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उच्च शिक्षा की गिरती साख, तकनीकी और प्रबंधन शिक्षा का चरमराता ढांचा

लाखों लेकर बना रहे बेरोजगार! डिजिटल होने और दुनिया की आर्थिक महाशक्ति बनने का सपना संजो रहे भारत में उच्च, तकनीकी और प्रबंधन शिक्षा का ढांचा चरमराता दिख रहा है. उदारीकरण के बाद, खास कर बीते एक-डेढ़ दशक में, देश में तकनीकी और प्रबंधन शिक्षा संस्थानों की बाढ़-सी आ गयी है, लेकिन शिक्षा की खराब […]

लाखों लेकर बना रहे बेरोजगार!

डिजिटल होने और दुनिया की आर्थिक महाशक्ति बनने का सपना संजो रहे भारत में उच्च, तकनीकी और प्रबंधन शिक्षा का ढांचा चरमराता दिख रहा है. उदारीकरण के बाद, खास कर बीते एक-डेढ़ दशक में, देश में तकनीकी और प्रबंधन शिक्षा संस्थानों की बाढ़-सी आ गयी है, लेकिन शिक्षा की खराब गुणवत्ता और जरूरी बुनियादी सुविधाओं की कमी के चलते लाखों अभिभावकों के अरबों रुपये और उनके बच्चों के कैरियर के कुछ कीमती साल इस बाढ़ में यूं ही बह जा रहे हैं!

हालत यह है कि मोटी फीस देकर एमबीए या इंजीनियरिंग डिग्री हासिल कर रहे लाखों युवा हर साल बेरोजगारों की कतार में शामिल हो रहे हैं, या जीविकोपार्जन की मजबूरी में अत्यंत साधारण नौकरी ज्वाइन कर अर्धबेरोजगारी के शिकार हो रहे हैं.

अभी एसोचैम का ताजा सर्वे बता रहा है कि देश के शीर्ष 20 प्रबंधन संस्थानों को छोड़ कर अन्य हजारों संस्थानों से निकले केवल 7 फीसदी छात्र ही नौकरी देने के काबिल होते हैं. यह आंकड़ा चिंता बढ़ानेवाला इसलिए भी है, क्योंकि स्थिति साल-दर-साल सुधरने की बजाय लगातार खराब ही होती जा रही है. 2007 में किये गये ऐसे सर्वे में 25 फीसदी, जबकि 2012 में 21 फीसदी एमबीए डिग्रीधारियों को नौकरी देने के काबिल माना गया था.

इससे पहले जनवरी, 2016 में आयी एस्पाइरिंग माइंड्स की नेशनल इम्प्लायबिलिटी रिपोर्ट में बताया गया था कि देश के 20 फीसदी इंजीनियरिंग स्नातक ही नौकरी देने के काबिल हैं. जाहिर है, एमबीए और बीटेक जैसे प्रोफेशनल कोर्स भी अब बीए और बीएससी पास कोर्स की तरह अपनी अहमियत खो रहे हैं. आखिर क्यों लगातार बदतर हो रही है स्थिति और क्या हो सकता है इसका समाधान, इसी की एक पड़ताल आज के ‘इन दिनों’ में…

07 फीसदी

एमबीए डिग्रीधारी युवा, जिन्होंने देश के शीर्ष 20 प्रबंधन स्कूलों को छोड़ कर अन्य संस्थानों से पढ़ाई की है, ही नौकरी के काबिल हैं.

25 फीसदी

एमबीए डिग्रीधारियों को 2007 में, जबकि 21 फीसदी एमबीए डिग्रीधारियों को 2012 में नौकरी देने के काबिल माना गया था एसोचैम के सर्वे में.

5500 के करीब

बिजनेस स्कूल हैं देश में इस समय, जिनमें से आइआइएम सहित थोड़े से संस्थान से निकले युवाओं को ही नौकरी मिल पा रही है.

