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पूंजीवाद, प्रतिद्वंद्विता और इजारेदारी

मात्र चार साल पहले स्थापित एक कंपनी ने आज पूरी दुनिया के टैक्सी बाजार पर प्रभुत्व कायम कर लेने का आतंक पैदा कर दिया है. आज जिस तरह विश्व इजारेदारी कायम करने की इच्छुक कंपनियों का कोलाहल सुनाई दे रहा है, यह बिल्कुल नयी परिघटना प्रतीत होती है, जिसे आज के अर्थशास्त्री ‘नेटवर्किग इफेक्ट’ बताते […]

मात्र चार साल पहले स्थापित एक कंपनी ने आज पूरी दुनिया के टैक्सी बाजार पर प्रभुत्व कायम कर लेने का आतंक पैदा कर दिया है. आज जिस तरह विश्व इजारेदारी कायम करने की इच्छुक कंपनियों का कोलाहल सुनाई दे रहा है, यह बिल्कुल नयी परिघटना प्रतीत होती है, जिसे आज के अर्थशास्त्री ‘नेटवर्किग इफेक्ट’ बताते हैं. यानी इंटरनेट के तानेबाने से उत्पन्न एक नयी सामाजिक परिघटना. इसकी रोशनी में इजारेदारी बनाम प्रतिद्वंद्विता की बहस ने भी एक नया आयाम ले लिया है.

उबर कंपनी की कैब में बलात्कार की घटना ने दिल्ली के सत्ता के गलियारों तक में भारी हलचल पैदा कर दी है. इस कंपनी का शोर सारी दुनिया में है. मात्र चार साल पहले सैन फ्रांसिस्को में यात्रियों को बड़ी गाड़ियों की सुविधा आसानी से मुहैया कराने के उद्देश्य से बनी इस कैब कंपनी ने देखते ही देखते पूरी दुनिया के टैक्सी बाजार पर अपना प्रभुत्व कायम कर लेने का आतंक पैदा कर दिया है. अब तक 50 देशों के 230 शहरों में इसने अपने पैर पसार लिये हैं और हर हफ्ते इसके दायरे में एक नया शहर आ रहा है. चार साल पहले शुरू हुई इस मामूली कंपनी की आज बाजार कीमत 40 बिलियन डॉलर आंकी जा रही है.

उबर और सिलिकन वैली की ऐसी अन्य कंपनियों के विश्व-प्रभुत्व अभियान ने दुनिया में ‘प्रतिद्वंद्विता बनाम इजारेदारी’ की पुरानी बहस को नये सिरे से खड़ा कर दिया है. दिल्ली की सत्ता के गलियारों में गृह मंत्रलय और परिवहन मंत्री के परस्पर विरोधी बयानों में भी कहीं न कहीं, सूक्ष्म रूप से ही सही, उसी वैचारिक द्वंद्व की गूंज सुनाई देती है.

मार्क्‍स ने पूंजी के संकेंद्रण को पूंजीवाद की नैसर्गिकता बताया था. सामान्य तौर पर मार्क्‍स के इस कथन की तुलना ‘बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है’ की तरह के मतस्य-न्याय से की जाती रही है. इसके मूल में संकेंद्रण की प्रक्रिया को दर्शानेवाला मार्क्‍स का यह कथन था कि संपत्तिहरणकारियों का संपत्तिहरण होता है. लेकिन, आज जिस तरह विश्व इजारेदारी कायम करने की इच्छुक ढेर सारी कंपनियों का कोलाहल सुनाई दे रहा है, यह बिल्कुल नयी परिघटना प्रतीत होती है, जिसे आज के अर्थशास्त्री ‘नेटवर्किग इफेक्ट’ बताते हैं. यानी इंटरनेट के तानेबाने से उत्पन्न एक नयी सामाजिक परिघटना. इसकी रोशनी में इजारेदारी बनाम प्रतिद्वंद्विता की बहस ने भी एक नया आयाम ले लिया है.

