल्मकारों के सहयोग से बेहतरीन फिल्मों का निर्माण कर फिल्मी दर्शकों को एक नये सिनेमा का आस्वाद दिया.
‘मेरे पास मां है’, भारतीय सिनेमा के इतिहास में शशि कपूर को अमर बनाने के लिए ‘दीवार’ का यही एक संवाद काफी था, लेकिन अब जब 77 वर्ष की उम्र में उन्हें दादा साहब फाल्के अवॉर्ड से सम्मानित किये जाने की घोषणा हुई, तो यही माना जा सकता है, यह शशि कपूर से कहीं अधिक उनके सिनेमा का सम्मान है, उस सिनेमा का जो उनके सपनों में बसता था, जिस सिनेमा के लिए उन्होंने अपनी पूरी सफलता दावं पर लगा दी थी. शशि कपूर ने कहने को 150 से भी अधिक फिल्मों में काम किया, यदि इनमें से कुछ आरंभिक दौर की फिल्मों को छोड़ दिया जाये, तो अधिकांश काफी सफल रहीं.
इसके बावजूद शशि कपूर जब 1978 में फिल्म निर्माण में आये, तो शुरुआत ‘जुनून’ से की. 1857 के दौर पर ऐतिहासिक संदर्भो के साथ श्याम बेनेगल के निर्देशन में बनी यह फिल्म अपने आप में यह कहती लगती थी कि शशि कपूर आखिर सिनेमा से चाहते क्या थे. ‘जुनून’ नहीं चली, लेकिन बेहतर सिनेमा के प्रति शशि कपूर ने अपने जुनून को कभी विराम नहीं दिया. वास्तव में शशि कपूर के अभिनय की स्कूलिंग जहां से हुई थी, ‘फकीरा’ का ‘विजेता’ के रूप में रूपांतरण अस्वाभाविक भी नहीं था.
पृथ्वी राज कपूर के सबसे छोटे बेटे के रूप में जन्में शशि कपूर के लिए भी बाकी कपूरों की तरह सिनेमा की डगर आसान नहीं रही थी. पृथ्वी राज कपूर एक सख्त अभिभावक थे और उन्होंने कभी किसी बेटे को अपनी पोजिशन का लाभ नहीं उठाने दिया. शशि कपूर की प्रतिभा हालांकि ‘आग’ और ‘आवारा’ जैसी फिल्मों से बाल भूमिकाओं में ही दिखने लगी थी, लेकिन पृथ्वी राज कपूर ने उन्हें थियेटर में सक्रिय होने की सलाह दी. पृथ्वी थियेटर में काम करते हुए शशि कपूर ब्रिटेन के नाटककार केंडेल के संपर्क में आये, जो अपनी नाट्यकंपनी ‘शेक्सपीयराना’ के साथ भारत आये हुए थे.
‘शेक्सपीयराना’ के साथ शशि कपूर को देश के कई रंगमंच पर उतरने का मौका मिला. ‘शेक्सपीयराना’ ने उन्हें जीवन के अनुभवों के साथ जेनिफर केंडेल जैसी पत्नी भी दी, जिनके साथ ने शशि कपूर के जीवन को दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. अस्सी के दशक में शशि कपूर जब सहनायक के रूप में सफलता का नया व्याकरण रच रहे थे, उसी समय जेनिफर की असमय मौत ने उन्हें तोड़ ही नहीं दिया, उनके जीवन की दशा और दिशा भी बदल दी. वे सिनेमा से भी लापरवाह हो गये और सबसे दुखद अपने आप से भी.
शशि कपूर ने परदे पर अभिनय की शुरुआत 1961 में यश चोपड़ा की निर्देशक के रूप में पहली फिल्म ‘धर्मपुत्र’ से की, फिल्म हालांकि नहीं चली, लेकिन अपने विषय के कारण आज भी याद की जाती है. प्रेमकथाओं के उस दौर में शशि कपूर को ‘चार दीवारी’, ‘मेहंदी लगी मेरे हाथ’, ‘प्रेमपत्र’, ‘मोहब्बत इसको कहते हैं’, ‘नींद हमारी ख्वाब तुम्हारे’, ‘जुआरी’, ‘कन्यादान’, ‘हसीना मान जायेगी’ जैसी कई फिल्में मिलीं, लेकिन ज्यादातर फ्लॉप रहीं.
यह वह दौर था, जब दिलीप कुमार, राजेंद्र कुमार और देवानंद जैसे अभिनेता सफलता के पर्याय के रूप में स्थापित थे, जाहिर है शशि कपूर को सफलता के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ी. 1965 में ‘जब जब फूल खिले’ आयी और कश्मीरी हाउसबोट मालिक के रूप में अपनी सहज मुस्कान और खूबसूरत चेहरे से प्रशंसकों की कतार खड़ी कर ली, जो अब उनकी फिल्मों की प्रतीक्षा कर रही थी. 70 के दशक में उनकी व्यस्तता का यह आलम था कि एक साथ तीन तीन शिफ्टों में वे शूटिंग किया करते थे.
