विश्व की सबसे अधिक आबादीवाले देश चीन में काम के अधिकार को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया गया है. निश्चय ही यह कदम बढ़ती जनसंख्या के सफल प्रबंधन की दृष्टि से सराहनीय है, जबकि जनसंख्या के क्षेत्र में नित नया कीर्तिमान स्थापित करनेवाले भारत में मजदूरों को ढंग से सौ दिन का काम भी मयस्सर नहीं है.
स्थिति ऐसी कि हर साल प्राय: सभी राज्यों से हजारों मजदूर काम की तलाश में पलायन करने को विवश होते हैं. वहीं, सरकार चंद योजनाओं को अपनी उपलब्धियों में गिना कर अपनी पीठ भी थपथपा लेती है. बेशक, केंद्र सरकार ने अच्छी योजनाओं को पटल पर उतारा तो है, लेकिन सरकार द्वारा प्रचारित ये योजनाएं बेरोजगारों को लुभाने में अक्षम प्रतीत होती है. शायद लोगों में जागरूकता का अभाव इसका एक बड़ा कारण हो सकता है. वहीं, सरकारी कामों को करने की तरफ मजदूरों के झुकाव का कम होना, निम्न मजदूरी दर, बेरोजगारी भत्ता न दिया जाना, रोजगार की मौसमी प्रवृत्ति तथा योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार आदि कारणों से भी होता है.
एक तरफ मजदूरों को काम उपलब्ध करवाने के नाम पर प्रतिवर्ष करोड़ों रु पये की फंडिंग होती है, तो वहीं कुपोषण, गरीबी एवं बेरोजगारी से होनेवाली मौतें एवं पलायन की गर्त में समाते राज्य, सरकार की कार्यशैली पर प्रश्नवाचक चिह्न् लगाने को काफी है. अत: संसद में एक बार बहस कर चीन की ही भांति देश में काम के अधिकार को मौलिक अधिकार घोषित कर दिया जाता, तो प्रतिवर्ष भूखों मरनेवालों एवं गरीबी एवं बेरोजगारी में जीवन बसर करनेवालों की संख्या में निश्चय रूप से कमी आती और देश की दशा जरूर बदलती, लेकिन ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है.
सुधीर कुमार, गोड्डा