शिव कुमार मिश्र
वरिष्ठ पत्रकार
लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय, विपिन चंद्र, गोखले आदि ने देश को आजाद कराने में काफी संघर्ष किया, पर जो आंदोलन चल रहा था, उसे गांधी ने जनता से जोड़ दिया.
वे आम लोगों को सड़क पर ले आये. इसलिए गांधी को आज भी याद किया जाता है. झारखंड के लोग भी शिक्षित और बहादुर है. उन्हें इस विधान सभा चुनाव में ऐसे नेताओं को ही चुनना होगा, जो जनता और राज्य के प्रति जिम्मेवार हों.
बिहार से झारखंड के अलग होने के समय से ही देखें, तो झारखंड में शुरू से ही मजबूत नेतृत्व का अभाव रहा है. इसकी तुलना में बिहार में शुरुआती नेतृत्व बहुत ठोस था, चाहे वह श्रीकृष्ण सिंह हों, या फिर अनुग्रह नारायण सिंह. मतलब यह है कि राजनेताओं की पहली पीढ़ी में बहुत दम-खम था. किसी भी नये राज्य के गठन के समय तत्कालीन नेतृत्व का राज्य के विकास में बहुत बड़ा योगदान होता है, क्योंकि सारे काम नये ढंग से या नये सिरे से शुरू करने होते हैं. लेकिन दुर्भाग्यवश झारखंड के साथ ऐसा नहीं हुआ. इसी स्थिति का परिणाम है कि साथ ही गठित उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ से कई मामलों में झारखंड बहुत ही पीछे है.
ऐसा नहीं है कि झारखंड में समर्पित नेता नहीं हैं. लेकिन उनको मौका ही नहीं दिया जाता है. चतुरानंद मिश्र उत्तर बिहार से आते थे, लेकिन उनकी कर्मभूमि हजारीबाग थी. एके रॉय धनबाद के समर्पित नेता रहे हैं. उनके लिए जनता के मन में भी गहरी आस्था रहती थी. तब ऐसे नेताओं के प्रति लोगों केमन में सम्मान का भाव रहता था. जो अपने लिए नहीं, बल्कि समाज के लिए जीते थे. आदिवासियों के बीच रह कर उनके लिए काम करते थे.
लेकिन कुछ वर्षों में सब कुछ बदल गया है. लोग समाज से ज्यादा अपने स्वार्थ के बारे में सोचने लगे हैं. झारखंड को लूट का माल समझा जाने लगा है. यही कारण है कि अमीर झारखंड में गरीब लोग निवास करते हैं.
झारखंड में विधानसभा के चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. हर दल के लोग अपनी उपलब्धियों को गिना कर जनता से वोट मांग रहे हैं. भाजपा कह रही है कि वह सारे समस्याओं को दूर कर देगी, लेकिन इसमें शक ही दिखता है. इसका कारण है कि इससे पहले भी राज्य में भाजपा की सरकार रही है.
दूसरे दलों में राजद, जद(यू) और कांग्रेस हैं, जो महागंठबंधन की बात कह चुनाव मैदान में उतरे हैं, लेकिन इस गंठबंधन के भीतर भी कई तरह के किंतु-परंतु है. तीसरा खेमा झारखंड मुक्ति मोर्चा का है, जो अकेले चुनाव मैदान में है. झामुमो की ओर से जिस तरह का भरोसा दिया जा रहा है, वह भी पूरा होने वाला नहीं है. चुनाव के समय सभी दल अनाप-शनाप वादे और घोषणाएं करते हैं. जिन घोषणाओं को पूरा नहीं किया जा सकता है, उनसे बचा जाना चाहिए. जनता को सब्जबाग दिखाने के बजाय राज्य के विकास के लिए ठोस कार्य-योजना प्रस्तुत की जानी चाहिए.
हमारा भरोसा झारखंड की जनता पर है. वहां की जनता जो फैसला करेगी, वही अच्छा होगा. हालांकि जनता ने कई बार वैसे जनप्रतिनिधियों को भी जीता कर विधानसभा में भेजा है, जिन पर कई तरह के आरोप रहे हैं. इस बार मौका है कि वह अपने जनप्रतिनिधि चुनते समय ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ और समर्पित नेता को ही वोट दे. इससे राज्य का विकास होगा. मैं किसी का नाम नहीं लेना चाह रहा हूं, लेकिन भ्रष्टाचार से लेकर लेन-देन तक की जो खबरें माननीयों के विषय में आती रही हैं, वह किसी भी रूप में ठीक नहीं है. यदि अच्छा नेतृत्व हो, तो झारखंड का
विकास अवश्यंभावी है. आखिर
कोयला समेत अनेक खनिज पदार्थों के भंडार से भरे झारखंड का विकास क्यों नहीं हो सकता है?
राज्य में समुचित प्रशासन नहीं है. इसका भी महत्वपूर्ण कारण नेतृत्व की कमजोरी है. यदि नेतृत्व में इच्छाशक्ति हो, तो खराब से खराब चीजों को भी सुधारा जा सकता है. लेकिन इसके लिए नेताओं के अंदर ईमानदारी के साथ ही समाज के विकास करने का जज्बा होना भी जरूरी है. चूंकि झारखंड की सबसे बड़ी समस्या यही रही है कि नेताओं के लिए राज्य से अधिक स्वयं का हित अब तक महत्वपूर्ण रहा है. जिस दिन इस प्रवृति में परिवर्तन आयेगा, उसी दिन राज्य का विकास शुरू हो जायेगा. झारखंड में संघर्ष के साथ एक आंदोलन की आवश्यकता भी है.
साथ ही, आम लोगों को शिक्षित करने का काम भी राजनीतिक लोगों का है. शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी और आधारभूत संरचना के विकास के लिए आम जनता को भी अपने जनप्रतिनिधियों से सवाल पूछना होगा. उन्हें कटघरे में खड़ा करना पड़ेगा, तभी उनके ऊपर भी दबाव बनेगा. लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय, विपिन चंद्र, गोखले आदि ने देश को आजाद कराने में काफी संघर्ष किया, लेकिन जो आंदोलन चल रहा था, उसे गांधी ने जनता से जोड़ दिया. वे आम लोगों को सड़क पर ले आये. इसलिए गांधी को आज भी याद किया जाता है. झारखंड के लोग भी शिक्षित और बहादुर है. उन्हें इस विधानसभा चुनाव में ऐसे नेताओं को ही चुनना होगा, जो जनता और राज्य के प्रति जिम्मेवार हों.
(बातचीत पर आधारित)