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महंगाई कब तक? जब तक समोसे में आलू!

विकास की रेल सीटी बहुत बजा रही है, पर इसने आगे बढ़ना शुरू नहीं किया है. खुद भाजपा के थिंक टैंक अरुण शौरी हाल में अपने एक लेख में कह चुके हैं कि प्लेट-चम्मचों की आवाजें तो जरूर आ रही हैं, लेकिन खाना अब तक नहीं आया है. सुबह-सुबह एक मित्र बरस पड़े, खाक अच्छे […]

विकास की रेल सीटी बहुत बजा रही है, पर इसने आगे बढ़ना शुरू नहीं किया है. खुद भाजपा के थिंक टैंक अरुण शौरी हाल में अपने एक लेख में कह चुके हैं कि प्लेट-चम्मचों की आवाजें तो जरूर आ रही हैं, लेकिन खाना अब तक नहीं आया है.

सुबह-सुबह एक मित्र बरस पड़े, खाक अच्छे दिन आये हैं! ठीक है कि आलू-प्याज सस्ते हो गये, लेकिन समोसा कब सस्ता होगा? गाड़ी में डालने का तेल ही नहीं, खाने का तेल भी अंतरराष्ट्रीय बाजार में सस्ता हो चला है. फिर यहां समोसा सस्ता क्यों नहीं हुआ? मैंने उन्हें समझाना चाहा कि भाई, थोक महंगाई दर शून्य पर भले आ गयी है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कीमतें शून्य हो जायेंगी और सब कुछ मुफ्त मिलेगा. महंगाई दर शून्य होने का अर्थ है कि दाम बढ़े नहीं हैं, जितने थे उतने ही हैं. यह आंकड़ा थोक का है, खुदरा बाजार में थोड़े-बहुत दाम अब भी बढ़ रहे हैं, भले ही हल्की दर से.

महंगाई का एक सामान्य नियम यह है कि जिस चीज के दाम एक बार बढ़ गये, वो बढ़ गये. यह गाड़ी केवल एक तरफ जाती है. इसका कोई टर्मिनल नहीं है, जहां से यह पलट कर वापस उस ओर चलने लगे, जहां से आयी थी. खुदरा कीमतों पर यह नियम पूरी तरह लागू होता है. भले ही अखबार में पढ़ने को मिले कि मंडी में सब्जियां सस्ती हो गयी हैं, लेकिन ठेले वाला आपको पुराने भाव पर ही सब्जियां देता रहेगा. ज्यादातर लोगों को मंडी के भावों का पता ही नहीं होगा. जिन्हें पता होगा, उनमें ज्यादातर लोग टोकने की हिम्मत नहीं करेंगे और किसी ने टोक दिया तो ठेले वाला उसे एक राजनीतिक किस्म का बयान पकड़ा देगा. शायद अंत में एहसान करके 5 रुपये कम कर दे.

अगर आप टीवी पर विज्ञापनों को ध्यान से देखते हैं, तो आप हमेशा इस खुशफहमी में रहेंगे कि कीमतें तो हमेशा घटती हैं. टूथपेस्ट के दाम हमेशा घट ही जाते हैं! च्यवनप्राश भी टीवी के विज्ञापन में हमेशा पहले से सस्ता हो जाता है. गाड़ियों की हमेशा बंपर सेल ही चलती है. कपड़े हमेशा मेगा-सेल में मिलते हैं. लेकिन बाजार जाते ही पता नहीं कैसे आपकी जेब पहले से ज्यादा हल्की हो जाती है!

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी पीठ ठोक सकते हैं, आपसे कह सकते हैं कि मैंने अपना वादा पूरा कर दिया और महंगाई घटा दी. आखिर अब थोक महंगाई दर नवंबर 2014 में शून्य पर आ गयी. साल भर पहले नवंबर 2013 में यह 7.52 प्रतिशत और महीने भर पहले अक्तूबर 2014 में 1.77 प्रतिशत पर थी. अब और क्या चाहिए! खुदरा महंगाई दर भी कुछ खास नहीं रही. यह नवंबर 2014 में 4.38 प्रतिशत के न्यूनतम स्तर पर आ गयी है.

थोक महंगाई के आंकड़े बता रहे हैं कि प्याज 56.28 प्रतिशत सस्ता हो गया है. सब्जियां औसतन 28.57 प्रतिशत सस्ती हो गयी हैं. अगली बार सब्जी लेने जायें, तो कैलकुलेटर साथ ले जायें और अखबार की कतरन भी. ठेले वाले को दिखा कर बतायें कि भई दाम 28.57 प्रतिशत कम करो. हो सकता है कि वह भी अखबार की ताजा कतरन दिखा कर आपको बता दे कि आलू की महंगाई तो नवंबर में 34.10 प्रतिशत बढ़ी है. कितना मजेदार दृश्य होगा कि एक खरीदार और एक ठेले वाला सब्जियों की कीमतों पर मोलभाव कर रहे हैं और उनकी मदद के लिए एक गणितज्ञ, एक सांख्यिकीविद् और एक अर्थशास्त्री साथ में खड़े हैं!

