हमारी जिंदगी सामान्य चल रही थी. एक दिन सुबह अचानक पुलिस स्टेशन से पापा के मौत की खबर मिली. बस उस दिन के बाद से अचानक जैसे सब बदल गया. उस वक्त मैं 10 साल और छोटी बहन महज 7 साल की थी. मेरी मां शर्मिली स्वभाव की एक घरेलू औरत थीं. शिक्षित होने के […]
हमारी जिंदगी सामान्य चल रही थी. एक दिन सुबह अचानक पुलिस स्टेशन से पापा के मौत की खबर मिली. बस उस दिन के बाद से अचानक जैसे सब बदल गया. उस वक्त मैं 10 साल और छोटी बहन महज 7 साल की थी. मेरी मां शर्मिली स्वभाव की एक घरेलू औरत थीं. शिक्षित होने के बावजूद उनमें बाहर निकल कर काम करने का कॉन्फिडेंस नहीं था. ऐसे में पापा की मौत ने हमे भावात्मक और आर्थिक दोनों तरह से कमजोर बना दिया. कुछ लोगों ने सलाह दी कि पापा की जगह अनुकंपा पर मां को नौकरी मिल सकती है. मगर, मां को तो उस वक्त नौकरी के लिए आवेदन लिखना भी नहीं आता था. उसने चाची से मदद मांगी, पर उन्होंने मना कर दिया. तब मां ने रवींद्रनाथ के ‘एकला चलो रे’ का सिद्धांत अपनाते हुए अकेले अपनी लड़ाई लड़ने का फैसला लिया.
करीब 11 वर्षों तक नौकरी पाने के लिए उन्हें केस भी लड़ना पड़ा. केस के सिलसिले में कई बार उसे देर रात तक वकीलों के पास रुकना पड़ता था. ऐसे में कुछ लोगों ने उसके चरित्र पर सवाल भी उठाये. कई बार उन्हें गंदी गालियां भी सुननी पड़ी, पर मां ने हम दोनों बहनों का भविष्य संवारने के लिए वह सब कुछ सहा.
धीरे-धीरे उनका आत्मविश्वास बढ़ा. वह चीजों को अपने तरीके से समझने-बूझने लगी. घर-गृहस्थी के साथ बाहरी काम भी संभालने लगी. अंतत पापा की ग्यारहवीं बरसी के दिन कोर्ट से मां की नियुक्ति का ऑर्डर आया. मां के अनुसार, अगर उस वक्त वह कमजोर पड़ जातीं, तो उनके बच्चे मजबूत नहीं बन पाते.
समाज भले ही हमारी मां को विधवा होने की वजह से अशुभ मानता हो, मगर हम दोनों बहनें चाहती हैं कि हमारी शादी की सारी रीति-रिवाज मां के हाथों से ही संपन्न हो.