फिर धर्मातरण की समस्या और फिर उस पर बहस. यह भारत की पुरानी समस्या है. उतनी ही पुरानी जितने कि बुद्ध, सिक्ख, जैन आदि संप्रदाय हैं या शायद इससे भी अधिक पुरानी. इस देश में धर्मातरण और बढ़ गया, जब हिंदुस्तान गुलामी की जंजीरों में जकड़ा. अंतर सिर्फ इतना था कि किसी ने प्यार से धर्मांतरण कराया, तो किसी ने तलवार के बल पर और किसी ने प्रलोभन देकर.
प्रसिद्ध इतिहासकार पार्क रेंडवर्न का कहना है कि धर्मातरण दरअसल वर्चस्व का बाइ प्रोडक्ट है. शायद इसी नीति को अपनाते हुए विदेशी शासकों ने हमारे ऊपर अपना राज चलाया. वास्तव में धर्मातरण हर शासक के जमाने में हुआ. उसकी प्रकृति भले ही भिन्न रही हो. अकबर ने दीन-ए-इलाही की स्थापना करके धर्मातरण के लिए उदार रवैया अपनाया, तो औरंगजेब और बाबर ने आक्रामक. अंगरेज भी इस मामले में पीछे नहीं रहे. हालांकि अंगरेजी शासन के दौरान धर्मातरण मिशनरियों के माध्यम से कराया जाता था. धर्मातरण आज भी हो रहा है, पर आज धर्मातरण प्यार और तलवार से नहीं, बल्किअब प्रलोभन देकर किया जा रहा है.
सेवा, शिक्षा और चिकित्सा के नाम पर आदिवासियों या फिर समाज के अन्य कमजोर वर्ग के लोगों का धर्म परिवर्तन कराया जा रहा है. परंतु विचारणीय है कि इसका दंश हमेशा समाज के गरीब तबके को ही क्यों ङोलना पड़ता है. शायद इसलिए क्योंकि आजादी के छह दशक बाद भी समाज में हम उन्हें वह हक नहीं दिला पाये, जिसकी उन्हें जरूरत है. हम वह इज्जत और सम्मान नहीं दे पाये, जिसके वो हकदार हैं. वे इसी इज्जत और सम्मान की खोज में धर्म परिवर्तन करते हैं. आज भी इस देश में केवल वोट बैंक और वर्चस्व की राजनीति होती है.
विवेकानंद विमल, मधुपुर