IIअभिजीत मुखोपाध्याय अर्थशास्त्री II
शुक्रवार से दुनियाभर के शेयर बाजारों में उथल-पुथल जारी है. अमेरिकी शेयर बाजार का प्रमुख सूचकांक डॉव जोंस भी इससे अछूता नहीं रहा. सोमवार को डाउ जोंस इंडस्ट्रियल एवरेज दोपहर के कारोबार में 1,600 अंकों तक टूट गया था और यह इसकी एक दिन में बड़ी गिरावट में रही. अगस्त, 2011 के बाद एक दिन के भीतर होने वाली यह सबसे बड़ी गिरावट रही.
जापान का निक्केई सूचकांक मंगलवार सुबह चार फीसदी गिरावट के साथ खुला, जबकि आस्ट्रेलिया का एसएंडपी/ एएसएक्स में तीन फीसदी की गिरावट रही. भारत में भी सुबह 9.44 बजे सेंसेक्स 930 अंकों की गिरावट के साथ 33,827 पर, जबकि निफ्टी 292 अंकों की गिरावट के साथ 10,373 अंक पर पहुंच गया. भारत में बजट के बाद शेयर बाजार में दो और पांच फरवरी यानी केवल दो कार्यदिवसों में निवेशकों के पांच लाख करोड़ रुपये डूब चुके हैं.
गिरावट या पटरी पर आने की जुगत
बीते दिसंबर में अमेरिका में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में 0.1 फीसदी बढ़ी थी. इसके साथ सूचकांक करीब एक साल में 2.1 फीसदी बढ़ा था. यह बड़ी खबर थी, क्योंकि 2008 के आर्थिक संकट के बाद से अमेरिकी बाजार में दाम मद्धम ही रहे थे. कभी-कभार बढ़त भी हुई, तो जल्दी ही कीमतें गिर भी गयीं. चूंकि मूल्य स्तर के नीचे रहने को आम तौर पर अर्थव्यवस्था की जड़ता समझा गया था, इसलिए मूल्यों में बढ़त को सकारात्मक संकेत माना गया है. कुछ विशेषज्ञ तो मानते हैं कि अर्थव्यवस्था बेहतरी की राह पर है. जनवरी में वेतनमान युक्त रोजगार भी दो लाख बढ़ा है तथा बेरोजगारी दर भी पूर्ववत 4.1 फीसदी रही है.
ऐसे सकारात्मक रुझानों को देखते हुए ऐसा अनुमान लगाया जाने लगा है कि अब अमेरिका ब्याज दर बढ़ा सकता है. कम ब्याज दर सैद्धांतिक रूप से निवेश को बढ़ावा देता है, पर यदि ठोस अर्थव्यवस्था नहीं है, तो धन वित्तीय बाजार का रुख कर लेता है. अक्सर यह बाजार स्टॉक मार्केट होता है, जहां जल्दी मुनाफा कमाया जा सकता है. इससे शेयरों में उछाल आता है, पर असली अर्थव्यवस्था जड़वत ही बनी रहती है. अब अमेरिकी निवेशकों को लगता है कि कम ब्याज के आसान धन का समय गुजर रहा है, तो वे अपने पैसे शेयर बाजार से निकाल रहे हैं.
चूंकि दुनियाभर के वित्तीय बाजार कमोबेश एक-दूसरे से जुड़े हैं, इसलिए अमेरिकी बाजार में गिरावट का असर भारतीय बाजार पर भी हुआ है. लेकिन, उभरती हुई अर्थव्यवस्था होने के कारण भारत के मामले में एक कारक और भी महत्वपूर्ण है. आम तौर पर अमेरिका और विकसित देशों के विदेशी संस्थागत निवेशक भारत जैसे बाजारों का रुख तभी करते हैं, जब वहां ब्याज दर कम होता है. जब दरें बढ़ती हैं, तो उभरती अर्थव्यवस्थाओं से पैसा निकालकर वे लौट जाते हैं. अभी जो गिरावट हो रही है, संभवतः उसका एक कारण यह भी है. बजट में वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा प्रस्तावित लॉन्ग टर्म कैपिटल गेंस टैक्स ने भी एक भूमिका निभायी है.
तो, इस पृष्ठभूमि में कुछ दिनों में बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज ने करीब 13 सौ प्वाइंट्स गंवा दिया है और मीडिया शोर मचा रहा है कि ‘इतना धन लुट गया.’ मान लें, अगर किसी कंपनी का स्टॉक एक सप्ताह पहले हजार रुपये पर था और अब गिरावट के बाद 700 रह गया है, तो निवेशक को लगता है कि उसका नुकसान हो गया. पर, सच यह है कि हकीकत में कुछ नहीं बदला है और यदि कंपनी हफ्तेभर पहले फायदेमंद थी, तो अब भी वैसी ही बनी हुई है.
