श्रद्धा और भय- भावनाओं के इन दो विपरीत ध्रुवों के बीच भारतीय लोकमानस में संत की मौजूदगी रही है. संत आशीर्वाद दे सकते हैं, पीड़ा से उबार सकते हैं- यह विश्वास संत के प्रति श्रद्धा का भाव जगाता है.
जबकि, संत श्रप दे सकते हैं, धर्म-विरुद्ध आचरण के लिए दंड दे सकते हैं- यह विश्वास संत के प्रति भय के भाव का संचार करता है. आशीर्वाद और श्रप की इस अंतर्निहित क्षमता के कारण ही भारतीय लोकमानस में संत सीमित अर्थो में सत्ता के वैकल्पिक केंद्र बन कर उभरते रहे हैं. बहरहाल, यह भी उल्लेखनीय है कि इस क्षमता पर विश्वास करने की लोक-परंपरा किसी अंधभक्ति या अंधविश्वास का परिणाम नहीं है. लोकमानस किसी व्यक्ति को संत तभी स्वीकार करता है, जब वह व्यक्ति स्वयं धर्म-मार्ग का आचरण पूरे जतन से करता हो.
इसलिए, किसी संत के साथ उसके शिष्य या भक्त का संबंध एकतरफा नहीं होता कि संत जी उपदेश करें और भक्त उस उपदेश को सुन कर अहोभाव से सहमति में सिर हिलाये. ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ की समझ यों ही नहीं बनी है. यह समझ सिखाती है कि संतई यों ही हासिल नहीं होती, इसके लिए खुद को तपाना पड़ता है. जो लोकविश्वास यह कहता है कि संत धर्मविरुद्ध आचरण पर दंड दे सकते हैं, वही यह भी सिखाता है कि संत का धर्म-पथ पर निष्कपट भाव से चलना जरूरी है. पथभ्रष्ट होने पर संत लोक-निंदा के पात्र बनते हैं. खाद्य प्रसंस्करण मंत्रलय में महीने भर पहले राज्यमंत्री का पद संभालने वाली साध्वी निरंजन ज्योति की जितनी बड़ी गलती यह है कि एक चुनावी सभा में उन्होंने ‘रामजादे’ शब्द के साथ तुक मिलाते हुए अपशब्द भी कह डाले, उससे कहीं बड़ी गलती यह है कि अपने नाम के आगे साध्वी जोड़ने और तिलक-त्रिपुंड लगा कर स्वयं की संतई घोषित करने के बावजूद वे इस लोकविश्वास से अनजान हैं कि धर्म के विरुद्ध आचरण करनेवाला संत सिर्फ लोकनिंदा का पात्र बनता है. असल में, साध्वी एवं मंत्री निरंजन को एक साथ दोहरे धर्म का पालन करना था, परंतु धर्म के अनुकूल आचरण में उनसे दोहरी गलती हुई है.
मंत्री होने के नाते साध्वी निरंजन ज्योति भारतीय संविधान में वर्णित राजधर्म से बंधी हुई हैं. भारतीय संविधान धर्म-मत-विश्वास, संप्रदाय, जाति, लिंग, वर्ण, क्षेत्र आदि के आधार पर लोगों के बीच भेदभाव न करने की सीख देता है. उन्होंने जैसे ही अपशब्द का प्रयोग किया, उनसे ‘सर्वजन के बीच सर्वमुखी समता’ के संवैधनिक धर्म के पालन में चूक हुई. लोकतंत्र में सक्रिय विभिन्न राजनीतिक विश्वासों में से किसी एक को जायज और शेष को नाजायज बताना लोकतंत्र की मर्यादा का आपराधिक उल्लंघन है.
साध्वी निरंजन से दूसरी चूक लोकधर्म के निर्वाह में हुई. राम-कथा वाचक के रूप में उन्हें पता होगा कि ‘राम राज्य’ का न्यायबोध इतना प्रबल था कि उसमें एक अदना सी चींटी तक को न्याय की आशा थी. चींटी तक क्यों जायें, स्वयं रामकथा के निषादराज के बारे में ही सोचें, क्योंकि साध्वी निरंजन ज्योति निषाद समुदाय की नेता के रूप में स्वीकृत हैं. शूद्र और पिछड़े वर्ग के मामले में तुलसीकृत रामकथा में ‘काफी कुछ अविवेक’ देखनेवाले डॉक्टर राम मनोहर लोहिया तक को लगता था कि राम तो समता की सीमा हैं.
उन्होंने ‘भरत अवधि सनेह ममता की, जदपि रामु सीम समता की’ पंक्ति को उद्धृत करते हुए तुलसीकृत रामकथा के ‘निषाद-प्रसंग’ के बारे में लिखा है कि यह ‘जाति-प्रथा के बीहड़ और सड़े जंगल में एक छोटी सी चमकती पगडंडी’ है. लोहिया की व्याख्या थी कि राम के भीतर समता का सागर छलकता था, तभी उन्होंने सामाजिक ऊंच-नीच के भेद को त्याग कर निषादराज को गले लगाया.
साध्वी निरंजन की चूक यह है कि उन्होंने रामकथा का वाचन तो किया है, लेकिन राम का समतापरक जीवन-मूल्य उनके हृदय में नहीं उतर पाया है, वरना वह इस तरह एक सभा में अपशब्द कहने का दुस्साहस न करतीं. राजनीति न्याय के विवेक से शून्य नहीं हो सकती, क्योंकि राजनीति के सहारे यह तय होता है कि अलग-अलग मत और रुचि के लोगों को गरिमापूर्वक जीवन जीने और अपनी आजादी का इस्तेमाल आत्महित में करने के लिए साङो संसाधनों में से क्या-क्या और किस मात्र में मिलेगा. विवेक का भ्रष्टाचार सबसे पहले वाणी में प्रकट होता है और वाणी का भ्रष्टाचार भ्रष्ट राजनीति की प्रथम सूचना होती है. राज्य मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति ने भले मुंहजबानी माफी मांग ली हो, लेकिन उनकी संतई के लिए अच्छा तब होगा, जब अपनी करनी का यह पछतावा उनके हृदय और उनकी वाणी में भी उतरे.