अगर, स्कूलों तक अधिक से अधिक बच्चों को पहुंचाना ही उद्देश्य है, तो मध्याह्न् भोजन सफल है. लेकिन, पढ़ाई-लिखाई का क्या होगा, जिसकी गुणवत्ता पर बड़ी-बड़ी बहस होती है? एक सवाल और है. वह यह कि स्कूलों तक बच्चों को खींच लाने का क्या मतलब है? सिर्फ खाने के लिए? क्योंकि, पढ़ाई-लिखाई के नाम पर तो कुछ भी नहीं है.
शिक्षकों की उपस्थिति कमोबेश नगण्य ही है. कहीं एक शिक्षक, तो कहीं दो. जो आये, वे भी किताब-कॉपी से दूर हड़िया-बरतन देख रहे हैं. मध्याह्न् भोजन बनवा रहे हैं. जिन्हें बच्चों की उपस्थिति पंजी पर ध्यान देना चाहिए, वे चखनी पंजी दुरुस्त कर रहे हैं. खाने का मीनू तय कर रहे हैं. खाने में कीट-पतंगा खोज रहे होते हैं. इस डर से भी कि पता नहीं कब किस अखबार में क्या छप जाये. हो सकता है कि यह सब उन्हें सिस्टम के कारण करना पड़ रहा हो. लेकिन, इस सिस्टम से क्या हासिल होनेवाला है? अब जरा आगे देखिए. शिक्षा व्यवस्था पर कोई बात करनेवाला नहीं. बच्चों से पूछिए कि स्कूल में पढ़ाई ठीक से होती है, तो उनका जवाब होता है कि मीनू के अनुसार खाना ही नहीं मिलता. शिक्षकों से शिक्षा की गुणवत्ता पर पूछिए, तो वे कहते हैं कि जो संसाधन है, उसी में काम चलाना पड़ता है. जनप्रतिनिधि से बात करिए, तो उनका भी ध्यान भोजन-पानी पर ही है. इसी बहाने राजनीति झाड़ते हैं.
अधिकारियों से पूछिए, तो वे कहते हैं कि उन्हें तो जानकारी ही नहीं थी. अब सुने हैं, तो निरीक्षण करेंगे. शिक्षकों से मीनू के अनुसार मध्याह्न् भोजन देने का निर्देश दिया जायेगा. हद है. पढ़ाई-लिखाई पर बोलने को कोई तैयार ही नहीं. सबके -सब चुप्पी साध लेते हैं. बीइओ साहेब, डीइओ साहेब या बीडीओ साहेब स्कूलों की जांच करने जाते हैं, तो उनका भी ध्यान शिक्षकों व बच्चों की उपस्थति पर कम, मध्याह्न् भोजन पर ही ज्यादा होता है. वह भी मीनू लिस्ट से भोजन को ही मिलाते हैं. चखनी पंजी ही जांचते हैं. हमारे प्राइमरी स्कूल पाठशाला हैं या पाकशाला? स्कूलों में स्वच्छता का हाल बुरा है, उसे भी कोई नहीं पूछ रहा. कई स्कूलों में शौचालय ही नहीं है. अगर, कहीं हैं भी, तो उसमें मध्याह्न् भोजन का सामान रखा जाता है. चापाकल पर कीचड़, बैठने के लिए दरी. कोई ड्रेस कोड नहीं. बच्चे जिन कपड़ों में आये, वह भी गंदे. ऐसे होगा देश के भविष्य का निर्माण?