।। प्रियदर्शन ।।
वरिष्ठ पत्रकार
भारतीय भाषाओं और हिंदी के बीच झगड़ा खड़ा करने का काम अंगरेजी कर रही है. जिस सकरुलर को हिंदी के अखबारों और टीवी चैनलों ने कुछ उपेक्षा के साथ देखा, उसे अंगरेजी अखबारों और टीवी चैनलों ने भरपूर जगह दी. कुछ ने इस तरह पेश किया जैसे हिंदी का इस्तेमाल करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके दूसरे हिंदी-प्रेमी मंत्रियों ने हिंदी को बढ़ावा देने के एजेंडे के तौर पर यह काम किया है.
मुश्किल यह है कि भाषा जैसे संवेदनशील मसले पर हमारी राजनीति की कोई दृष्टि ही नहीं है. कभी जनसंघ ‘हिंदी-हिंदू-हिंदुस्थान’ का नारा दिया करता था जो आज की खाती-पीती भाजपा के कुछ नेताओं के अवचेतन में अब भी बसा है. लेकिन उनकी कल्पना संस्कृत जैसी एक ऐसी हिंदी को स्थापित करने की है जो उनके प्रभुत्व को एक जातिगत स्मृति देती हो. अन्यथा उसके तीन-तीन कैबिनेट मंत्री संस्कृत में शपथ लेते दिखायीनहीं पड़ते.
अगर राजभाषा विभाग को यह अंदाजा होता कि सोशल साइटों पर अंगरेजी के साथ-साथ हिंदी के भी इस्तेमाल की सलाह देने वाली उसकी एक चिट्ठी इस कदर गुल खुलायेगी तो शायद यह चिट्ठी चलती ही नहीं. सच तो यह है कि सरकारी कामकाज में हिंदी को लागू करने का ख़याल या निर्देश भारत सरकार के मंत्रियों-अफसरों के लिए एक सरकारी औपचारिकता भर है, भाषा के प्रति लगाव या किसी वैज्ञानिक नजरिये का नतीजा नहीं.
जहां तक इस चिट्ठी का सवाल है, वह भी पहली बार मार्च 2014 में चली- यानी यूपीए सरकार के समय, और फिर 27 मई को ऐसे समय दोबारा प्रकट हुई, जब तुरंत-तुरंत गृह मंत्री बनाये गये राजनाथ सिंह ने कम से कम हिंदी को लागू करने के बारे में नहीं सोचा होगा. बहरहाल, असली सवाल यह है कि एक छोटे से महकमे से चली इस चिट्ठी से या इसकी मार्फत दिखने वाली हिंदी की वकालत से अंगरेजी या दूसरी भारतीय भाषाओं के राजनीतिक नेतृत्व के पांव क्यों कांपने लगे? आखिर जयललिता और करुणानिधि को तमिल अस्मिता और उमर अब्दुल्ला और अखिलेश यादव को उर्दू की इज्जत का ख्याल क्यों सताने लगा? क्या वाकई आज की तारीख में हिंदी भारत की ऐसी विशेषाधिकार संपन्न भाषा है जो बाकी भाषाओं के हित या उनका हिस्सा मार सके?
हिंदी के वर्चस्व की हकीकत
इस सवाल पर ठीक से विचार करें तो पाते हैं कि दरअसल भारतीय भाषाओं और हिंदी के बीच झगड़ा खड़ा करने का काम अंगरेजी कर रही है. जिस सकरुलर को हिंदी के अखबारों और टीवी चैनलों ने कुछ उपेक्षा के साथ देखा, उसे अंगरेजी अखबारों और टीवी चैनलों ने भरपूर जगह दी. कुछ ने इस तरह पेश किया जैसे हिंदी का इस्तेमाल करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके दूसरे हिंदी-प्रेमी मंत्रियों ने हिंदी को बढ़ावा देने के एजेंडे के तौर पर यह काम किया है.
उन्होंने यह भी ठीक से नहीं बताया कि दरअसल केंद्र सरकार का यह सकरुलर बस केंद्रीय महकमों और उन राज्यों तक सीमित है जहां हिंदी बोली जाती है, उनका बाकी राज्यों के कामकाज से वास्ता नहीं है. इसी का नतीजा था कि दक्षिण भारतीय राज्यों को अचानक हिंदी के वर्चस्व का डर सताने लगा और वे फिर अंगरेजी की छतरी लेकर खड़े हो गये.
सवाल है कि अंगरेजी यह खेल क्यों करती है? क्योंकि असल में अंगरेजी इस देश में शोषण और विशेषाधिकार की भाषा है. इस देश की एक फीसदी आबादी भी अंगरेजी को अपनी मातृभाषा या मुख्य भाषा नहीं मानती, लेकिन देश के सारे साधनों-संसाधनों पर जैसे अंगरेजी का कब्ज़ा है. अंगरेजी की इस हैसियत के आगे हिंदी ही नहीं, तमाम भारतीय भाषाएं दोयम दरजे की साबित होती हैं. इस लिहाज से देखें तो हिंदी नहीं, अंगरेजी भारतीय भाषाओं की असली दुश्मन है. रोटी और रोजगार के सारे अवसर अंगरेजी को सुलभ हैं, सरकारी और आर्थिक तंत्र अंगरेजी के बूते चलता है, पढ़ाई-लिखाई का माध्यम अंगरेजी हुई जा रही है.