लेकिन आलू का पारितंत्र केवल यहीं तक सीमित नहीं है. यह पारितंत्र जहां से शुरू होता है, उसकी तो हमने अब तक बात ही नहीं की. बेचारा किसान. आपको अपने समोसे की पड़ी है, उधर वह रो रहा है कि उसे उसकी फसल की लागत भी ठीक से वापस मिलेगी या नहीं. समय और मेहनत की कीमत तो जाने दीजिए, कम-से-कम खाद-बीज-कीटनाशक पर लगे पैसे तो वापस आ जायें. एक खबर के मुताबिक, नयी फसल आने पर इस दिसंबर में किसानों को आलू 5-7 रुपये प्रति किलोग्राम के भाव से बेचना पड़ रहा है. पिछले दिसंबर में उन्हें 16-20 रुपये तक के भाव मिल गये थे. पिछले साल के ऊंचे दाम देख कर देश भर के किसानों ने इस बार आलू की जम कर खेती कर ली.

अब सरकार किसके अच्छे दिनों की चिंता ज्यादा करे? किसान के अच्छे दिन आते हैं, तो देश भर के उपभोक्ता रोने लगते हैं. उपभोक्ता की चिंता करें, तो किसान कर्ज में डूब जाता है. पूरी श्रृंखला में प्रतिशत के हिसाब से ठेले वाला सबसे ज्यादा हिस्सा ले जाता है, मगर वह पिछले साल भी गरीब था और इस साल भी गरीब है. इसमें अगर कोई है, जिसके हमेशा अच्छे दिन रहते हैं, तो वह है बीच का आढ़ती. सुना था मोदी सरकार मंडियों की व्यवस्था सुधारने जा रही है. लेकिन इससे आगे कुछ सुनने को नहीं मिला. शायद पार्टी बैठकों में महत्वपूर्ण कार्यकर्ताओं ने कह दिया हो कि ऐसा करने से तो उनके बुरे दिन आ जायेंगे.

खुदरा महंगाई पर नियंत्रण पाने की यह एक ऐसी पहेली है, जिसका हल अब तक किसी सरकार के पास नहीं रहा है. थोक महंगाई तो फिर भी मांग-आपूर्ति के नियमों पर कुछ हद तक चलती है, मगर खुदरा महंगाई की इकतरफा चलनेवाली रेल को कैसे किसी टर्मिनल पर रोक कर फिर से उल्टी दिशा में चलाया जाये? अगर यह उल्टी दिशा में न भी चले, तो इसकी रफ्तार धीमी हो जाने से भी लोग राहत महसूस करने लगते हैं. आखिर जो समोसा देखते-देखते बस दो साल में 5 रुपये से 10 रुपये का हो गया, वह अगर अगले साल-डेढ़ साल तक 10 रुपये का ही मिलता रहे, तो आप खुश रहेंगे. अर्थशास्त्रियों की भाषा में महंगाई दर धीमी हो जाने का मतलब यह नहीं है कि दाम पहले से घट जायेंगे. बस इतना होगा कि दाम बढ़ने की रफ्तार पहले से कम हो जायेगी.

लेकिन सरकार अगर खुदरा कीमतों को कम न करा सके तो उसे लोगों को राहत देने के लिए इस बात का इंतजाम तो करना होगा कि उनकी आमदनी बढ़ सके. लोगों की आमदनी बढ़ती है विकास दर तेज होने से और विकास के ही नारे पर मोदी सरकार बनी भी है. मगर विकास की रेल ने अब तक रफ्तार नहीं पकड़ी है. पहली तिमाही में 5.7 प्रतिशत विकास दर हासिल होने के बाद दूसरी तिमाही में विकास दर फिर से घट कर 5.3 प्रतिशत पर आ गयी. विकास की रेल सीटी बहुत बजा रही है, पर इसने आगे बढ़ना शुरू नहीं किया है. लोग सोच रहे हैं कि सीटी बजी है तो यह रेल आगे बढ़ेगी भी. खुद भाजपा के थिंक टैंक समङो जानेवाले अरुण शौरी हाल में अपने एक लेख में कह चुके हैं कि प्लेट-चम्मचों की आवाजें तो जरूर आ रही हैं, लेकिन खाना अब तक नहीं आया है.

लोग अब तक धैर्य के साथ इंतजार कर रहे हैं, लेकिन धैर्य की एक सीमा होती है. नरेंद्र मोदी और अरुण जेटली की टीम को यह बात बखूबी मालूम होगी. उम्मीद करते हैं कि लोगों का धैर्य टूटने से पहले रेल चल पड़ेगी, प्लेट में सजा खाना आ जायेगा. धैर्य और उम्मीदें टूटने पर लोगों की निराशा काफी बड़ी होगी, क्योंकि जनता ने काफी बड़े वादों से उपजी बड़ी उम्मीदों के आधार पर इस सरकार को एक बड़ा बहुमत दिया है.

राजीव रंजन झा

संपादक, शेयर मंथन

Rajeev@sharemanthan.com

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