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”फेक न्यूज” का संकट

प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप के बाद ‘फेक न्यूज’ पर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के विवादास्पद निर्देश को वापस लेने का फैसला सराहनीय है. इस निर्देश को पत्रकारों ने उचित ही आशंका की नजर से देखते हुए उसे मीडिया की आजादी को सीमित करने के प्रयास के रूप में देखा. इसमें कहा गया था कि यदि भारतीय […]

प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप के बाद ‘फेक न्यूज’ पर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के विवादास्पद निर्देश को वापस लेने का फैसला सराहनीय है. इस निर्देश को पत्रकारों ने उचित ही आशंका की नजर से देखते हुए उसे मीडिया की आजादी को सीमित करने के प्रयास के रूप में देखा.

इसमें कहा गया था कि यदि भारतीय प्रेस परिषद् या न्यूज ब्रॉडकॉस्टर एजेंसी जैसी स्वायत्त संस्थाओं की जांच में यह पुष्टि होती है कि कोई खबर फर्जी है, तो उस खबर के लिए जिम्मेदार पत्रकार की मान्यता निलंबित या रद्द की जा सकती है. मंत्रालय का यह निर्देश प्रथम दृष्टया स्थापित परिपाटी यानी स्व-नियमन के विरुद्ध था.

इसके लागू होने पर मामला राजकीय नियमन के दायरे में आ जाता. मीडिया का राजकीय नियमन लोकतांत्रिक कायदे के भीतर शंका की नजर से देखा जाता है. दूसरी बात, मीडिया की पेशेवर गड़बड़ी को रोकने के लिए भारतीय प्रेस परिषद् जैसी निगरानी और अंकुश की संस्थाएं हैं.

हालांकि, इन संस्थाओं के अधिकार बड़े सीमित हैं और इनकी कार्यप्रणाली पर समय-समय पर अंगुली भी उठती रही है, लेकिन इस तर्क की ओट में इनके औचित्य पर सवाल उठाते हुए मंत्रालय उन भूमिकाओं का निर्वाह में साझीदार नहीं हो सकता है, जो प्रेस परिषद् जैसी संस्थाओं से अपेक्षित हैं. यह भी समझा जाना चाहिए कि किसी घटना को खबर में ढालते वक्त पर्याप्त सावधानी के बावजूद उसके अनेक पहलू छूट सकते हैं. घटना को खबर के रूप में प्रस्तुत करना दरअसल प्रासंगिक सूचनाओं को प्राथमिकता के लिहाज से दर्ज करने का मामला है.

सो, पहली नजर में किसी खबर के बारे में यह आरोप तो लगाया जा सकता है कि उसमें किसी घटना के अमुक पक्ष की अनदेखी हुई है या उसे कम प्राथमिक माना गया है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता है कि खबर अपने सार में झूठी है. यूरोपीय आयोग की एक हालिया रिपोर्ट में फर्जी खबर की धारणा पर सवाल उठाते हुए कहा गया है कि खबर के बारे में विरूपण का सवाल उठाया जा सकता है, न कि उसके फर्जी होने के बारे में.

और, अगर मामला खबर के तथ्यों को विरूपित करने का हो, तो अच्छा यही है कि इसका फैसला वे संस्थाएं करें, जिनका काम मीडिया की निगरानी का है, क्योंकि खबरों के विरूपण को चिह्नित करना विशेष योग्यता की मांग करता है. प्रधानमंत्री ने सही फैसला लिया है और गेंद अब प्रेस परिषद् और मीडिया संस्थाओं के पाले में है. पत्रकारिता की पेशेवर नैतिकता और सजगता के निर्वाह का जिम्मा उन्हें ही उठाना है.

रही बात सोशल मीडिया और इंटरनेट के जरिये खतरनाक अफवाहों और फर्जी खबरों की, तो उनसे निपटने के लिए मौजूदा कानूनों का इस्तेमाल हो सकता है तथा इंटरनेट कंपनियों को मुस्तैद रहने का निर्देश दिया जा सकता है. मीडिया पर सरकारी दबाव बनाने की नीतियों से परहेज किया जाना चाहिए, क्योंकि ऐसा करना लोकतांत्रिक मूल्यों के विपरीत है.

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