ऋतुओं का चक्र अपनी गति से घूमता रहता है. जाड़े के बाद गर्मी, गर्मी के बाद बारिश, और इसके बाद फिर जाड़ा. सबकुछ अपने नियत समय पर होता है. क्योंकि प्रकृति का अपना अनुशासन है. लेकिन हमारी शासन व्यवस्था का कोई अनुशासन नहीं है. यहां कंबल तब बंटता है, जब जाड़ा विदाई की ओर बढ़ रहा होता है.
चौक-चौराहों पर लोग ठंड से ठिठुरते रहते हैं, लेकिन अलाव जलने के लिए फाइलों में सरकारी हुक्म का इंतजार करते रहता है. यही रवैया अन्य मौसमों के समय भी रहता है. अगर पांच-दस दिन आगे-पीछे की बात छोड़ दें, तो मानसून आने का वक्त तय है, लेकिन प्रशासनिक अमला तभी चेतता है जब बारिश की वजह से पानी नाक से ऊपर पहुंच जाता है.
शायद ही किसी साल ऐसा हो पाता है कि बारिश के मौसम से पहले नाला-नाली साफ हो गया हो और जलभराव न हुआ हो. दरअसल, हमारी व्यवस्था की यही कार्य-संस्कृति है. सरकारें बदलती हैं, लेकिन यह नहीं बदलती. इसी की ताजा मिसाल है, हजारीबाग जिले के दारू प्रखंड के बडवार बिरहोर टंडा में अधेड़ उम्र पार कर चुके एक व्यक्ति की मौत. इस कड़ाके की सर्दी में उसके पास न कोई ओढ़ना था, न बिछौना. गर्म कपड़े भी नहीं थे. ऐसी स्थिति में कसूर किसका है? इस मौसम का, या फिर उस व्यवस्था का जो एक विलुप्तप्राय जनजाति के लोगों को गर्म कपड़े व कंबल तक उपलब्ध नहीं करा सकती.
इस गांव में बिरहोरों के 37 परिवार हैं, लेकिन सबकी यही दशा. आदिम जनजातियों के नाम पर जो इतना सरकारी खर्च होता है, उसका फायदा क्या? गरीबों को बांटने के लिए सरकारी कंबल दारू प्रखंड मुख्यालय में पड़े हुए हैं. फिर भी उन्हें नहीं बांटा गया. किस पंचायत को कितने कंबल दिये जाने हैं, अभी तक यह सूची ही नहीं बनी है. हमेशा की तरह सरकारी प्रक्रिया पूरी होने तक जाड़ा निकल जायेगा. कुछ गरीबों की मौतें होंगी, जिससे किसी को फर्क नहीं पड़ता. मौत के बाद प्रशासन दो-चार दिन हरकत में रहेगा, कुछ राहत पहुंचायी जायेगी और फिर अपनी पुरानी चाल में आ जायेगा. सच कहा जाए तो भोला बिरहोर मरा नहीं है, बल्कि उसकी हत्या की गयी है. जिसके गुनहगार प्रखंड व जिला मुख्यालय से लेकर राज्य की राजधानी में बैठे हमारे हाकिम-हुक्मरान हैं.