दुर्दशा की वजह

1. देश में इंजीनियरिंग और प्रबंधन कॉलेज भले बढ़ रहे हों, उनकी गुणवत्ता नहीं बढ़ रही, न ही इंडस्ट्री की बदलती जरूरतों के मुताबिक उनका पाठ्यक्रम अपग्रेड हो रहा है.

2. जिस हिसाब से नये कॉलेज खुल रहे हैं, उनके लिए योग्य टीचर तक नहीं मिल रहे हैं. ज्यादातर निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों में बीटेक पास युवा ही नौकरी नहीं मिलने की वजह से पढ़ाने लगते हैं.

3. विकसित देशों में कम संस्थानों में बेहतर सुविधाएं मुहैया कराने पर ध्यान दिया जाता है और एक ही संस्थान में हजारों विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते हैं. जबकि भारत में जरूरी बुनियादी सुविधाओं के बिना भी हजारों कॉलेज चल रहे हैं, जहां सिर्फ कुछ सौ या हजार विद्यार्थियों को पढ़ाने की व्यवस्था है.

4. निजी कॉलेजों में प्रोफेशनल कोर्सेज की फीस आम भारतीय परिवारों की पहुंच से बाहर है. अकसर पैसेवाले परिवारों के बच्चे मेरिट के बिना भी इन कॉलेजों की शोभा बढ़ाते हैं. गरीब परिवारों के मेधावी बच्चों की पहचान कर उन्हें स्कॉलरशिप देकर अच्छे कॉलेजों में भेजने की कोई व्यवस्था नहीं है.

संस्थानों के उद्देश्य बदलें तो शिक्षा में गुणवत्ता बढ़े

प्रो जगमोहन सिंह राजपूत

पूर्व निदेशक, एनसीइआरटी

एमबीए डिग्रीधारकों की नौकरी करने की काबिलियत को लेकर एसोचैम के सर्वे में जो कुछ भी सामने आया है, वह अप्रत्याशित नहीं, बल्कि अपेक्षित है. जिस दर से देश भर में एमबीए के कॉलेज खुले, या जिस दर से लोगों ने एमबीए के कॉलेज सिर्फ इसलिए खोले कि इससे उन्हें आर्थिक लाभ हो, उसकी परिणति में ऐसी रिपोर्ट ही आनी थी. जब ऐसे कॉलेजों का उद्देश्य बस इतना हो कि किसी तरह से छात्रों को संस्थान से जोड़े रखा जाये- जबकि इनमें न अच्छे स्टाफ हैं, न सुविधाएं हैं, न अनुभव है- तो जाहिर है कि वहां ऐसे ही परिणाम की कल्पना की जा सकती है. जब तक इन कॉलेजों का नियमन-नियंत्रण ठीक से नहीं होगा, इनकी नियामक संस्थाएं (रेगुलेटरी बॉडीज) अपनी जिम्मेवारी नहीं समझेंगी, तब तक यह हालत नहीं सुधरेगी. शैक्षणिक संस्थानों की गुणवत्ता में वृद्धि के लिए यह पहली जरूरत है कि नियामक संस्थाएं अपना काम बेहतर ढंग से करें.

नियामक संस्थाओं को दुरुस्त करना पहली जरूरत

प्रबंधन कॉलेजों में हर साल लाखों बच्चे अरबों रुपये खर्च करने के बाद भी अगर नौकरी के काबिल नहीं हो पा रहे हैं, तो सरकार को चाहिए शैक्षणिक क्षेत्र की ऐसी नियामक संस्थाएं, जो अच्छी तरह से काम नहीं कर रही हैं, उनमें तुरंत हस्तक्षेप करे. हमारे देश में इस वक्त जो पहली जरूरत है, वह है तमाम बड़ी नियामक संस्थाओं की साख को बनाये रखना. दूसरी बात यह है कि जितनी भी नयी संस्थाएं खुलती हैं, उनमें निरीक्षण करने के लिए एक टीम जाती है, जिसमें उसके कुछ खास प्रोफेशनल्स होते हैं.