स्टॉक मार्केट में उथल-पुथल अर्थव्यवस्था की कुछ खामियों की ओर इंगित अवश्य कर सकता है, लेकिन ऐसा तभी होगा जब समस्या लंबे समय तक रहे. अन्य स्थितियों में ऐसे उतार-चढ़ाव होते ही रहते हैं. हालांकि, इस बड़ी गिरावट पर ध्यान देना जरूरी है, परंतु यह शेयरों के भाव में सुधार का एक रूप भी हो सकता है. यह भी उल्लेखनीय है कि गिरते भाव के समय कुछ लोग शेयर खरीदने के लिए उतावले हो जाते हैं, पर सावधान रहना आवश्यक है, जैसा कि एक पुरानी कहावत में कहा गया है- ‘गिरते हुए चाकू को पकड़ने की कोशिश मत करो.’
पीटर गार्नरी ने पहले ही दी थी चेतावनी
दुनियाभर की सरकारें और अर्थशास्त्री करीब दो सप्ताह पहले जब क्रिप्टोकरेंसी में उछाल के बारे में लोगों को आगाह कर रहे थे, पीटर गार्नरी ने उसी दौर में अलग तरह की चेतावनी दी थी.
सेक्सो बैंक के क्वांटिटेटिव स्ट्रेटजीज के हेड पीटर ने उस वक्त कहा था कि पहली तिमाही के उत्तरार्ध में स्टॉक मार्केट में बड़ा बदलाव आ सकता है. हालांकि, पीटर गार्नरी ने इसका सटीक समय नहीं बताया था, लेकिन जो चेतावनी उन्होंने दी थी, वह इक्विटी मार्केट में अब दिख रही है. हालांकि, उन्होंने पूर्व में मार्केट की सर्वाधिक ऊंचाई के मुकाबले इसके 10 फीसदी तक गिरावट आने की आशंका जतायी थी. लेकिन अब उनका कहना है कि मौजूदा गिरावट अमेरिकी अर्थव्यवस्था में हुए बदलावों के कारण आयी है. पीटर कहते हैं, हमारा मानना है कि यह इक्विटी बाजारों में एक स्वस्थ सुधार है, लेकिन यह भी कम समय तक ही है, क्योंकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था में अब सुधार के संकेत हैं.
कब-कब धराशायी हुआ स्टाॅक मार्केट
वर्ष 1997 में 29 सितंबर को भारतीय शेयर बाजार में 1,961 अंकों की गिरावट दर्ज हुई थी. यह अपने समय की बड़ी गिरावट मानी जाती है.
वर्ष 2006 में 22 मई को भारतीय शेयर बाजार में 1,111 अंकों की गिरावट देखी गयी.
2007 में 17 अक्तूबर को शेयर बाजार 1,744 अंक नीचे आया.
वर्ष 2008 भारतीय शेयर बाजार के लिए बेहद खराब रहा. अमेरिकी मंदी के प्रभाव के कारण जनवरी 21 को भारतीय शेयर बाजार में 2,062 अंक और 22 को 2,273 अंक की गिरावट दर्ज की गयी. इस वर्ष सात बार ऐसा हुआ, जब सेंसेक्स में 1,000 से अधिक अंकों की गिरावट आयी.
2015 के 24 अगस्त को शेयर बाजार 1,741 अंक नीचे आया.
वर्ष 2016 में 24 जून को जहां सेंसेक्स 1,090 अंक टूटा, वहीं 11 नवंबर को इसमें 1,689 अंकों की बड़ी गिरावट देखी गयी.
1992 का स्टॉक मार्केट घोटाला
वर्ष 1992 स्टॉक मार्केट में हुए घोटाले के रूप में जाना जाता है. शेयर ब्रोकर हर्षद मेहता द्वारा किये गये हजारों करोड़ के घोटाले के सामने आने के कारण 6 अगस्त को शेयर बाजार 72 प्रतिशत नीच आकर बुरी तरह धराशायी हुआ था. इससे स्टॉक एक्सचेंज दो साल तक प्रभावित रहा था.
गिरावट के प्रमुख भारतीय कारक
विशेषज्ञों ने इसके अनेक कारण बताये हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं :
विदेशों में ब्याज दरों में गिरावट के कारण विदेशी शेयर बाजार प्रभावित हुए, जिसका असर भारत पर पड़ा है.
वित्त मंत्री ने दीर्घकालिक कैपिटल गेन पर टैक्स का नया नियम बताया है, उससे बाजार प्रभावित हुआ है. यदि शेयरधारक एक साल तक शेयर रखता है, तो मौजूदा समय में कैपिटल गेन (एलसीटीजी) पर टैक्स नहीं है.
एलसीटीजी से यह भी चिंता हो गयी है कि क्या इससे अब विदेशी निवेशक भारतीय इक्विटी में निवेश करेंगे या नहीं. इससे शेयर बाजार पर विपरीत असर पड़ना तय है.
वर्ष 2014 से शेयर बाजारों में 94 अरब डॉलर का विदेशी निवेश हुआ है. नये नियम के हिसाब से अब विदेशी संस्थागत निवेशकों को आय पर टैक्स देना होगा. इस कारण सबसे ज्यादा असर हुआ है.
