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Badhaai Do Review: राजकुमार राव और भूमि पेंडेकर को सचमुच बधाई तो बनती है, पढ़ें पूरा फ़िल्म रिव्यू यहां…

Badhaai Do Review: बधाई दो फ़िल्म लैवेंडर मैरिज को सामने लेकर आती है. यह कहानी पुलिस ऑफिसर शार्दूल (राजकुमार राव) और पीटी टीचर सुमि (भूमि पेंडेकर) की कहानी है. जो समलैंगिक हैं लेकिन वह अपनी इस पहचान को समाज और घरवालों से छिपाए हुए हैं. परिवार वाले दोनों पर शादी का दबाव बनाते रहते हैं.

  • फ़िल्म – बधाई दो

  • निर्माता – जंगली पिचर्स

  • निर्देशक – हर्षवर्द्धन कुलकर्णी

  • कलाकार – राजकुमार राव,भूमि पेंडेकर, गुलशन देवैया,चुम दरंग,शीबा पांडे, सीमा पाहवा और अन्य

  • प्लेटफार्म – थिएटर

  • रेटिंग – 3/5

पिछले कुछ समय से बॉलीवुड के मेनस्ट्रीम सिनेमा में एलजीबिटीक्यू कम्युनिटी की कहानियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. हिंदी सिनेमा के पॉपुलर एक्टर्स इन कहानियों का चेहरा है. यह बात इन फिल्मों को और खास बना देती है. बधाई दो इसी की अगली कड़ी हैं लेकिन फ़िल्म का कांसेप्ट अलग है. जो पॉपुलर हिंदी सिनेमा से अछूता सा रहा है. यह फ़िल्म लैवेंडर मैरिज को सामने लेकर आती है. लैवेंडर मैरिज उस शादी को कहते हैं जिसमें एक गे लड़का और एक लेस्बियन लड़की परिवार और समाज में के दबाव में आकर एक दूसरे से शादी कर लेते हैं. फैमिली ड्रामे और कॉमेडी के बीच सामाजिक संदेश लिए ये फ़िल्म लैवेंडर मैरिज को बढ़ावा नहीं देती है बल्कि आखिर में यह बात रखती है कि कानून में समलैंगिक शादी को मान्यता नहीं है इस वजह से लैवेंडर मैरिज उनकी मर्जी नहीं मजबूरी है. कुलमिलाकर कुछ खामियों को नज़रअंदाज करें तो यह फ़िल्म एलजीबीटीक्यू समुदाय पर चल रही बातचीत को पूरी संवेदशीलता के साथ एक कदम आगे ले जाती है.

यह कहानी पुलिस ऑफिसर शार्दूल (राजकुमार राव) और पीटी टीचर सुमि (भूमि पेंडेकर) की कहानी है. जो समलैंगिक हैं लेकिन वह अपनी इस पहचान को समाज और घरवालों से छिपाए हुए हैं. परिवार वाले दोनों पर शादी का दबाव बनाते रहते हैं. पुलिस ऑफिसर शार्दूल को सुमि के समलैंगिक होने का पता चल जाता है. वह सुमि के सामने लैवेंडर मैरिज का प्रपोजल रखता है. जिसमे दोनों शादी के बाद भी अपने पसंदीदा पार्टनर्स के साथ ज़िन्दगी बीता सकते हैं. उन्हें अपनी सेक्सुअल चॉइस के साथ कोई समझौता नहीं करना पड़ेगा. दोनों समाज और परिवार वालो के नज़र में सिर्फ शादीशुदा रहेंगे. असल जिंदगी में दोनों बस रूममेट्स की तरह रहेंगे. क्या ये अपनी असलियत को छिपाकर नकली ज़िन्दगी जी पाएंगे. इनके परिवारों को जब यह मालूम होगा तो क्या कोहराम मचने वाला है. क्या उनमें अपने सच को स्वीकारने की हिम्मत आएगी या दोहरा जीवन जीते रहेंगे. इन सब सवालों के जवाब जानने के लिए आपको फ़िल्म देखनी होगी. फ़िल्म में शार्दूल और सुमि की अलग अलग प्रेम कहानी भी है.

फ़िल्म का ट्रीटमेंट बहुत हल्का फुल्का रखा गया है. लेकिन इसके बावजूद फ़िल्म दर्शकों को सोचने के लिए मजबूर करती है कि एलजीबीटीक्यू समुदाय को समाज में बराबरी का दर्जा पाने के लिए अभी लंबी लड़ाई और लड़नी है. समलैंगिक शादी को कब मान्यता मिलेगी. कानून ने क्यों अब तक एक गे या लेस्बियन कपल को बच्चे को कानूनी तौर पर गोद लेने से महरूम रखा है.

इस फ़िल्म के किरदारों से हर मिडिल क्लास परिवार रिलेट करेगा. जो पहले शादी करवाने के पीछे पड़े रहते हैं. शादी होने के बाद फिर फैमिली शुरू करने का प्रेशर बनाते रहते हैं. फ़िल्म का यह पहलू इसके मूड को हल्का कर गया है. फ़िल्म में सेम सेक्स रोमांस को बहुत ही खूबसूरती के साथ दर्शाया गया है. फ़िल्म की खूबियों में यह बात भी शामिल है कि रिमझिम का किरदार नार्थ ईस्ट की अभिनेत्री चुम ने निभाया है लेकिन फ़िल्म में इसका एक बार भी जिक्र नहीं हुआ है. यह फ़िल्म इस स्टीरियोटाइप को भी तोड़ती है.

फ़िल्म की खामियों की बात करें तो फ़िल्म शुरुआत में थोड़ी स्लो है।किरदारों को स्थापित करने में थोड़ा ज़्यादा समय लेती है. फ़िल्म की एडिटिंग में थोड़ा काम करने की ज़रूरत थी ।फ़िल्म का भावनात्मक पहलू भी थोड़ा कमज़ोर रह गया है. समलैंगिक समुदाय के दर्द को यह फ़िल्म बस कुछ संवादों में समेट गयी है. फ़िल्म का क्लाइमेक्स थोड़ा कमज़ोर रह गया है.

अभिनय की बात करें तो राजकुमार राव और भूमि अपने टॉप फॉर्म में है. विशेषकर राजकुमार अपने हाव भाव और संवाद अदायगी से दिल जीत ले जाते हैं. फ़िल्म के आखिर के इमोशनल सीन्स में भी वे काफी प्रभावी रहे हैं. फ़िल्म की सपोर्टिंग कास्टिंग जबरदस्त है. जो फ़िल्म की कहानी को बखूबी आगे बढ़ते हैं. इस भीड़ में फ़िल्म अभिनेत्री शीबा चड्ढा की तारीफ तो बनती है. सीमा पाहवा,चुम दरंग और गुलशन देवैया भी अपनी मौजूदगी से कहानी में अलग रंग भरते हैं.

गीत संगीत की बात करें तो वह पूरी तरह से कहानी के अनुरूप है. हम रंग है गाने को बहुत ही खूबसूरती के साथ फिल्माया गया है. यह एलजीबीटीक्यू कम्यूनिटी के लिए एंथम की तरह इस्तेमाल आने वाले वक्त में होने लगे तो हैरानी नहीं होगी. फ़िल्म की सिनेमेटोग्राफी विषय के साथ न्याय करती है. संवाद भी अच्छे बन पड़े हैं.

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