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बिहार की ज्ञान-परंपरा
मणींद्र नाथ ठाकुर एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू manindrat@gmail.com बिहार से झारखंड के अलग होने के बाद यह बात आम थी कि इस राज्य के पास अब कोई संपदा नहीं बची है. किसी ने लिखा था कि ‘निकल गया झारखंड अब क्या खायेंगे शकरकंद’. यह सच है कि प्राकृतिक संपदा के मामले में बिहार के पास कुछ […]
मणींद्र नाथ ठाकुर
एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू
manindrat@gmail.com
बिहार से झारखंड के अलग होने के बाद यह बात आम थी कि इस राज्य के पास अब कोई संपदा नहीं बची है. किसी ने लिखा था कि ‘निकल गया झारखंड अब क्या खायेंगे शकरकंद’. यह सच है कि प्राकृतिक संपदा के मामले में बिहार के पास कुछ खास नहीं है. लेकिन, इसके पास अतुल ज्ञान संपदा है.
यदि इसे ठीक से संभाला जाये, तो इस राज्य का पुराना स्वर्ण दिन लौट सकता है. आखिर कोई कारण तो रहा होगा कि भारत के प्राचीन विश्वविद्यालयों में सर्वाधिक बिहार में थे. हाल में बिहार सरकार ने नालंदा विवि का जीर्णोद्धार करने का प्रायस तो किया है, लेकिन मिथिला की ज्ञान संपदा को अनदेखा किया गया है.
क्या है मिथिला की ज्ञान परंपरा? बिहार का यह क्षेत्र सैकड़ों वर्षों तक ज्ञान सृजन का केंद्र रहा था. यहां की ग्रामीण संस्कृति में अनेकों महान ग्रंथों की रचना हुई है.
याज्ञवल्क्य स्मृति जिससे हिंदू समाज के संपत्ति के अधिकार का संचालन होता है इसी भूमि की उपज है. आध्यात्मिक दर्शन के गूढ़ रहस्य से संबंधित महान ग्रंथ ‘अष्टावक्र गीता’ की रचना का श्रेय भी इसी क्षेत्र को जाता है. मैं ऐसे अनेकों ज्ञान परंपराओं और ग्रंथों का नाम गिना सकता हूं. यहां मैं लोगों का केवल न्याय दर्शन की ओर ध्यान दिलाना चाहूंगा, जिसके लिए मिथिला को खास तौर पर जाना जाता है.
कोई पंद्रह साल पहले दिल्ली विवि और जर्मनी के हाइडलबर्ग विवि के दक्षिण एशिया केंद्र के कुछ शोधकर्ताओं के साथ पहली बार मैंने इस क्षेत्र की शोध यात्रा की थी. सभी यह देख कर आश्चर्य चकित थे कि किस तरह इस समाज में न्याय दर्शन लोक चेतना का हिस्सा था. यहां के आम जीवन में न्याय के तार्किक पक्ष की उपस्थिति ने हमें बेहद आकर्षित किया था.
हालांकि, अब बहुत कुछ बदल गया है. दुनिया के कई विश्वविद्यालयों में इसकी औपचारिक पढ़ाई होने लगी है. कोलंबिया विवि में इस पर एक बड़ा प्रोजेक्ट चल रहा है. बहुत सी पुस्तकें छप रही हैं. अमर्त्य सेन की पुस्तक ‘आर्ग्युमेंटेटिव इंडियन’ ने इस दर्शन को नया बल दिया है. उन्होंने इस बात पर जोर दिया है कि अर्थशास्त्र के सिद्धांतों के निरूपण में उन्हें इस दर्शन से बहुत सहायता मिली है.
इस दर्शन का मूल विषय एक विकसित तर्क प्रणाली है. आम तौर पर यह माना जाता है कि ‘जहां-जहां धुआं है वहां आग होता है’. आपने कहीं धुआं देखा तो आप यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं वहां आग होगा. यह पश्चिमी देशों का प्रचलित तर्क प्रणाली है. लेकिन, न्याय प्रणाली इससे अलग है.
एक कहानी के अनुसार, इस दर्शन के रचनाकार गौतम की पत्नी ने इस व्यवस्था को खंडित कर दिया. एक बार उसने एक मिट्टी के घड़े में धुआं लाकर ऋषि और उनके शिष्यों के सामने घड़ा को फोड़ दिया. अब धुआं तो उनके सामने था, लेकिन आग कहीं और थी.
