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सशस्त्र बलों की कई मोर्चों पर चुनौतियां

आकार पटेल लेखक एवं स्तंभकार aakar.patel@gmail.com वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध में हमने जितने सैन्यकर्मी खोये, पिछले 20 वर्षों के दौरान देश के आंतरिक संघर्षों में उसकी तीन गुनी तादाद में हमारे सैन्यकर्मी वीरगति को प्राप्त हो चुके हैं. इसी तरह, यदि कारगिल की लड़ाई से तुलना करें, तो उसमें शहीद हुए भारतीय सैन्यकर्मियों से […]

आकार पटेल
लेखक एवं स्तंभकार
aakar.patel@gmail.com
वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध में हमने जितने सैन्यकर्मी खोये, पिछले 20 वर्षों के दौरान देश के आंतरिक संघर्षों में उसकी तीन गुनी तादाद में हमारे सैन्यकर्मी वीरगति को प्राप्त हो चुके हैं. इसी तरह, यदि कारगिल की लड़ाई से तुलना करें, तो उसमें शहीद हुए भारतीय सैन्यकर्मियों से छह गुनी संख्या में वे कश्मीर, पूर्वोत्तर के आतंकवादियों और विद्रोहियों के साथ संघर्ष में और मध्य भारत के नक्सली क्षेत्रों में हुई हिंसक घटनाओं में शहादत पा चुके हैं.
हमारे सैन्यकर्मियों की ये ऐसी शहादतें हैं, जो किसी बाहरी आक्रमण से देश की रक्षा में नहीं हुईं, बल्कि इसलिए हुईं कि हमारी राजसत्ता अपने ही नागरिकों से तालमेल बिठाने में विफल रही. सैन्यकर्मियों की कीमती जानें किसी युद्ध के नतीजतन नहीं गयीं, बल्कि हमारी राजनीतिक विफलताओं के परिणामस्वरूप गयीं. देश की बलिवेदी पर इन जानों की कुर्बानी बगैर किसी प्रतिरोध के सहन कर जाने में हमारे देश के सामर्थ्य की वजह से ही भारत के लिए यह संभव हो सका है कि वह इन तीन क्षेत्रों में अपनी कार्रवाइयां जारी रख सके.
भारत सरकार पर इस बात के लिए कोई दबाव नहीं है कि आंतरिक संघर्षों के संदर्भ में वह अपनी नीतियाें में बदलाव करे, भले ही वे नीतियां सफल या असफल रही हों या बगैर किसी नतीजे के केवल खिंचती चली जा रही हों. यह बात इसलिए कही जा रही है, क्योंकि हमारे सैनिकों और नागरिकों की मौतें हमारे लिए स्वीकार्य बन चुकी हैं.
देश में इसे लेकर कोई आंतरिक बहस नहीं होती कि कश्मीर में हमारे हालिया बुनियादी परिवर्तनकारी कदम का हमारे सुरक्षा बलों पर क्या असर होगा, जो पिछले 30 वर्षों से वहां एक क्षुब्ध तथा असंतुष्ट आबादी की देखरेख में लगे हैं.
श्रीनगर की एक यात्रा यह साफ कर देने के लिए पर्याप्त होगी कि भारत के विभिन्न हिस्सों से आये सुरक्षा बलों के जवान वहां की सड़कों पर गश्त कर रहे हैं, जो न तो स्थानीय भाषा बोल सकते हैं, न ही देखने में वहां के स्थानीय लोगों जैसे लगते हैं. अर्धसैनिक बलों के जवान कश्मीर की सड़कों पर गश्त कर रहे हैं, जबकि सेना के जवान शहरों के बाहरी हिस्सों की देखरेख कर रहे हैं.
ये लोग वहां इसलिए हैं कि वे प्रायः हिंसा के द्वारा अभिव्यक्त होनेवाली स्थानीय भावनाओं को दबा सकें, क्योंकि इस अभिव्यक्ति के लिए हिंसा के अलावा और कोई साधन है भी नहीं. कश्मीर में वर्षों से संचार एवं मीडिया को दबाये रखा गया है और यह कोई पहली बार नहीं है कि उन्हें एक संपूर्ण बंदी के द्वारा सामूहिक सजा दी गयी है.
इसके क्या असर होते हैं, इस पर आवश्यक ध्यान दिये बगैर भारत के शेष हिस्से को संचार की इस जब-तब होनेवाली बंदी से कोई फर्क नहीं पड़ता है. इसका एक और शायद सबसे बड़ा कारण यह है कि हममें से अधिकतर इस हिंसा से दूर तो हैं ही, इसमें हमारा कुछ वास्तविक दांव भी नहीं लगा है.