पूंजीवादी अर्थशास्त्री व्यापारिक प्रतिद्वंद्विता को पूंजीवाद की सबसे बड़ी आंतरिक शक्ति, उसकी आत्मा बताते रहे हैं. पूंजीवाद के निरंतर विकास और उसकी सामाजिक प्रासंगिकता के तथाकथित प्रमुख स्नेत (बाजार का मूल तत्व) के बरक्श पूंजीवाद के पैरोकार इजारेदारी को हमेशा एक सामाजिक बुराई, एक विचलन के तौर पर देखते हैं; जो उनके अनुसार पूंजीवाद की आंतरिक गतिशीलता का, उसकी आत्मा का हनन करती है और व्यापक समाज का भी अहित करती है. विकसित पूंजीवादी देशों के संविधान में इजारेदारी को रोकने के कानूनी प्राविधान है और गाहे-बगाहे इन प्राविधानों का अक्सर प्रयोग भी किया जाता रहा है. भारत में भी उन्हीं की तर्ज पर बदस्तूर एमआरटीपी एक्ट बना हुआ है.

अमेरिकी इतिहास में ऐसे कई मौके आये हैं जब राज्य की ओर से सीधे हस्तक्षेप करके आर्थिक इजारेदारियों को तोड़ने के कदम उठाये गये. अमेरिकी राष्ट्रपति थियोडर रूजवेल्ट को तो इतिहास में ‘ट्रस्ट बस्टर’ अर्थात् ‘इजारेदारी भंजक’ की ख्याति प्राप्त है, जिन्होंने 1901-1909 के अपने शासनकाल में 44 अमेरिकी इजारेदार कंपनियों को भंग किया था. अमेरिका में सबसे पहला इजारेदारी-विरोधी कानून शरमन एंटी ट्रस्ट एक्ट 1850 में बना था. उसके बाद क्लेटन एंटी ट्रस्ट एक्ट और फेडरल ट्रेड कमीशन एक्ट (1914), रॉबिन्सन-पैटमैन एक्ट (1936) तथा सेलर-केफोवर एक्ट (1950) आदि कई कानून बने. अमेरिका में कंपनियों की इजारेदाराना हरकतों को लेकर हमेशा अदालतों में कोई न कोई मुकदमा चलता ही रहता है.

लेकिन, वेंचर कैपिटल के सहयोग से आज अमेरिकी गराजों से विश्व विजय पर निकलनेवाली नये प्रकार की इजारेदाराना कंपनियों के सिलसिले में यह सवाल उठाया जा रहा है कि क्या सचमुच इजारेदारी पूंजीवाद की आंतरिक ऊर्जा को सोखती है और समाज का अहित करती है? आज दुनिया की सबसे बड़ी मानी जानेवाली माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, एपल, फेसबुक आदि कंपनियों का ऐसा करिश्मा है, जिसकी पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. स्थिति यह है कि इन कंपनियों से सारी दुनिया की सरकारें एक स्तर पर खौफजदा हैं, लेकिन इनसे किनारा करने के लिए कोई भी तैयार नहीं है. खुद अमेरिका में भी यही हाल है. पिछले दिनों अमेरिकी अदालतों में माइक्रोसॉफ्ट, गूगल आदि को लेकर जितने भी मुकदमे चले, उन सबमें न्यायाधीशों ने इन कंपनियों के बारे में साफ राय देने में अपने को लगभग असमर्थ पाया है. उनके ज्यादातर फैसले इन्हें भविष्य में एहतियात बरत कर चलने की हिदायत देने तक सीमित रहे हैं. जानकारों का कहना है कि इन फैसलों से इन कंपनियों के काम करने के ढंग में जरा सा भी फर्क नहीं आया है.

