भारत जैसे समृद्ध सांस्कृतिक विरासत वाले देश में पता नहीं फादर्स डे कब आयातित हो गया. जहां पिता अपनी संतान के लालन-पालन में अपनी अस्थियां तक गला देता है, खुद की इच्छाओं-भावनाओं जैसी तमाम चीजों पर काबू रख सिर्फ संतान के सुख को अपना सुख मानता है, हमें हमारी संस्कृति ने पितृदेवो भवः का भाव सिखलाया है, वहां पिता के प्रति सम्मान को सिर्फ एक दिवस में बांध कर फादर्स डे मनाना अपनी संस्कृति का मजाक उड़ाने जैसा लगता है.
हां, पाश्चात्य देशों के लिए यह प्रासंगिक हो सकता है, जहां माता-पिता में कुछ ही वर्षों में अलगाव हो जाता है और संतान एवं पिता एक-दूसरे से दूर हो जाते हैं.
ऋषिकेश दुबे, बरिगावां, पलामू