अमेरिका में साधारणतः उनकी संसद (जिसे वहां कांग्रेस कहते हैं) के एक सौ सदस्य ऐसे होते हैं, जिन्होंने सेना में अपनी सेवाएं दी हैं. अमेरिका विश्व की सर्वाधिक समर्थ सैन्य शक्ति है, जिसने कोरिया, वियतनाम, इराक और अफगानिस्तान जैसी जगहों पर प्रायः ही सशस्त्र संघर्ष मोल लिया है.
फिर भी, यह एक ऐसा देश भी है, जो खुद के रास्ते में सुधार करते हुए संघर्षों से बाहर निकल आने की सामर्थ्य रखता है, क्योंकि इसके नेताओं का एक बड़ा अनुपात स्वयं भी सैनिक रह चुका है.
वे बगैर भावनाओं में बहे काल्पनिक फायदों की तुलना में इन संघर्षों की वास्तविक कीमतें आंक सकने में समर्थ होते हैं. वियतनाम युद्ध के तुरंत बाद तो अमेरिका के योद्धा-नेताओं की तादाद इतनी बड़ी थी कि उसके कुल सांसदों में से तीन-चौथाई पूर्व सैनिक थे.
भारत में ऐसी स्थिति नहीं है. यहां के मध्यवर्ग को सेनाओं में जाने में रुचि नहीं है और वे कॉरपोरेट और सरकारी सेवाओं, खासकर सिविल एवं पुलिस सेवा को ज्यादा तरजीह देते हैं. यहां सेनाओं और अर्धसैनिक बलों के जवान मुख्यतः निम्न मध्यवर्ग एवं प्रायः किसान समुदाय से आते हैं और यही स्थिति पाकिस्तान के लिए भी सत्य है. यहां के मध्यवर्ग से आनेवाला मीडिया भी हिंसा से उतनी ही दूर है. कश्मीर सहित भारत के विभिन्न भागों में सशस्त्र बल क्या करते हैं, इसे मीडिया बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया करता है.
हम पत्रकारों के पास मस्तिष्क की स्वतंत्रता नहीं होती, ताकि हममें तटस्थ आंखों से यह देख सकने की क्षमता हो कि वस्तुतः क्या हो रहा है. इससे हमारे लिए यह संभव हो जाता है कि हम किसी भी एक पक्ष के पक्षधर बनकर वास्तविकता की अनदेखी कर दें.
अखबार के पाठकों को यह जान कर अचरज होगा कि तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में हुए अत्याचारों को विश्व द्वारा गंभीरता से लेना स्वयं एक पाकिस्तानी पत्रकार की रिपोर्ट की वजह से ही संभव हो सका था.
वह रिपोर्टर कराची के अंथोनी मस्कारेन्हस थे, जिन्होंने ब्रिटिश समाचार पत्र ‘संडे टाइम्स’ के लिए जून 1971 में लिखते हुए यह उद्घाटित किया था कि पाकिस्तानी सेना अपने ही नगरिकों के साथ क्या कर रही थी. जाहिर है, भारतीय पत्रकारों के लिए भी कश्मीर, नक्सल इलाकों और पूर्वोत्तर में ऐसा कर पाना भी उस माहौल की वजह से उतना ही कठिन है, जिसे हमने अपने ही लोगों के खिलाफ बना रखा है.
सच तो यह है कि ऐसी सभी सेनाएं, जिसके सदस्य अपने घरों से दूर एक विरोधी आबादी के बीच रहते हुए ऐसी कार्रवाइयां करते हैं, वह सेना प्रायः इसी तरह का व्यवहार करती है.
चाहे हम वियतनाम, इराक या श्रीलंका किसी के भी मामले को लें, पूरे इतिहास में इसमें कभी भी और कहीं भी बदलाव नहीं पायेंगे. यह मानवीय स्वभाव है और इसका दोष राष्ट्रों के उस नेतृत्व पर जाना चाहिए, जो अपने सशस्त्र बलों को ऐसी स्थितियों से गुजारते हैं, साथ ही उस जनता पर भी, जो ऐसे कदमों का समर्थन करने को तैयार है. ऐसी स्थिति में अभी हजारों और जानें जायेंगी.
चीन तथा पकिस्तान के साथ हमारे बड़े युद्ध भारत के इतिहास की पुस्तकों में स्मरणीय हैं और उनमें हमारी शहादतें स्मारकों के रूप में चिरस्थायी बना दी गयी हैं. लेकिन, देश के आंतरिक हिस्सों में होनेवाले धीमी और क्रमिक जनहानि का सिलसिला, जिसकी कुल संख्या बहुत ही ज्यादा है, लगातार जारी है, जबकि हम उसकी भरपाई अथवा उसके घावों की परीक्षा की कोई कोशिश तक नहीं करते.

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