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II डॉ अश्विनी महाजन II एसोसिएट प्रोफेसर, डीयू [email protected] गत 14 मार्च को गुजरात नेशनल लाॅ यूनिवर्सिटी, गांधी नगर में रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल ने सरकारी बैंकों में दोहरे नियंत्रण का विषय उठाते हुए कहा कि रिजर्व बैंक के पास सरकारी बैंकों के नियंत्रण के सीमित अधिकार हैं, जबकि निजी बैंकों को रिजर्व […]

II डॉ अश्विनी महाजन II
एसोसिएट प्रोफेसर, डीयू
गत 14 मार्च को गुजरात नेशनल लाॅ यूनिवर्सिटी, गांधी नगर में रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल ने सरकारी बैंकों में दोहरे नियंत्रण का विषय उठाते हुए कहा कि रिजर्व बैंक के पास सरकारी बैंकों के नियंत्रण के सीमित अधिकार हैं, जबकि निजी बैंकों को रिजर्व बैंक अच्छे से नियंत्रित करने की स्थिति में है. पिछले दिनों रिजर्व बैंक की नाक तले बड़ी मात्रा में बैंकों द्वारा गलत तरीके से ऋण दिये गये, जो घोटाला ही कहा जा सकता है. ऐसे में उर्जित का यह बयान रिजर्व बैंक की संस्थागत त्रुटियों को छुपाने जैसा लगता है.
केंद्र सरकार भी सरकारी बैंकों के बारे में कई निर्णय लेती है. हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा बैंकों को सीधे निर्देश जारी किये गये कि वे शून्य जमा के साथ जन-धन खाते खोलें. सरकारी बैंकों पर केंद्र सरकार के नियंत्रण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है.
साल 1969 से पहले निजी बैंक देश की प्राथमिकताओं के मुताबिक ऋण नहीं देते थे और कृषि, लघु उद्योग और निर्यात के लिए ऋण मिलने में सबसे ज्यादा कठिनाई होती थी. ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकों की शाखाएं नहीं खुलती थीं. पहले 1969 में 14 बैंकों और उसके बाद 1980 में छह और बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद परिस्थितियां बदलीं और देश की प्राथमिकताओं के हिसाब से बैंकिंग व्यवस्था संचालित होने लगी.
फिलहाल तक सरकारी बैंक सामान्यतः लाभ कमाते रहे, जिसका एक बड़ा हिस्सा सरकारी खजाने को भी मिला. सर्वसमावेशी विकास में भी बैंकों की अच्छी भूमिका रही. ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकों का विकास हुआ. इकतीस करोड़ से ज्यादा जीरो बैलेंस बैंक खाते खुलने के बाद न केवल वित्तीय समावेशन संभव हुआ, बल्कि सरकार को भी बिना किसी छीजन के सरकारी सहायता लाभार्थियों के खाते में सीधे भेजना संभव हुआ.
जीरो बैलेंस खाता खोलने में निजी क्षेत्र के बैंक बहुत पीछे रहे. आज भी वे सार्वजनिक बैंकों की तुलना में कहीं ज्यादा न्यूनतम जमा राशि की मांग करते हैं और उनका सारा ध्यान केवल बड़े जमाकर्ताओं पर होता है. सवाल है कि जब उर्जित पटेल यह कहते हैं कि निजी बैंकों पर उनका नियंत्रण बेहतर है, तो वे क्यों निजी बैंकों पर न्यूनतम राशि को कम नहीं करवा पाये?
क्यों निजी बैंकों द्वारा जीरो बैलेंस खाते नहीं खोले गये? उनके भरपूर नियंत्रण के बावजूद भी निजी बैंकों के एनपीए क्यों बढ़ रहे हैं? आज जहां सरकारी बैंकों के एनपीए 5.2 प्रतिशत हैं, वहीं निजी बैंकों के एनपीए भी 4 प्रतिशत तक पहुंच रहे हैं.
