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अधिकारों में संतुलन

आधुनिक लोकतंत्र की अनिवार्य शर्तों में यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है कि समाज के हर तबके को समुचित अधिकार प्राप्त हों, ताकि समानता और गरिमा के साथ जीवन जीने की आदर्श स्थितियों की निर्मिति हो सके. भारत के प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने उचित ही रेखांकित किया है कि लोकतांत्रिक प्रणाली में प्रत्येक अधिकार महत्वपूर्ण है […]

आधुनिक लोकतंत्र की अनिवार्य शर्तों में यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है कि समाज के हर तबके को समुचित अधिकार प्राप्त हों, ताकि समानता और गरिमा के साथ जीवन जीने की आदर्श स्थितियों की निर्मिति हो सके.

भारत के प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने उचित ही रेखांकित किया है कि लोकतांत्रिक प्रणाली में प्रत्येक अधिकार महत्वपूर्ण है और कोई भी अधिकार स्वयं में पूर्ण नहीं है. उन्होंने यह भी कहा है कि अधिकारों को श्रेणीबद्ध कर उन्हें किसी से कम या अधिक कह कर परिभाषित या फलीभूत नहीं किया जा सकता है, लेकिन प्रधान न्यायाधीश ने यह भी स्वीकार किया है कि अधिकारों में संतुलन स्थापित करना एक कठिन प्रक्रिया है. यह कठिनाई लोकतंत्र को अग्रसर करने की राह में एक चुनौती है तथा संवैधानिक संस्थाओं द्वारा समुचित और सकारात्मक तौर पर इस चुनौती को पार कर ही राष्ट्र की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को प्राप्त किया जा सकता है. पिछले सप्ताह सर्वोच्च न्यायालय ने समलैंगिकता को अपराध मानने के कानूनी प्रावधान को इन्हीं सिद्धांतों की पृष्ठभूमि में हटाया है.

विधि-विधान के संदर्भ में अनेक ऐसे मामले सामने आते हैं, जिनमें न्यायालय के समक्ष दो मौलिक अधिकारों के परस्पर टकराव का समाधान करने की चुनौती आ खड़ी होती है. प्रधान न्यायाधीश ने ऐसा ही एक उदाहरण देते हुए बताया कि किसी ऐसी बीमारी से त्रस्त व्यक्ति के जीने के अधिकार और उसे कष्ट से मुक्त करने के लिए उसे या उसके निकट संबंधी को मृत्यु के विकल्प को चुनने के अधिकार के बीच विरोधाभास को सुलझाने की समस्या आयी थी.

उस प्रकरण में न्यायालय ने तर्कों के साथ संवेदना के पक्ष को भी महत्व देते हुए एक ऐसा निर्णय दिया. इस मसले में एक पक्ष यह था कि हर व्यक्ति को गरिमा के साथ जीने का अधिकार है. दूसरा पक्ष था कि बीमार व्यक्ति गरिमा से जी नहीं पा रहा है और उसे निरंतर यातनाओं से जूझना पड़ रहा है. इसमें एक प्रश्न यह भी था कि इसका निर्णय कौन करेगा कि व्यक्ति को चिकित्सकीय तरीके से मृत्यु का वरण करने दिया जाए. न्यायालय ने निर्णय देने में सभी कारकों का संज्ञान लिया और एक वैधानिक प्रक्रिया का विधान किया.

जैसा कि प्रधान न्यायाधीश ने कहा है, अधिकारों के संतुलन के लिए समन्वय, सामंजस्य, स्वीकारता और समझौते के आयाम विशेष रूप से आवश्यक हैं. यदि इन पर सोच-विचार के साथ निर्णय लेने की प्रक्रिया आधारित होगी, तो अधिकारों की व्यापकता को भी सुनिश्चित किया जा सकेगा. मनुष्यता के कल्याण और समृद्धि के लिए इस प्रविधि का ध्यान रखा जाना चाहिए.

अधिकारों का सह-अस्तित्व के बिना सार्वजनिक, सांगठनिक और व्यक्तिगत जीवन के सुचारू संचालन संभव नहीं हो सकता है. एक अधिकार के लिए किसी अन्य अधिकार को हटा देना या उसे कमतर सिद्ध कर देना उपाय नहीं है, बल्कि हमें हर स्तर पर संघर्ष के स्थान पर संतुलन और सामंजस्य का आग्रही होना होगा. विविधतापूर्ण भारत के सुखद और शांतिपूर्ण भविष्य के लिए सबसे सही राह यही हो सकती है.

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