अंशुमाली रस्तोगी
व्यंग्यकार
anshurstg@gmail.com
देशभर में मंदी का असर है. जिस ओर मुंह करो, उस ओर से मंदी का थप्पड़ पड़ रहा है. अखबारों में छप रही मंदी की सारी खबरें हमें सता कम, डरा अधिक रही हैं. रात में मंदी का सपना देख लूं, तो पूरा दिन उदासी छायी रहती है. अब तो मैंने बॉस से भी चू-चपड़ करना बंद कर दिया है. क्या पता कब उसका माथा ठनक जाये.
इस भीषण मंदी के बीच हिंदी का मंदी मुक्त होना, बहुत राहत देता है. सच कहें तो हिंदी में मंदी का असर न के बराबर है. हिंदी अपनी तेज रफ्तार से आगे बढ़ रही है. और खुद को डंके की चोट पर गढ़ भी रही है. मजे की बात यह कि उसे बुरा-भला कहनेवालों के मुंह पर थूक रगड़ रही है.
हिंदी की खुशी को देखकर ही मैं मंदी की फिक्र करना कुछ देर को भूला देता हूं. क्यों न भुलाऊं? आखिर मैं खुद भी तो हिंदी का ही एक लेखक हूं. अब हिंदी है तो मैं हूं. यदि हिंदी नहीं, तो मैं कुछ भी नहीं.
यह हिंदी की धमक का ही तो असर है, जो गुलाबी आर्थिक अखबारों में भी उसका होना बड़ा सुकून देता है. गुलाबी अखबारों में हिंदी में छपनेवाली मंदी की खबरें माहौल को गमजदा नहीं बनातीं. दिल और दिमाग को ‘कूल’ रखती हैं. आयी बला को जैसे टाल देती हैं.
हर साल हिंदी दिवस से पहले हिंदी की डिमांड इतनी बढ़ जाती है कि हर कोई इसे हाथों-हाथ लेना चाहता है. हमारे कविगण तो जाने कब से हिंदी दिवस की बाट जोह रहे होते हैं ताकि उन्हें भी, हिंदी की सेवा की खातिर, मेवा मिल सके. हमारे हिंदी कवियों के गुलाबी व हंसमुख चेहरे और उनकी आंखों में चमक देखकर ऐसा लगता ही नहीं कि देशभर में मंदी जैसा कोई माहौल भी है. वे बेचारे तो इत्मीनान से हिंदी की खा-पीकर मौज कर रहे हैं.
आफत तो मुझ जैसे आर्थिक क्षेत्र में नौकरी करनेवालों पर आयी हुई है. क्या पता कब सैलरी या नौकरी पर छुरी चल जाये. वो तो थोड़ा-बहुत सहारा हिंदी में लिख-लिखाकर मिल जाता है. वरना तो ईश्वर ही मालिक.
हमें हिंदी की साख पर गर्व होना चाहिए कि उसने मंदी के बीच भी अपनी गरिमा को बचा और बनाकर रखा हुआ है. वह मंदी से डटकर मुकाबला कर रही है. साथ ही साथ अंगरेजी को भी मात दे रही है. यह बहुत ही गर्व की बात है.
सरकार को चाहिए कि वह हिंदी दिवस को ऐतिहासिक बनाने में कोई कसर बाकी न छोड़े. गर्व से कहे कि देखो, जब हर तरफ निराशा और मंदी का माहौल है, ऐसे में हमारी हिंदी हर असर को बेअसर करके निरंतर आगे बढ़े ही जा रही है. यह हिंदी ही है, जिसने अन्य भाषाओं के साथ-साथ हिंदी के लेखकों की साख को भी संभाला हुआ है.
कभी-कभी तो दिल करता है कि अपनी शेयर बाजार की जॉब छोड़-छाड़कर पूरी तरह से हिंदी के प्रति समर्पित हो जाऊं. तब न तो मंदी का भय सतायेगा, और न ही बॉस की घुड़की का डर. जय हिंदी!