आरबीआई का कहना कि बैंकिंग कानून के कुछ ही प्रावधान सरकारी बैंकों पर लागू होते हैं; जबकि निजी बैंकों पर पूरे लागू होते हैं. मसलन, निजी बैंकों के लाइसेंस देने से लेकर चेयरमैन और कार्यकारी निदेशकों को हटाने का अधिकार आरबीआई के पास है. वह बैंकों को नियंत्रित कर सकता है और बैंक को बंद करने का निर्देश दे सकता है.
हाल में पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने कहा था- ‘अफसरशाहों और मंत्रियों के दबाव में सरकारी बैंक ऐसे उधार देते हैं, जो जोखिम भरे होते हैं, इसलिए राजनेताओं और अफसरों का दखल सरकारी बैंकों में नहीं होना चाहिए.’ चाहे जीरो बैलेंस वाले खाते खोलने का काम हो या प्राथमिकता वाले ऋण देने या सरकार के लिए बांडों से ऋण जुटाने की बात हो, सरकारी बैंकों को मुआवजा मिलेगा तो ही वे लाभ कमा सकेंगे.
आरबीआई गवर्नर का यह तर्क कि बैंकों पर दोहरा नियंत्रण होने के कारण वह सरकारी बैंकों को नियंत्रित नहीं कर सकता, सही नहीं है. गौरतलब है कि केंद्र सरकार बैंकों में निदेशक नियुक्त करती है, इसी प्रकार रिजर्व बैंक भी बैंकों में निदेशक नियुक्त करता है और सभी बैंकों के बोर्ड में रिजर्व बैंक के प्रतिनिधि होते हैं.
यही नहीं रिजर्व बैंक का प्रतिनिधि बैंकों की प्रबंध समिति में भी होता है, जो बड़े ऋणों को स्वीकृति प्रदान करता है. आॅडिट समिति, सतर्कता संबंधी मामलों की निदेशक समिति और बैंक कार्मिकों के पारिश्रमिक निर्धारण समिति सभी में रिजर्व बैंक के प्रतिनिधि होते हैं. इसलिए सही नहीं है कि रिजर्व बैंक नियमावली के आधार पर बैंकों को नियंत्रित करता है, बल्कि विभिन्न समितियों के जरिये भी सरकारी बैंकों में नियंत्रण का काम करता है. इसलिए कहा जा सकता है कि निजी बैंकों की तुलना में सरकारी बैंकों के बारे में रिजर्व बैंक के पास कहीं ज्यादा जानकारी होती है.
यह सही है कि सरकारी स्वामित्व में होने के कारण स्वाभाविक तौर पर सरकार द्वारा निर्देशित सामाजिक सरोकार वाले काम सरकारी बैंक करते ही हैं, लेकिन उसका लाभ पूरे समाज को, खासतौर पर वंचितों और प्राथमिकता वाले क्षेत्रों को मिलता है. ऐसे में सरकार उन्हें उस काम के लिए मुनासिब मुआवजा दे, यह सुझाव ठीक हो सकता है. हालांकि, इससे बैंकों की लाभप्रदता थोड़ी कम हो सकती है, लेकिन सामाजिक कल्याण उनका एक प्रमुख उद्देश्य भी है, यह नहीं भूलना चाहिए.
उर्जित पटेल द्वारा बैंकिंग घोटालों का दोष रिजर्व बैंक की सीमित शक्तियों पर मढ़ने का प्रयास सही नहीं है. बैंकिंग नियंत्रण व्यवस्था में सुधार की गुंजाइश हो सकती है, और इसके बारे में सरकार और आरबीआई मिल-बैठकर निर्णय लेने में सक्षम हैं.
लेकिन, वर्तमान बैंकिंग संकट के मद्देनजर आरबीआई गवर्नर को संयम बरतने की जरूरत है, क्योंकि इसके कारण अंतरराष्ट्रीय जगत में भारतीय बैंकिंग की छवि को नुकसान हो सकता है. दोष भारत की बैंकिंग प्रणाली का नहीं, बल्कि तत्कालीन सरकार के गलत निर्णयों का है.
Prabhat Khabar Digital Desk
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