-रजनीश आनंद-
माहवारी एक औरत की जिंदगी की सहज प्रक्रिया है और एक सामान्य बात है जिससे सभी वाकिफ हैं. लेकिन समाज में व्याप्त धारणाओं के कारण इसे एक रहस्यमयी प्रक्रिया बना दिया गया है जिसका खामियाजा अकसर किशोरियों को भुगतना पड़ता है.
शहरी और ग्रामीण इलाके की किशोरियों कई बार इसके कारण अपमान भी झेलती हैं. शहरी इलाकों में ‘कोएड एजुकेशन’ वाले स्कूलों में कई बार लड़कियां अपमानित होती हैं. माहवारी के दिनों में वे ड्रिप्रेशन की शिकार तक हो जाती हैं और कई बार स्कूल जाने से बचती भी हैं.
रांची के एक प्रतिष्ठित स्कूल की कक्षा सात की एक छात्रा का कहना है – हमें पैड बदलने के लिए जाना पड़ता है, तो लड़के ‘टीज’ करते हैं. वे हमें ऐसी कमेंट देते हैं कि अच्छा हो गया तुम्हें, जाओ-जाओ पैड बदलो. क्लास में ऐसी कमेंट सुनकर कई बार रोने का मन करता है. मैं तो पीरियड्स के समय स्कूल जाना नहीं जाती, कम से कम तीन दिन तक. सबसे बुरी स्थिति तो तब हो जाती है, जब अचानक पीरियड्स आ जाये और हमारे पास पैड ना हो. कपड़े में खून लग जाने पर सब हंसते हैं और टीचर उलटा हमें ही सुना देती हैं कि पहले से पैड क्यों नहीं लेती. टॉयलेट में डस्टबिन भी नहीं होता, ऐसे में हमारे लिए पैड बदलना बहुत मुश्किल हो जाता है. एक बार एक लड़के ने मेरे बैग से पैड निकालकर उसे पूरी क्लास के सामने दिखाया तो मुझे रोना आ गया था.
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वहीं ग्रामीण इलाके की एक लड़की ने बताया कि वह स्कूल से वापस घर जा रही थी, तो उसका कपड़ा खुलकर गिर गया. इसपर वहां खड़े सभी लोग हंसने लगे और उसका मजाक उड़ाने लगे. साथ की लड़कियां भी उसे छोड़कर भाग गयी, तब मैंने रोते हुए कपड़ा उठाया और वहां से चली गयी. उस वक्त मुझे दुख हुआ था कि मैं लड़की क्यों हूं, अगर मैं लड़की नहीं होती तो मुझे माहवारी नहीं होती और मेरा इतना अपमान भी नहीं होता.
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गौरतलब है कि ग्रामीण इलाकों में इस तरह की घटनाएं आम हैं. कारण यह है कि लड़कियां आज भी माहवारी के दौरान पुराने तरीके से कपड़ा इस्तेमाल करती हैं. पैंटी का प्रयोग ग्रामीण इलाके में लड़कियां नहीं करती हैं इसलिए उन्हें कई बार अपमान झेलना पड़ता है. ग्रामीण इलाकों के स्कूलों में शौचालय की उचित व्यवस्था ना होने के कारण कई बार लड़कियां माहवारी के समय स्कूल नहीं जातीं या फिर स्कूल जाना ही छोड़ देती हैं. माहवारी के कारण भी स्कूलों से ड्रॉपआउट होता है. स्कूलों में पैड का वितरण अबतक फ्री नहीं पाया है, जिसके कारण लड़कियां परेशान रहतीं हैं
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हालांकि आजकल कई स्कूलों ने आगे बढ़कर इस मामले में कदम उठाये हैं, ताकि किशोरियों को परेशानी ना हो और लड़कों को भी समझाया जाता है कि माहवारी एक सहज प्रक्रिया है. ब्रिजफोर्ड स्कूल की वरिष्ठ शिक्षिका मुक्ति शाहदेव ने बताया कि हमारे स्कूल में एक फूलटाइम नर्स है जो बच्चियों को पैड उपलब्ध कराती है, साथ ही हम टीचर्स भी रखते हैं अपने पास. इसके अतिरिक्त स्कर्ट की भी व्यवस्था होती है, ताकि जरूरत पड़ने पर उसे बदलवा दिया जाये. किशोरियों को भी सलाह दी जाती है कि वे अपने बैग में रखें.
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सुझाव दिया है कि 25 लड़कियों पर एक टॉयलेट होना चाहिए. लेकिन कई स्कूलों में इस मानक की अनदेखी होती है. सीबीएसई के गाइडलाइन की भी स्कूल अवहेलना कर देते हैं. शौचालय में साबुन की उचित व्यवस्था नहीं होती है. जिसके कारण किशोरियां परेशान रहती हैं.