बहुत सारे हिंदीवालों को यह गुमान है कि हिंदी अब इंटरनेट में पसर गयी है, कई देशों में पढ़ायी जाती है, टीवी चैनलों और अखबारों में नजर आती है और अब तो इसमें हॉलीवुड की बड़ी-बड़ी़ फिल्में भी डब करके दिखायी जाती हैं. इससे उन्हें लगता है कि हिंदी का संसार फैल रहा है. शायद दूसरी भाषाओं को भी यही लगता हो. लेकिन सच्चाई यह है कि यह हिंदी बस एक बोली की तरह बची हुई है जिसका बाजार इस्तेमाल करता है. तीन-चार दशक पहले बच्चे घर पर मगही, भोजपुरी, मैथिली, राजस्थानी वगैरह बोलते थे और स्कूल में हिंदी. आज बच्चे घर पर हिंदी बोलते हैं और स्कूल में अंगरेजी.
ज्ञान-विज्ञान की भाषा के तौर पर हिंदी लगातार कमजोर होती जा रही है. कहने की जरूरत नहीं कि यही स्थिति उर्दू, तमिल या तेलुगू की है. इन भाषाओं के लेखक-पत्रकार या तो सरकारी मदद पर चलते हैं या अंगरेजी संस्थानों से निकलने वाले भाषाई अखबारों या चैनलों में काम करते हैं.
भारत को बांटती अंगरेजी सवाल है, इस स्थिति का सामना कैसे किया जाए?
यह लोकिप्रय तर्क है कि अंगरेजी हमें दुनिया से भी जोड़ रही है, बाजार से भी, प्रौद्योगिकी से भी और उच्च शिक्षा से भी. ऐसे में हिंदी या भारतीय भाषाओं की बात करना पिछड़ेपन की बात करना है- आइआइएम और आइआइटी की चकाचौंध भरी दुनिया के मुकाबले किसी देहाती संसार की कल्पना करना है.
लेकिन, एक दूसरी हकीकत और भी है. अंगरेजी ने भारत को दो हिस्सों में बांट डाला है. एक खाता-पीता, इक्कीसवीं सदी के साथ कदम बढ़ाता 30-35 करोड़ की आबादी वाला भारत है जो अंगरेजी जानता है या जानना चाहता है और भारत पर राज करता है या राज करना चाहता है. दूसरी तरफ, 80 करोड़ का वह गंदा-बजबजाता भारत है जो हिंदी, तमिल, तेलुगू या कन्नड़ बोलता है, 18वीं सदी के अभाव में जीता है और बाकी भारत का उपनिवेश बना हुआ है. वह गांवों से भाग कर शहर आता है, महानगरों के सबसे जरूरी काम सबसे सस्ते दाम पर निबटाता है और सबसे कम साधनों में जीता है. इस लिहाज से देखें तो इस गरीब भारत की संपर्क भाषा हिंदी ही है, अंगरेजी भले अमीर भारत की संपर्क भाषा हो.
प्रतिक्रियावादी डर
मुश्किल यह है कि भाषा जैसे संवेदनशील मसले पर हमारी राजनीति की कोई दृष्टि ही नहीं है. कभी जनसंघ ‘हिंदी-हिंदू-हिंदुस्थान’ का नारा दिया करता था जो आज की खाती-पीती भाजपा के कुछ नेताओं के अवचेतन में अब भी बसा है. लेकिन उनकी कल्पना संस्कृत जैसी एक ऐसी हिंदी को स्थापित करने की है जो उनके प्रभुत्व को एक जातिगत स्मृति देती हो. अन्यथा उसके तीन-तीन कैबिनेट मंत्री संस्कृत में शपथ लेते दिखायी नहीं पड़ते.
भाषा के मसले पर कभी राम मनोहर लोहिया ने भरपूर विचार किया था. उनका मानना था कि बात सिर्फ हिंदी की नहीं, सभी भारतीय भाषाओं की होनी चाहिए और इनके बीच अंगरेजी को एजेंट का काम करना छोड़ देना चाहिए. यही नहीं, जब तक ये भाषाएं सरकारी कामकाज और रोजगार की भाषाएं नहीं बनायी जातीं, इनकी कोई पूछ नहीं रहेगी. लेकिन हमारा पूरा शासन-प्रशासन तंत्र अंगरेजी में ही चलता है और एक छोटे से समुदाय की हसरतों के हिसाब से चलता है. इसी समुदाय को हिंदी के खड़े होने में एक प्रतिक्रियावादी डर दिखायी पड़ता है और वह एक मामूली से सकरुलर को बोतल में बंद जिन्न की तरह देखता है जिसे बोतल में ही रहना चाहिए.
(बीबीसी हिंदी से साभार)