सुबह-सुबह कउड़ा (अलाव) तापते हुए काका का आलस थोड़ा कम हुआ, तो पैर पसारते हुए बड़बड़ाये- परले राम कुकुर के पाला, खींचि-खांचि के कइलस खाला. बचपन में सुनी इस कहावत का अर्थ तब बिलकुल पता नहीं था. अब थोड़ा-थोड़ा समझ में आता है. लेकिन अचानक काका के मुंह से यह कहावत सुन जिज्ञासा हुई कि आखिर किस महानुभाव के बारे में काका विचार कर रहे हैं.
कौन राम किस कुकुर के पास आ कर अपनी दुर्गति करा रहे हैं? बिना पूछे रहा नहीं गया. आसपास बैठे अन्य लोग भी जानना चाहते थे. बिना किसी मनौवल के काका भी प्रसंग पर आ गये. काका के अनुसार कभी जय श्रीराम का नारा देकर राम की छवि पर अधिकार जमाने की कोशिश करनेवाले अब गीता के पीछे पड़ गये हैं. ऐसा कर ये अपना कौन सा भला करना चाहते हैं, नहीं पता, लेकिन राम और गीता की दुर्गति जरूर कर बैठते हैं, इसमें कोई शक नहीं है.
काका ने कहा कि देखना अब इसे लेकर सेक्युलर अपने गाल बजायेंगे. दलितों के ‘बेटे-बेटियां’ सवर्ण राजनीति के विरोध में विष-वमन करते इधर-उधर लोटते दिखेंगे. वास्वकिता तो यह है कि यह किसी धर्म विशेष की धार्मिक पुस्तक नहीं, बल्कि पूरे भारत को जोड़ने वाली एक अद्भुत कृति है. हिन्दू धर्म कभी संगठित नहीं रहा, न ही इसकी कोई एक पुस्तक है, न एक गुरु , न एक देवी-देवता, न कोई ऐसा पूजा-स्थल जिसे सभी हिन्दू मानें. हमने तो पेड़, पत्थर व पशु-पक्षियों को भी पूजा है. नास्तिक चार्वाक को भी ऋ षि कहा. अनीश्वरवादी बुद्ध को भी विष्णु का अवतार मान लिया. ऐसे कई हिन्दू ही मिल जायेंगे, जो कहेंगे मैं गीता नहीं, पुराण पढ़ता हूं. उपनिषद् नहीं, अष्टावक्र गीता को मानता हूं.
जो ग्रंथ देशवासियों के दिलो-दिमाग में इस कदर रच-बस चुका हो, उसे राष्ट्रीय ग्रंथ बनाने की कवायद से भला देश का कौन सा हित सिद्ध होने वाला है? इसे शायद ही कोई बता सके. जिसकी शपथ लेकर हमारी अदालतें अपराधियों की बातों पर विश्वास करती है, उसे भला अब किसी विशेष पहचान की क्या जरूरत है. जो गीता सदियों से बिना किसी सरकारी मदद के इस भूखंड में रहने वाले लोगों की विवेकशीलता का आधार बनी हुई है, उसे सरकारी संरक्षण की कोई जरूरत नहीं है. जो भी ऐसा समझ रहे हैं कि राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करवाने से देशवासियों का, या स्वयं गीता का कोई भला होगा, उन्हें अपने फिर से प्राइमरी पाठशाला में जाने की जरूरत है. गीता पर विवाद उत्पन्न कर हम इस महान ग्रंथ को हेय ही कर रहे हैं. इस पर राजनीति करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता. यह धर्म नहीं, बल्कि सिर्फ और सिर्फ थोथी राजनीति है. काका की बात अधिक नहीं तो थोड़ी जरूर समझ में आयी. खाला (गड्ढे) में पहुंचाने की कोशिश करनेवाले भी समझ जायें तो बेहतर.
लोकनाथ तिवारी
प्रभात खबर, रांची
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