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मेरे घर की दीवारों के कान

अंशुमाली रस्तोगी व्यंग्यकार दीवारों ने अपने कान त्याग दिये हैं. वे अब कुछ नहीं सुनतीं. सुनेंगी तो तब न, जब हम आपस में बोलेंगे. हम अब काम भर को ही एक-दूसरे से मौखिक वार्तालाप करते हैं. ज्यादातर बातचीत का सिलसिला ‘चैटिंग एप्स’ तक सीमित रहता है. क्या कहना है. क्या सुनना है. क्या पहनना है. […]

अंशुमाली रस्तोगी

व्यंग्यकार

दीवारों ने अपने कान त्याग दिये हैं. वे अब कुछ नहीं सुनतीं. सुनेंगी तो तब न, जब हम आपस में बोलेंगे. हम अब काम भर को ही एक-दूसरे से मौखिक वार्तालाप करते हैं. ज्यादातर बातचीत का सिलसिला ‘चैटिंग एप्स’ तक सीमित रहता है. क्या कहना है. क्या सुनना है. क्या पहनना है. क्या खाना है. क्या मांगना है. क्या देना है. ये इच्छाएं मोबाइल फोन पर ही जतला दी जाती हैं.

एक दौर हमारे बीच ऐसा भी रहा है, जब हम इसीलिए ऊंचा या ज्यादा नहीं बोलते थे कि कहीं दीवारें न सुन लें! माना जाता रहा है कि दीवारों के भी कान होते हैं. बातें एक दीवार के कान से होती हुईं, अन्य दीवारों के कानों तक आसानी से पहुंच जाती हैं. बड़े-बूढ़ों की हिदायतें आज भी जहन में ताजा हैं कि आहिस्ता बोलो, दीवारों के भी कान होते हैं.

मगर, मोबाइल फोन की आमद और हमारी उस पर सशरीर निर्भरता के बाद आपसी बातचीत ‘की-पैड’ तक ही सिमट कर रह गयी है. घर की दीवारें हमारी बोली, हमारी बातें सुनने को अब तरसती हैं. पूरा-पूरा दिन गुजर जाता है, दीवारों को हमारी राह तकते. अक्सर ही दीवारें अपने कानों को इसलिए भी साफ करती रहती हैं, कहीं उनमें मैल तो नहीं जमा हो गया, जिस कारण वे हमारी बोली सुन न पा रही हों?

लेकिन, ये मैल दीवारों के कानों में नहीं, हमारी ही जुबानों में भर गया है, जिससे बोल न के बराबर ही फूटते हैं.

यह भी शोध का विषय बनना चाहिए कि मोबाइल फोन के आने के बाद दिनभर में हम कितने मिनट आपस में बोलते-बतियाते हैं. व्यस्तताओं का बोझ इस कदर है कि अब रात और दिन एक जैसे लगने लगे हैं.

वैसे, दीवारों ने अपने कानों को त्याग कर अच्छा ही किया. कुछ दिनों बाद कहीं ऐसा न हो कि कोनों को भी घर छोड़ना पड़ जाये. घर जब से वास्तु के हिसाब से बनने लगे हैं, कोने भी अब कम ही नजर आते हैं. जिन घरों में कोने बचे भी हैं, वहां लोग कम ही बैठते हैं.

बे-कान की दीवारें अच्छी नहीं लगतीं. कभी-कभार जब घर में कुछ बोलो, तो ऐसा महसूस होता है कि मानो अपने बाले शब्दों को हम खुद ही सुन रहे हैं. आलम यह है कि हमारी आवाज अब दीवारों से टकराती भी नहीं. अब तो कहीं कंपन तक भी नहीं होता.

मैं तो उस वक्त को सोचकर सहम-सा जाता हूं, जब हमारे कान हमारी ही बोली-आवाज को सुनने में असमर्थ फील करेंगे. तब हम किससे अपने मन या दिल की बातें कहा और सुना करेंगे? बोलना-बतियाना मोबाइल फोन से शुरू होकर यहीं पर आकर खत्म हो जायेगा. बल्कि, लगता है कि काफी हद तक खत्म हो भी गया है.

मैंने अब किया यह है कि अपने घर की दीवारों पर ‘प्रतीकात्मक कान’ बनवा दिये हैं, ताकि मुझे हर पल यह एहसास होता रहे कि दीवारें मेरी बातें सुन रही हैं. मेरे घर की दीवारों के कान अभी हैं.

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