जैसे यदि एक एमबीए कॉलेज खुलना है, तो उसके लिए बड़े प्रबंध संस्थानों के सीनियर अधिकारी जाते हैं. ये लाेग उन संस्थाओं की बड़ाई करते हुए मशवरे दे डालते हैं कि फलां इंस्टीट्यूट बहुत अच्छा है, भले ही वहां कोई सुविधा हो या न हो. इस तरह की प्रक्रिया में सुधार लाने की अावश्यकता है और यहां नैतिकता का तकाजा है कि सिर्फ अपने लाभ के लिए ऐसा कुछ भी नहीं किया जाये.

मैं जहां कहीं भी जाता हूं, वहां अध्यापकों से कहता हूं कि आप जिन बच्चों को पढ़ा रहे हैं, उन बच्चों में देश का भविष्य है. एक अध्यापक को छात्रों के अंदर मूल्य पैदा करना होता है, इसलिए अध्यापक का जीवन आदर्श होना चाहिए. अब अगर हमारा अध्यापक किसी एक संस्थान में पढ़ाने के साथ-साथ ही कई अन्य जगहों पर पढ़ाने की कोशिश करेगा, तो निश्चित रूप से शिक्षा की गुणवत्ता पर इसका असर पड़ेगा.

एक और महत्वपूर्ण बात है. देश भर में बहुत से नेताओं ने कई संस्थान खोले और खुलवाये हैं. नये संस्थानों के लिए इन नेताओं ने स्वीकृतियां प्राप्त की और स्वीकृतियां दीं भी. ये स्वीकृतियां कैसे दी गयीं, यह हम सब जानते हैं. ऐसे में जैसे ही संस्थान-सुधार की बात आती है, कोई न कोई अड़चन आ जाती है, जो राजनीति से प्रेरित हाेती है. यही वजह है कि आज मेडिकल एंट्रेंस के लिए सुप्रीम कोर्ट को दखल देते हुए यह कहना पड़ा कि एक ही प्रवेश परीक्षा होनी चाहिए.

कौशल विकास की बड़ी जरूरत

साल 1968 में कहा गया था कि अगले दस वर्षों में देश के 25 प्रतिशत सेकेंडरी स्कूलों को वोकेशनल स्कूलों में परिवर्तित कर दिया जायेगा. यानी फिजिक्स, केमेस्ट्री, मैथ पढ़ने में जिन बच्चों की गहरी रुचि नहीं है, वे बच्चे कौशल सीखेंगे और काम करने-आत्मनिर्भर होने के लिए तैयार किये जायेंगे.

दुर्भाग्य से हम इसमें असफल हो गये, जिसका परिणाम यह हुआ कि बाद के वर्षों में देश में ऐसे ग्रेजुएट-पोस्ट ग्रेजुएट तैयार हुए, जो कौशल में बहुत पीछे थे. इसी बीच तमाम एमबीए संस्थान खुल गये, जहां वे बच्चे बिना अपनी रुचि के भी जल्दी से जॉब पाने के लिए एमबीए कोर्सेज में दाखिले लेने लगे. नतीजा हमारे सामने है.

वर्तमान में बहुत से ग्रेजुएट्स के पास न तो अपने विषय की जानकारी है, न कौशल है और न ही आत्मविश्वास है. ऐसे में यहां स्किल इंडिया कार्यक्रम मददगार हो सकता है, जिसके तहत जिस बच्चे को किसी खास कौशल में रुचि हो, तो वह उसे आगे बढ़ा सके और अात्मनिर्भर हो सके. इसमें मां-बाप को भी बच्चों पर जोर नहीं देना चाहिए कि वह एमबीए ही करे और बच्चों को भी चाहिए कि वे सिर्फ जॉब के लिए कहीं भी दाखिला न लें, बल्कि अपनी रुचि के हिसाब से आगे का रास्ता चुनें.

