मिथिलेश कु. राय
युवा रचनाकार
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उस दिन कक्का गजब बात कह रहे थे. कह रहे थे कि धूप पूस में प्रवेश करते-करते नरम हो जाती है! उसकी यह नर्माहट माघ-फाल्गुन तक बनी रहती है. चैत्र आते-आते वह अपने मूल स्वभाव को याद करने लगती है और अपनी नर्माहट भुला कर प्रचंड गर्माहट के साथ उदित-अस्त होने की क्रिया में वह मगन हो जाती है.
कक्का कह रहे थे कि महीने दरअसल सूर्य के सखाओं के नाम होते हैं! वे सूर्य के लिए ही बारी-बारी से आते हैं. कभी उसका हौसला बुलंद करने, तो कभी उसे सचेत करने. जैसे कार्तिक आता है, तो वह सूर्य के कान में यह कहता है कि अब उसे धीरे-धीरे मंद हो जाना चाहिए. अगहन उससे नर्म होने का अभ्यास करवाता है. पूस आते-अाते सूर्य तब तक नर्म होने में पारंगत हो चुका होता है और धरती की हरियाली को कुहासे से प्रेम करने के दृश्य को छुप-छुपके देखता रहता है.
यह सब कहते हुए कक्का एकाएक यह पूछने लगे कि क्या हो अगर बारहो महीने जेठ सरीखी धूप ही फैली रहे? यह एक विचित्र कल्पना थी, जो करते हुए रोंगटे खड़े हो जा रहे थे. कक्का हो-हो करके हंसने लगे. वे बोले कि तब एकरसता से जीवन तंग रहेगा और धरती की सुंदरता वैसी नहीं रह जायेगी, जैसी कि अभी है! अगर अगहन, पूस, माघ, फाल्गुन में भी सूर्य का वैसा ही रौब रहा, जैसा कि वैशाख-जेठ में रहता है, तो क्या खेतों में गेहूं की हरी बालियों के साथ सरसों के पीले-पीले फूल खिल सकेंगे? तब क्या वसंत आ सकेगा?
कक्का को कुछ याद आ गया. उन्होंने कहा कि सूर्य को साल में एक बार और नरम होना पड़ता है, मेघ के लिए. मेघ धान के लिए बनते हैं और उस पर बरस कर खत्म हो जाते हैं. तब सूर्य कभी-कभी उगकर यह देखता है और आह्लादित होता रहता है कि उसकी नर्माहट से कितना सुंदर और हरा-हरा दृश्य उपस्थित हो रहा है!
कक्का कहने लगे कि प्रकृति सदैव से ऐसी ही रही होगी. वह मौसम का खेल खेलती हुई चलती होगी. मनुष्य अपने जीवन-क्रम में प्रकृति के इस स्वभाव को समझ गया और उसके अनुसार जीवन को ढालने लगा. जब सुबह हुई, मनुष्य काम में लग गया. शाम हुई तो विश्राम के बाबत सोचने लगा. मनुष्य की विजय-गाथा में प्रकृति ने कदम-कदम पर अपना योगदान दिया. जैसे धूप के साथ छांव भी जीवन के लिए जरूरी था और सूर्य में यह दोनों गुण था. मनुष्यों ने उसे पकड़ा और उसके हिसाब से अपने जीवन को उन्नत बनाने का प्रयास किया.
कक्का कह रहे थे कि मनुष्यों ने सबसे पहले अपना ध्यान बदलती ऋतुओं पर फोकस किया होगा कि किस तरह ऋतु बदलते ही शरीर का एहसास बदल जाता है और आसपास के दृश्यों में भी परिवर्तन आ जाता है. मनुष्यों ने न सिर्फ तरह-तरह के अन्न के बारे में सोचा, बल्कि अपनी देह की सुरक्षा के बारे में भी उपाय किया. कक्का कह रहे थे कि मनुष्य-जीवन प्रकृति की देन है. यह इसी के इर्द-गिर्द घूमता है. इसके बिगड़ने से न सिर्फ जीवन पर वरन, दुनिया पर भी असर पड़ रहा है.