बाजारों में िगरावट क्यों
फिलिप इनमैन आर्थिक संपादक ऑब्जर्वर
कुछ हफ्तों से अर्थशास्त्री और विश्लेषक आगाह करते रहे हैं कि दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में मुद्रास्फीति का स्तर 2-3 फीसदी से ऊपर जा सकता है. दो-तीन फीसदी की दर को केंद्रीय बैंक विकसित अर्थव्यवस्थाओं के लिए अच्छा मानते हैं. आधिकारिक अमेरिकी आंकड़ों ने इन चिंताओं को बीते शुक्रवार को बिकवाली में बदल दिया, जब उन्होंने सूचित किया कि अमेरिका में औसत वेतन वृद्धि 2.9 फीसदी के दर तक पहुंच गयी है.
इससे चिंता पैदा हुई कि कीमतें बढ़ जायेंगी. ब्याज दर बढ़ाने का दबाव भी बढ़ा, ताकि अर्थव्यवस्था को भरोसा दिलाया जा सके. निवेशकों ने अंदाजा लगाया कि उपभोक्ताओं और कंपनियों को खर्च करने के लिए प्रोत्साहित करनेवाले सस्ते धन का दौर खत्म होगा. फेडरल रिजर्व के कुछ सदस्यों ने कहा कि ब्याज दर में इस साल तीन चरणों में चौथाई-चौथाई फीसदी की वृद्धि चार बार भी हो सकती है.
जारी रह सकता है संकट
इस बात के पूरे रुझान हैं कि अमेरिकी आर्थिक आंकड़े मजबूत होंगे और इससे उच्च ब्याज दरों की संभावना बढ़ेगी. क्रिसमस से पहले कांग्रेस द्वारा मंजूर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कर सुधार विधेयक के कारण अमेरिकी अर्थव्यवस्था में एक ट्रिलियन डॉलर से अधिक का निवेश होगा, जिसका अधिकांश हिस्सा कॉरपोरेट टैक्स में कमी के रूप में होगा. कई कंपनियों ने इस बचत का एक भाग अपने कामगारों को देने का वचन दिया है. दशकों से थमे वेतन में 2018 और 2019 में वृद्धि केंद्रीय बैंक पर असर डालने के लिहाज से मामूली है, परंतु निवेशक अंदाजा लगा रहे हैं कि ब्याज दरें बढ़ेंगी. इसका परिणाम स्टॉक मार्केट में उथल-पुथल के जारी रहने के रूप में हो सकता है.
वैश्विक अर्थव्यवस्था पर असर
अनेक उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं ने डॉलर में बहुत कर्ज लिया है और ब्याज दर बढ़ने से उन पर दबाव बढ़ेगा. दूसरी तरफ, बढ़ती अमेरिकी अर्थव्यवस्था उन देशों से अधिक निर्यात करेगी, जिससे विकासशील देशों में आय बढ़ेगी. हालांकि, यूरोजोन की अपनी हालत में बेहतरी से पहले ब्याज दरों में वृद्धि की संभावना नहीं दिख रही है. इसका मतलब यह है कि डॉलर के मुकाबले यूरो की कीमत बढ़ती रहेगी और इससे अमेरिका को निर्यात करने में यूरोपीय देशों की मुश्किलें बढ़ेंगी.
(द गार्डियन में छपे लेख का अनुदित अंश, साभार)
मुद्रास्फीति क्या है और क्यों है अहम
जब कीमतें बढ़ती हैं, तो उस स्थिति को मुद्रास्फीति कहते हैं. यदि मुद्रास्फीति 10 फीसदी है, तो 50 रुपये की चीज एक साल में 55 रुपये की और उसके अगले साल 60.50 रुपये की हो जायेगी. मुद्रास्फीति वेतन और बचत का नुकसान करती है.
यदि 10 फीसदी मुद्रास्फीति की दर है और आपको बचत पर 10 फीसदी का ब्याज मिल रहा है, तो इसका मतलब यह है कि असल में शून्य ब्याज हासिल हो रहा है. विश्व अर्थव्यवस्था में देर से आये इस तत्व ने 1960 के दशक से सरकारों को चिंतित कर रखा है. एक सामान्य नियम है कि अधिक मुद्रास्फीति कर्ज लेनेवाले के लिए अच्छी तथा निवेशक के लिए बुरी होती है. यदि आप कुछ गिरवी रखते हैं, तो 10 फीसदी की दर से सात सालों में उस वस्तु की असली कीमत आधी रह जाती है.
एक निर्धारित आय पर बसर करनेवाले पेंशनर अपनी संपत्ति की कीमत कम होते देखने के लिए मजबूर होते हैं. सरकारें मुद्रास्फीति की दर निर्धारित करने और केंद्रीय बैंक ब्याज दर तय करने में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक को आधार बनाते हैं. खुदरा मूल्य सूचकांक का इस्तेमाल आम तौर पर वेतन या पारिश्रमिक निर्धारित करने में किया जाता है.
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