शिक्षा की गुणवत्ता पर नहीं है फोकस

कुल मिला कर, उच्च, तकनीकी और प्रबंधन के क्षेत्रों में काबिलियत के स्तर के गिरने का बुनियादी कारण यह है कि संस्थान खोले जाने का उद्देश्य शिक्षा की गुणवत्ता नहीं, बल्कि आर्थिक लाभ हो गया है. गांधीजी ने कहा था कि हमारी प्रकृति में सबकी आवश्यकताआें की पूर्ति के लिए संसाधन मौजूद हैं, लेकिन किसी एक की लालच की पूर्ति के लिए नहीं है. एक बड़े विभाग में ऊंचे पद पर अगर एक व्यक्ति लालची हो जाता है, तो उस विभाग की सारी व्यवस्था भ्रष्ट हो जाती है. कुछ यही बात प्रबंध संस्थानों पर लागू होती है, क्योंकि वे सिर्फ आर्थिक लाभ के बारे में ही ध्यान देते हैं, शिक्षा की गुणवत्ता के बारे में नहीं.

(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

औसत दर्जे के संस्थानों के कारण हो रहा मोहभंग

हरिवंश चतुर्वेदी

डायरेक्टर, बिड़ला

इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट टेक्नोलॉजी (बिमटेक)

प्रबंध शिक्षा की रोजगारपरकता भारत ही नहीं, दुनियाभर में उसकी लोकप्रियता का प्रमुख कारण रही है. विश्व में भारत एमबीए और प्रबंध शिक्षा का सबसे बड़ा बाजार है. दुनिया में इस समय 15 हजार से ज्यादा प्रबंध संस्थान हैं, जिनमें से एक तिहाई से ज्यादा भारत में हैं. लेकिन, भारतीय उद्योगों के परिसंघ ‘एसोचैम’ के हालिया सर्वे के अनुसार देश के शीर्ष 20 प्रबंध संस्थानों को छोड़ कर ज्यादातर औसत दर्जे के और संकटग्रस्त हैं.

एसोचैम की रिपोर्ट में कहा गया है कि इन औसत दर्जे के प्रबंध संस्थानों से निकलनेवाले सिर्फ 7 फीसदी एमबीए डिग्रीधारी ही कॉरपोरेट सेक्टर में भर्ती किये जाने के योग्य होते हैं. इनमें से बहुतों को 10 से 15 हजार रुपये मासिक की नौकरी ही मिल पाती है. इस तरह एमबीए की पढ़ाई पर 3 लाख से 5 लाख रुपये तक खर्च करनेवाले युवा एमबीए डिग्री हासिल करने के बाद भी एक खुशहाल जिंदगी से वंचित रह जाते हैं.

खासकर, पिछले 5 वर्षों में लाखों भारतीय युवाओं के एमबीए करने के सपने चूर होते देखे गये, क्योंकि उन्हें मोटी फीस देने के बाद डिग्रियां तो मिलीं, पर किसी अच्छी कंपनी में नौकरी पाना उनके लिए एक दु:स्वप्न रहा. इनमें से बहुत से युवाओं को छोटी-मोटी नौकरी से गुजारा करना पड़ रहा है या वे पारिवारिक धंधे में हाथ बंटा रहे हैं. ऐसे में हर भारतीय अभिभावक और उनकी युवापीढ़ी के मन में यह सवाल उठता है कि एमबीए करने से क्या फायदा होगा?

एमबीए की पढ़ाई पर जितना खर्च होगा, उतना कितने साल की नौकरी से वसूल हो पायेगा? क्या एमबीए करने के बाद सबको नौकरी मिल पायेगी? क्या स्नातक डिग्री के बाद सीधे एमबीए करना चाहिए या कुछ वर्ष कार्य-अनुभव पाने के बाद? नया एडमिशन लेने से पूर्व इन सवालों के जवाब लेना जरूरी है.

