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एक विचार को दबाने की कोशिश

।।नरेंद्र दाभोलकर की हत्या।।श्रद्धा और अंधश्रद्धा में फर्क है. श्रद्धा हमें विवेकवान बनाती है. अंधश्रद्धा विवेक को खारिज कर देती है, तर्क का तिरस्कार करती है. श्रद्धा किस जगह पहुंच कर अंधश्रद्धा का रूप ले लेती है, यह अकसर मालूम नहीं चलता. लोग अंधश्रद्धा को ही धर्म तक समझ लेते हैं. आज से करीब छह […]

।।नरेंद्र दाभोलकर की हत्या।।
श्रद्धा और अंधश्रद्धा में फर्क है. श्रद्धा हमें विवेकवान बनाती है. अंधश्रद्धा विवेक को खारिज कर देती है, तर्क का तिरस्कार करती है. श्रद्धा किस जगह पहुंच कर अंधश्रद्धा का रूप ले लेती है, यह अकसर मालूम नहीं चलता. लोग अंधश्रद्धा को ही धर्म तक समझ लेते हैं. आज से करीब छह शताब्दी पहले संत कबीरदास ने अंधश्रद्धा की अमानवीयता को शिद्दत से महसूस किया था. कबीर संत थे. ईश्वर में गहरा यकीन करते थे. लेकिन, ईश्वर के विधान के नाम पर समाज में व्याप्त अंधविश्वासों की उन्होंने आलोचना की.

इन अंधविश्वासों के नाम पर होनेवाले सामाजिक भेदभाव, अस्पृश्यता की अमानवीयता के खिलाफ कबीर ने लंबा संघर्ष किया. उसमें छिपे शोषण को उजागर किया. यह संघर्ष बेहद कठिन था. तमाम तरक्की के बावजूद 21वीं सदी में भी यह संघर्ष आसान नहीं हुआ है, बल्कि जानलेवा हो गया है! अंधविश्वासों के खिलाफ जागृति फैलानेवाले डॉ नरेंद्र दाभोलकर की पुणो में हत्या इस संघर्ष के खतरों से हमें रूबरू करा रही है. महाराष्ट्र में अंधश्रद्धा निमरूलन समिति की स्थापना करनेवाले दाभोलकर का पूरा जीवन समाज में व्याप्त अंधविश्वासों के खिलाफ लोगों में जागरूकता पैदा करने को समर्पित था.

पेशे से डॉक्टर रहे दाभोलकर तंत्र-मंत्र, जादू-टोना व दूसरे अंधविश्वासों को दूर करने के मिशन में जिस तरह से लगे हुए थे वह धर्म के स्वयंभू ठेकेदारों को कभी रास नहीं आया. दाभोलकर की हत्या सिर्फ एक व्यक्ति की हत्या नहीं है, यह लंबे संघर्ष के बाद इनसानी सभ्यता द्वारा हासिल किये गये आधुनिक विचारों का गला घोंटने की कोशिश है. दाभोलकर की जंग न व्यक्तिगत थी, न किसी व्यक्ति या समूह के खिलाफ थी. वे आधुनिकता के उन विचारों का प्रतिनिधित्व और प्रचार कर रहे थे, जो रूढ़ियों का विरोध करता है. वह विचार, जो कबीर के ‘आंखन देखी’ की तरह तर्क को अहमियत देता है, वैज्ञानिक दृष्टिकोण का आग्रही है.

21वीं सदी में जब हम आधुनिक से उत्तर आधुनिक होने का दावा कर रहे हैं, यह सच्चई परेशान करनेवाली है कि आज भी समाज में अंधविश्वासों के नाम पर शोषण का कुचक्र जारी है. हमारे समाज से आनेवाली शिशु नरबलि, चुड़ैल कह कर औरतों की हत्या की खबरें इस बात का दुखद प्रमाण हैं. आर्थिक-सामाजिक शोषण के दूसरे रूप तो प्रचलन में हैं ही. यह सही है कि समाज ने अंधविश्वासों के खिलाफ एक लंबी जंग लड़ी है, लेकिन दाभोलकर की हत्या हमें आगाह कर रही है कि यह लड़ाई अभी अधूरी है. जरूरत इस बात की है कि दाभोलकर ने जिस संघर्ष को आगे बढ़ाया, उसे हम सब मिल कर अंजाम तक पहुंचाएं.

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