अभी लड़नी है कई अधिकारों की लड़ाई
-राहुल सिंह-
देश में संविधान लागू होने के 63-64 वर्षों के बीच नागरिक अधिकारों की व्याख्या करते हुए कई कानून बने. आम लोगों को सूचना, रोजगार, शिक्षा, भोजन सहित कई तरह के अधिकार मिले. इसके बावजूद अभी कई ऐसे अधिकार हैं, जो लोगों को मिलने बाकी हैं.
एक पारदर्शी, ईमानदार व समान अधिकार एवं अवसर वाली व्यवस्था में एक नागरिक को और भी कई तरह के अधिकार चाहिए. मसलन, अपने जनप्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार, तय समय सीमा के अंदर न्याय पाने का अधिकार, स्थानीय योजनाओं में ग्रामसभा और मुहल्लासभा की सीधी भागीदारी व मशविरा का अधिकार, प्रदूषण से बचाव का अधिकार ऐसे कानून हो सकते हैं, जिस पर अबतक देश में व्यापक बहस नहीं छिड़ सकी है.
मौजूदा व्यवस्था में कई राज्यों में ऐसे प्रावधान हैं, जिसके तहत आप निर्वाचित शासन इकाई की सबसे पहले प्रमुख मुखिया को उसके पद से वापस बुला सकते हैं. यानी अगर किसी पंचायत की जनता अपने क्षेत्र में किसी को मुखिया चुनती है और एक समय के बाद वह महसूस करती है कि पंचायत के विकास में लोगों की समस्या को सुनने व सुलझाने में उसका महत्वपूर्ण योगदान नहीं रहा तो जनता मतदान प्रक्रिया के तहत उसे पद से वापस बुला सकती है.
इस व्यवस्था का विस्तार विधायक व सांसदों के निर्वाचन में क्यों नहीं किया जा सकता? हां, विधानसभा या लोकसभा की निर्वाचन इकाई बड़ी होती है, इसलिए वहां इस तरह की व्यवस्था बनाने में तकनीकी दिक्कतें आयेंगी, पर इस तरह के व्यवस्था को प्रभावी बनाने के लिए विधानसभा या संसद एक कानून के माध्यम से ऐसी व्यवस्था बना सकती है. हमारे यहां अदालतों में मामले लंबे समय तक चलते हैं. लोगों को साधारण मामलों का कानून सम्मत ढंग से अदालत से समाधान पाने में वर्षों लग जाते हैं.
इसका बड़ा कारण न्यायपालिका के ही लोग बार-बार अदालतों पर क्षमता से अधिक मुकदमों के बोझ को बताते हैं. ऐसे में यह सरकार की जिम्मेवारी हैं कि वह एक ऐसा तंत्र बनाये जिससे अलग-अलग तरह के मामलों में तय समय सीमा के अंदर फैसले आयें. हमारे संविधान के नीति निदेशक तत्व में कहा गया है कि हर नागरिक को सभी का समान न्याय मिले और उसे नि:शुल्क विधिक सहायता भी मिले, ताकि वह न्याय से वंचित नहीं रह जाये. जबकि आज भी आम आदमी को ससमय न्याय पाने में दिक्कतें हो रही हैं.
लोकसभा न विधानसभा, सबसे ऊंची ग्रामसभा का लाख नारा लगाने के बाद भी हमारे यहां सरकार द्वारा स्थानीय स्तर पर योजनाओं को लागू करने में फिलहाल ग्रामसभा और मुहल्लासभा की कोई सक्रिय भागीदारी नहीं है. नीतिगत मामलों को अगर छोड़ भी दिये जायें तो ऐसी योजनाएं जो स्थानीय लोगों से जुड़ी हैं, उनमें ग्रामसभा व मुहल्लासभा को महत्व दिया जाना चाहिए. हमारे देश में प्रदूषण को लेकर स्पष्ट मानक नहीं हैं.
शहरों में वाहनों की बढ़ी संख्या व औद्योगिक के कारण प्रदूषण होना तो जगजाहिर है, लेकिन गांवों में वहां स्थापित औद्योगिक इकाई के द्वारा तय मानक से कई गुणा अधिक और खतरनाक किस्म का प्रदूषण फैलाने के कारण वहां के लोगों के जीवन पर खतरा उत्पन्न हो रहा है. यह एक तरह से जीने का अधिकार छीनने की तरह है. इसके खिलाफ भी संघर्ष की जरूरत है, ताकि लोगों की जिंदगी से अधिक महत्वपूर्ण किसी का आर्थिक लाभ नहीं हो. जब हम स्वच्छ वातावरण की मांग करते हैं तो इसमें सिर्फ हवा ही नहीं, बल्कि मिट्टी और पानी भी आता है. संविधान में उल्लेखित मौलिक कर्तव्य में भी स्वच्छ पर्यावरण बनाये रखने की चर्चा है.