पिछले 5 वर्षों में 500 से अधिक

प्रबंध संस्थान बंद

भारत में मध्य वर्ग का हर परिवार सपना देखता कि कैसे उनकी नयी पीढ़ी एमबीए करके किसी बड़ी कंपनी में मोटी तनख्वाह की नौकरी हासिल कर पाये. लेकिन, प्रबंध शिक्षा और एमबीए के कोर्स को लेकर अब कई तरह के सवाल, शंकाएं और आलोचनाएं सुनने को मिल रही हैं. इन सबके बीच देश में पिछले 5 वर्षों में 500 से अधिक प्रबंध संस्थानों पर ताला लग चुका है और हजारों अन्य संस्थानों में आधी से ज्यादा सीटें खाली रह रही हैं. ऐसे में कुछ लोग मानते हैं कि भारत में ‘डाॅटकाॅम-बबल’ की तरह ही एमबीए का बुलबुला भी फूटने ही वाला है और ज्यादातर चलताऊ संस्थान बंद होनेवाले हैं.

हालांकि एसोचैम की रिपोर्ट में स्थिति कुछ ज्यादा ही निराशाजनक दिखती है. रिपोर्ट में अच्छे प्रबंध संस्थानों की संख्या सिर्फ 20 बतायी गयी है, लेकिन मेरा मानना है कि देश में करीब 500 प्रबंध संस्थान ठीक ठाक चल रहे हैं और उनके विद्यार्थियों को अच्छी नौकरियां भी मिल रही हैं. भारत में प्रबंध शिक्षा में पीजीडीएम कार्यक्रम ज्यादा लोकप्रिय हैं. एमबीए और पीजीडीएम में फर्क इस बात का है कि 500 पीजीडीएम संस्थान विश्वविद्यालयों के शिकंजे से बाहर हैं. पीजीडीएम संस्थानों में सरकारी और निजी, दोनों तरह की संस्थाएं हैं. भारत सरकार द्वारा स्थापित 19 आइआइएम संस्थानों में से अहमदाबाद, कोलकाता, बेंगलुरू, लखनऊ, इंदौर और कोझीकोड के संस्थान लब्ध प्रतिष्ठित हैं, जबकि रोहतक, काशीपुर, उदयपुर, शिलांग, रायपुर, रांची, त्रिरुचिरापल्ली, सिरमौर, संगलपुर, विशाखपत्तनम, बोधगया, नागपुर और अमृतसर में स्थापित 13 नये आइआइएम अभी अपनी पहचान व ब्राण्ड को स्थापित करने के लिए जद्दोजहद में जुटे हैं.

मंदी के दौर में अदूरदर्शिता से

बिगड़े हालात

तकनीकी और प्रोफेशनल शिक्षा में 1990 से 2007 के बीच नये संस्थानों की मांग बहुत तेजी से बढ़ी. इसका मुख्य कारण था भारत सरकार की आर्थिक उदारीकरण की नीति, जिसमें प्राइवेट सेक्टर को तकनीकी शिक्षा में खुली छूट दी गयी, ताकि सरकार को अपनी जिम्मेवारी से मुक्ति मिल सके. उदारीकरण के शुरुआती 15 वर्षों मेें भारतीय अर्थव्यवस्था में तेजी का दौर था और कंपनियां बिजनेस स्कूलों में जम कर नौकरियां बांट रही थीं. 2007 के बाद अमेरिकी व यूरोपीय अर्थव्यवस्था आयी बेतहाशा मंदी ने भारतीय अर्थव्यवस्था को भी जकड़ लिया. 2008 से 2014 के बीच में भारतीय व विदेशी कंपनियों ने बिजनेस स्कूलों में आंख मूंद कर नौकरियां बांटना कम कर दिया. विश्वव्यापी मंदी का सबसे ज्यादा असर आइटी कंपनियों पर पड़ा, जो लाखों एमबीए और इंजीनियरों की भर्ती मोटी तनख्वाह पर कर रही थीं.