यह शशि कपूर का आत्मविश्वास ही था कि उन्होंने कभी भी किसी स्टार या अभिनेता के साथ काम करने में कोई संकोच नहीं किया, न ही कभी अपनी भूमिका के लिए चिंतित रहे. राजेश खन्ना जब निर्विवाद सुपर स्टार थे, शशि कपूर ने ‘प्रेम कहानी’ जैसी फिल्म में सहनायक की भूमिका में उतरने का जोखिम उठाया. अमिताभ बच्चन के साथ तो ‘कभी कभी’, ‘दीवार’, ‘सुहाग’, ‘ईमान धरम’, ‘त्रिशूल’, ‘काला पत्थर’, ‘दो और दो पांच’, ‘सिलसिला’, ‘नमक हलाल’ जैसी फिल्मों में कमजोर चरित्र के बावजूद वे आते रहे.
शत्रुघ्न सिन्हा का भी ‘आ गले लग जा’ और ‘गौतम गोविंदा’ जैसी फिल्म में साथ निभाया. वास्तव में इन फिल्मों को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि शशि कपूर के लिए महत्वपूर्ण सिर्फ और सिर्फ उनका काम रहा. आश्चर्य नहीं कि लगातार काम करते हुए कभी भी किसी अवॉर्ड के लिए उन्हें नामांकन नहीं मिल सका. शायद शशि कपूर को भी पता था कि वे इन फिल्मों के लिए नहीं बने हैं.
बेसिर-पैर की भूमिकाओं और सिनेमा के प्रति शशि कपूर की अनथक दौड़ का अर्थ उनके प्रशंसकों को तब समझ में आया, जब उन्होंने ‘शेक्सपीयरवाला’ के नाम से अपने होम प्रोडक्शन की शुरुआत की. इस बैनर के माध्यम से उन्होंने श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, अपर्णा सेन, गिरीश कर्नाड जैसे अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के लिए चर्चित फिल्मकारों के सहयोग से ‘जुनून’ (1979), ‘कलयुग’ (1981), ‘36 चौरंगी लेन’ (1981), ‘विजेता’ (1983) तथा ‘उत्सव’ (1985) जैसी फिल्मों का निर्माण कर फिल्मी दर्शकों को एक नये सिनेमा का आस्वाद दिया.
अनुभवी शशि कपूर को पता था कि इन फिल्मों का व्यावसायिक हश्र क्या होनेवाला है, लेकिन शायद कहीं-न-कहीं रंगमंच की वैचारिक प्रतिबद्धता का दबाव था कि शशि कपूर पीछे नहीं मुड़े. उन्होंने शेक्सपीयरवाला के साथ अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा पृथ्वी थियेटर के रूप में रंगमंच को समृद्ध करने में लगा दिया, जिसका निर्वहन आज भी उनकी बेटी संजना कपूर पूरे उत्साह के साथ कर रही हैं.
यह हिंदी सिनेमा के परंपरागत अभिनेताओं से इतर दिखती परिपक्वता ही थी कि ब्रिटिश फिल्मकारों के वे प्रिय अभिनेताओं में रहे. 1972 में कोनार्ड रुक्स की ‘सिद्धार्थ’ में जब भारतीय चेहरे की बारी आयी, तो शशि कपूर का कोई विकल्प नहीं था. जेम्स आइवरी-इस्माइल मर्चेट की फिल्म शशि कपूर से ही जानी और देखी जाती थी. ‘द हाउस होल्डर’ (1963), ‘शेक्सपीयरवाला’ (1965), ‘बॉम्बे टॉकीज’ (1970) तथा ‘हीट एंड डस्ट’ (1982) में अभिनेता के तौर पर उनकी ऊंचाई किसी को भी चमत्कृत कर सकती है. 1993 में इन्होंने मर्चेट-आइवरी की जोड़ी के साथ ‘इन कस्टडी’ (मुहाफिज) पूरी की, एक शायर की ढलती हुई जिंदगी को निभाते हुए उन्हें शायद ही अहसास होगा कि यही उनकी जिंदगी का सच बनने जा रहा है.
आज शशि कपूर अस्वस्थ हैं. व्हील चेयर पर हैं. तब उनके लिए दादा साहब फाल्के अवॉर्ड की घोषणा हो रही है. वास्तव में यह अवॉर्ड शशि कपूर को नहीं, बल्कि बेहतर सिनेमा के लिए देखे उनके सपने को समर्पित माना जा सकता है.

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