इसके बाद से उन्होंने तर्क प्रणाली में सुधार किया. जहां धुआं है वहां आग है. लेकिन, यदि आपने कहीं धुआं देखा, तो आप केवल इतना कह सकते हैं कि वहां आग होने की संभावना है. आप केवल अनुमान लगा सकते हैं. आगे और प्रमाण मिलने पर ही आप निश्चित रूप से कुछ कह सकते हैं. तर्क प्रणाली सच की तह तक पहुंचने का माध्यम है. और न्याय दर्शन में तर्क करने की विधा का वृहद वर्णन है.
इस दर्शन के कई आयामों पर विश्वविद्यालयों में शोध चल रहा है. जेएनयू की एक शोध टीम भी इसमें जुटी है. कई यात्राओं के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि केवल किताबी शोध से काम नहीं चल सकता है.
इसे पूरी तरह समझने के लिए इस दर्शन और यहां की संस्कृति के बीच के संबंधों को ठीक से समझना पड़ेगा. क्योंकि, सैकड़ों वर्षों से इस समाज में यह दर्शन जीवित रहा है. लोगों ने उसके अर्थ को यथार्थ के प्रयोगों से निरोपित किया है.
इस दर्शन में समाजशास्त्र के शोध प्रणालियों को बहुत कुछ देने की क्षमता है. लेकिन, आधुनिक युग के लिए इसमें सबसे महत्वपूर्ण है अलग-अलग तरह के विवादों को निपटाने की तकनीकी. अभी भी ‘कान्फ्लिक्ट रिसोल्यूशन’ के विषय की पढ़ाई में इस विधा को शामिल करना बाकी है.
इस पर और शोध कर इस विधा को आधुनिक युग के लिए और उपयुक्त बनाया जा सकता है. योग की तरह यह भी दुनिया को भारत की एक देन हो सकती है. इस समाज में इस दर्शन को जीवन के साथ जिस तरह से जोड़ा गया है, उसके अध्ययन से बहुत कुछ नया खोजा जा सकता है. इसका प्रयोग कूटनीति के संवादों में भी हो सकता है. आजकल बहुत से विद्वानों ने अपने-अपने विषय के संदर्भ में इनका अध्ययन प्रारंभ किया है. खास कर मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, साहित्य और विज्ञान के दर्शन में इसका प्रभाव बढ़ता देखा जा सकता है.
कई राज्यों में अपनी ज्ञान परंपराओं को लेकर तेजी से जागरूकता आयी है. मसलन, केरल सरकार ने अपनी संपदा की रक्षा के लिए एक विशेष बौद्धिक संपदा कानून बनाया है. अब लगभग यह मान लिया गया है कि केरल में पश्चिम से काफी पहले आधुनिक गणित का विकास हो चुका था.
इस पर विशेष शोध के लिए सरकार ने ‘केरल स्कूल ऑफ मैथेमेटिक्स’ नामक एक बड़ी संस्था बनायी है. बिहार सरकार को भी इसका अनुसरण कर अपनी ज्ञान परंपराओं पर शोध को बढ़ावा देना चाहिए और उसकी सुरक्षा का उपाय करना चाहिए. शायद, केरल के आयुर्वेदिक चिकित्सा की तरह ही यह बिहार की अर्थव्यवस्था के लिए भी एक वरदान साबित हो.
खबर मिली है कि इस विषय में मिथिला के कुछ ग्रामीण इलाके में एक पहल की जा रही है. उन्होंने साहित्यिकी नामक एक स्वयं सेवी संस्था के द्वारा वहां के ज्ञान ग्रंथों और पांडुलिपियों को सुरक्षित करने का प्रयास शुरू किया है. उन्होंने पंद्रहवीं शताब्दी के एक महान विद्वान यायची मिश्र की ज्ञान परंपरा पर वार्षिक गोष्ठी आयोजित करने का निर्णय लिया है.
यदि बिहार सरकार चाहे, तो ऐसे कार्यक्रमों को आसानी से अंतरराष्ट्रीय स्वरूप दे सकती है. बहुत आसानी से इन ज्ञान परंपराओं को ‘सॉफ्ट पावर’ के रूप में अंतरराष्ट्रीय जगत में स्थापित किया जा सकता है. इसमें कोई शक नहीं है कि ज्ञान परंपराओं के इस क्षेत्र को दुनियाभर के लिए पर्यटन के आकर्षण के रूप में भी विकसित किया जा सकता है. शायद ही दुनिया में कोई जगह है, जहां की ग्रामीण संस्कृति में दर्शन की इतनी गहन विधा विकसित हुई हो.
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