इसी मंदी के दौरान एआइसीटीइ ने भ्रष्टाचार, राजनीतिक दबाव और अदूरदर्शिता के फलस्वरूप एमबीए की सीटों को, जो कि 2007 में 94,704 थीं, 2012 तक 3.85 लाख कर दिया. मंदी के 5 वर्षों के दौरान एमबीए की सीटों को एआइसीटीइ द्वारा चार गुना करने का औचित्य आज तक किसी को समझ में नहीं आया. नतीजतन छोटे-छोटे कस्बों, यहां तक कि ग्रामीण और सुदूरवर्ती क्षेत्रों में भी एमबीए के संस्थान ऐसे खुल गये जैसे कि लेडीज ब्यूटी-पार्लर और जिम, जहां युवा पीढ़ी अपनी जेब खाली करके बेहतर भविष्य के सपने देख सकें.

भ्रष्टाचार, कुशासन और राजनीतिक हस्तक्षेप हर जगह

भ्रष्टाचार, कुशासन और राजनीतिक हस्तक्षेप आज उच्च शिक्षा में हर जगह दिखाई देता है. एमबीए संस्थानों को मान्यता एआइसीटीइ देती है और यह संस्था भी भूतकाल में उससे अछूती नहीं रही है. स्थिति यह है कि अब अक्सर यह प्रश्न उठता है कि क्या एमबीए की चमक फीकी हो रही है और क्या भविष्य में एमबीए की डिग्री वाले युवाओं को अच्छी नौकरियां नहीं मिल पायेंगी? एमबीए में प्रवेश के इच्छुक अभ्यर्थियों और रोजगार देनेवाली कंपनियों के लिए यह मुश्किल होता है कि अच्छे और खराब प्रबंध संस्थानों की पहचान कैसे की जाये?

एमबीए डिग्रीधारियों को भर्ती करनेवाली कंपनियों और उनके उच्च प्रबंधन की कई बार यह शिकायत रहती है कि भारतीय बिजनेस स्कूलों से निकलनेवाले एमबीए डिग्रीधारी आज की व्यावसायिक चुनौतियों का सामना करने और कंपनियों के कारोबार की दिन-प्रतिदिन की समस्याओं का हल ढूंढने में असमर्थ हैं. स्पष्ट है कि सिर्फ एमबीए की डिग्री औद्योगिक और व्यावसायिक जगत में सफलता की गारंटी नहीं है. महत्वपूर्ण यह है कि डिग्री या डिप्लोमा किस संस्थान द्वारा कितने कठिन परिश्रम और परीक्षा मूल्यांकन के बाद दिया जा रहा है?

मांग और पूर्ति में संतुलन बनाना जरूरी, लेकिन करेगा कौन?

आज यूजीसी और एआइसीटीइ से यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्या उनके पास एमबीए डिग्रीधारियों की वर्तमान और भावी मांग के संबंध में कोई तथ्यपरक व विश्वसनीय आंकड़ा है?

क्या भविष्य में नये संस्थान, कॉलेज व यूनिवर्सिटियां खोलते समय में यह ध्यान में रखा जायेगा कि एमबीए, इंजीनियरिंग, फार्मेसी, मेडिकल और डेंटल शिक्षा के कोर्सों की मांग और पूर्ति मेें संतुलन बना रहे? यह कार्य अगर केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय, यूजीसी, एआइसीटीइ, एमसीआइ, डीसीआइ आदि नहीं करेंगे, तो कौन करेगा?

मुझे लगता है कि एमबीए पिछले कुछ दशकों में दुनियाभर में सर्वाधिक लोकप्रिय पाठ्यक्रम रहा है और आनेवाले दशकों में भी इसकी चमक कायम रहेगी. लेकिन, भारत के संदर्भ मेें यह ध्यान रखना होगा कि हर पीली और चमकदार धातु सोना नहीं होती तथा किसी चालू मार्का प्रबंध संस्थान से एमबीए करने से कुछ हासिल होनेवाला नहीं है. इसलिए एमबीए कोर्स में एडमिशन का विचार रखनेवाले भारतीय युवाओं को इस मृग मरीचिका से बचना चाहिए.

Prabhat Khabar Digital Desk
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