दुनिया में इंटरनेट व मोबाइल के जरिये भुगतान की सुविधा उपलब्ध करानेवाली कंपनी ‘पे पल’ के संस्थापक पीटर थियेल की बीते सितंबर में किताब आयी है- जीरो टू वन (नोट्स ऑन स्टार्ट्स अप ऑर हाउ टू बिल्ड द फ्यूचर). थियेल ने ही जुकरबर्ग के फेसबुक में सबसे पहले निवेश किया था. किताब में थियेल ने प्रतिद्वंद्विता के प्रति अर्थशास्त्रियों और सरकारों के अति-आग्रह को लताड़ते हुए कहा है कि यह सोच इतिहास के कूड़े पर फेंक देने लायक है कि प्रतिद्वंद्विता से ग्राहक को लाभ होता है. वे उद्यमियों को प्रतिद्वंद्विता की नहीं, इजारेदारी कायम करने की सीख देते हैं. उनकी दृष्टि में ‘प्रतिद्वंद्विता तो पराजितों का राग है. आप यदि टिकाऊ मूल्य पैदा और प्राप्त करना चाहते हैं तो इजारेदारी कायम करो.’

‘जीरो टू वन’ के प्राक्कथन की पहली पंक्ति ही है- ‘व्यापार में हर क्षण सिर्फ एक बार घटित होता है. अगला बिल गेट्स ऑपरेटिंग सिस्टम नहीं बनायेगा. अगला लैरी पेज या सर्गे ब्रिन सर्च इंजन नहीं बनायेगा और अगला जुकरबर्ग सोशल नेटवर्किग साइट तैयार नहीं करेगा. आप यदि इन लोगों की नकल कर रहे हैं, तो आप उनसे कुछ नहीं सीख रहे हैं.’

आज गूगल, माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनियों के बीच भी कभी-कभी प्रतिद्वंद्विता के जो चिह्न दिखते हैं, वे बेहद कमजोर से चिह्न हैं. सच्चाई यह है कि सिलिकन वैली की तमाम कंपनियां उन क्षेत्रों से अपने को धीरे-धीरे हटा लेती हैं, जिनमें एक कंपनी ने बढ़त हासिल कर ली है. और जो दूसरे उपेक्षित क्षेत्र हैं, जिनकी ओर अभी दूसरों का ध्यान नहीं गया है, उन पर अपने को केंद्रित करती हैं. विश्व विजय की होड़ में उतर रहे उबर की तरह के नये रणबांकुरे भी किसी भी क्षेत्र में सीधे ताल ठोक कर किसी पहले से स्थापित कंपनी से प्रतिद्वंद्विता के लिए काम नहीं कर रहे हैं.

फेसबुक को देखिये. छात्रों के एक समूह के बीच संपर्क के उद्देश्य से तैयार सोशल नेटवर्किग साइट देखते-देखते दुनिया में अरबों लोगों के बीच संपर्क का प्लेटफॉर्म बन गया. यह एक खास सामाजिक परिस्थिति की उपज भी है. जब तक व्यापक पैमाने पर लोगों के हाथों में मोबाइल फोन, टैबलेट, कंप्यूटर न हों, इस प्रकार के संजाल पर आधारित नयी इजारेदारियों की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. यानी इजारेदारी के तहत होनेवाली खोजों से जिंदगी एक नये रूप में संवरती भी है.

थियेल का साफ कहना है कि ‘पूंजीवाद पूंजी के संचय पर टिका हुआ है, लेकिन वास्तविक प्रतिद्वंद्विता की परिस्थिति में तो सारा मुनाफा प्रतिद्वंद्विता की भेंट चढ़ जायेगा.’ यानी पूंजीवाद की नैसर्गिकता प्रतिद्वंद्विता में नहीं, न ही जनतंत्र में है. पूंजीवाद का अंतर्निहित सच है इजारेदारी व तानाशाही. इस तरह सभ्यता के सच्चे जनतंत्रीकरण के रास्ते की यह एक पहाड़ समान बाधा है. और इसलिए दिल्ली में उबर पर पाबंदी के फौरन बाद उतनी ही जोरदार आवाज में इस कदम के पीछे विवेक की कमी की आवाज का उठना भी अस्वाभाविक नहीं है.

अरुण माहेश्वरी

मार्क्‍सवादी चिंतक

arunmaheshwari1951 @gmail.com

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