रविशंकर उपाध्याय
पटना : थंका कला परंपरागत कला के रूप में बनाये जाने वाले थंका चित्रों पर आधारित है. तीसरी से बारहवीं शताब्दी में विकसित बौद्ध धर्म के तांत्रिक कॉन्सेप्ट से परिचित कराने वाली यह कला बेहद खास मानी जाती है. थंका चित्र सामाजिक, धार्मिक तथा वैश्विक तीनों रूपों में महत्वपूर्ण होते हैं. थंका, तिब्बती बौद्ध चित्र है जो कि सूती, रेशमी कपड़े पर बनायी जाती है. इनके विषय सामान्यत: बौद्ध देवी देवता, दृश्य तथा मंडल होते हैं. इन चित्रों की परंपरा का संबंध पूर्व मध्यकाल से ही तांत्रिक बौद्ध धर्म या बज्रयान संप्रदाय से रहा है.
थंका चित्रों का उपयोग शिक्षण हेतु एक महत्वपूर्ण माध्यम से रूप में होता आया है जिसमें बुद्ध, कुछ प्रभावशाली लामाओं तथा बोधिसत्वों की जीवन से संंबंधित कहानियों की झलक होती है. थंका एक तिब्बती शब्द है जिसका अर्थ होता है वस्तु जो अंतहीन है. थंका कला की जड़े बिहार क्षेत्र से मानी जाती है. यह कला यहां से उत्पन्न होकर संपूर्ण विश्व में प्रसारित हुई. इनके प्रचार-प्रसार कर श्रेय लामाओं को जाता है.
वरिष्ठ कला समीक्षक सुमन सिंह कहते हैं कि इससे जुड़ी कुछ कहानियां या किंवदंतियां हैं. मगध सम्राट बिंबिसार के समय में यह कला परंपरा मगध में विद्यमान थी किंतु इससे जुड़ा कोई प्रमाणिक साक्ष्य सामने नहीं आ पाया है लेकिन हां गुप्तकाल में भित्तिचित्रण के साथ साथ पुस्तकों व पोथियों की रचना के क्रम में इनपर चित्र बनाने का जिक्र अवश्य मिलता है. किंतु जहां भित्तिचित्रण के प्रमाण के तौर पर हमारे पास अजंता के गुफाचित्र आज भी मौजूद हैं. वहीं लघुचित्रों की बात की जाये तो इसके प्रमाणस्वरूप पालकालीन चित्रांकन के साक्ष्य मौजूद हैं.
थंका से जुड़ी दो कहानियां और भी हैं मौजूद
सुमन सिंह इससे जुड़ी दो कहानियां और बताते हैं. उनमें से एक है कि बुद्ध के शिष्य अनाथपिंडक ने अपनी पुत्री का विवाह लंका के तत्कालीन राजा से किया. इस विवाह के उपलक्ष्य में लंका के राजा ने अपने भारतीय समकक्ष को अनेकों बहुमूल्य उपहार भेजे. जब इसके प्रतिदान में भारत के राजा ने कुछ भेजना चाहा तो समस्या यह आ पड़ी कि आखिर क्या भेजा जाये? अंतत: यह निर्णय सामने आया कि भगवान बुद्ध की अनुमति से उनका चित्र बनवाकर भेजा जाये. भगवान बुद्ध द्वारा चित्रांकन की अनुमति मिलने के बाद राजा ने अपने चित्रकारों के एक दल को यह कार्य सौंपा किंतु अब एक दूसरी समस्या सामने आ गयी कि भगवान के चेहरे के तेजपुंज के सामने उन चित्रकारों की आंखें टिक नहीं पा रहीं थी. साथ ही उस आभा के सामने चित्रकारों के लिए अपने रेखांकनों को भी देख पाना संभव नहीं रह गया था। ऐसे में भला चित्रांकन कैसे हो पाता, अंत में इस समस्या का समाधान यह निकाला गया कि भगवान बुद्ध जब एक झील के किनारे खड़े होकर जल में अपना प्रतिबिंब निहार रहे थे तब उस प्रतिबिंब को निरख कर चित्रकारों के उस दल ने कपड़े पर भगवान बुद्ध का एक विशाल चित्र बनाया. इसके बाद अन्य उपहारों के साथ यह चित्र लंका भेजा गया, कुछ लोग वर्तमान थंका चित्रण को इसी परंपरा से जोड़ कर देखते हैं. वहीं कुछ इसे नेपाल से जोड़कर भी देखते हैं. छठवीं सदी के उत्तरार्द्ध में ल्हासा के एक मंदिर में चित्रांकन के लिए राजा गांपो के द्वारा नेपाल से चित्रकारों को बुलाया गया. बाद में तिब्बत के इस राजा यानी सांगस्तन गांपो की शादी लिच्छवी गणराज्य के राजा अंशु वर्मा की पुत्री भृकुटी से हुआ. तिब्बत में बौद्ध धर्म की शुरुआत का श्रेय इस राजा को दिया जाता है. समझा जाता है कि अपनी नेपाली और चीनी पत्नियों के प्रभाव में आकर इसने स्वयं बौद्ध धर्म को अपनाया और तिब्बत में उसका विस्तार भी किया.