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जड़ों से जुड़ने की जद्दोजहद

पिछली सदी में 1960 के आसपास बलराज साहनी की एक फिल्म आयी थी दो बीघा जमीन. ये उस वक्त का आईना थी. इसमें किसान कड़ी मेहनत कर अपने छोटे भाई को पढ़ा-लिखा कर शहर में नौकरी करने भेजता है, लेकिन जब वह किसान खुद बुरे वक्त में होता है, तो शहरी भाई उसे भूल जाता है. 21वीं सदी के कोरोना संकट काल में यह उलट हो गया है. शहरी भाई शहरों में गलीज जिंदगी बसर कर अपने गांव को समृद्ध करता है और जब मुसीबत में घर लौटता है, तो गांव वाला भाई उसे दुश्मन मान बैठता है.

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पिछली सदी में 1960 के आसपास बलराज साहनी की एक फिल्म आयी थी दो बीघा जमीन. ये उस वक्त का आईना थी. इसमें किसान कड़ी मेहनत कर अपने छोटे भाई को पढ़ा-लिखा कर शहर में नौकरी करने भेजता है, लेकिन जब वह किसान खुद बुरे वक्त में होता है, तो शहरी भाई उसे भूल जाता है. 21वीं सदी के कोरोना संकट काल में यह उलट हो गया है. शहरी भाई शहरों में गलीज जिंदगी बसर कर अपने गांव को समृद्ध करता है और जब मुसीबत में घर लौटता है, तो गांव वाला भाई उसे दुश्मन मान बैठता है.

ऐसे ही एक शहरी भाई राम प्रसाद (50 वर्ष) इस मुसीबत में बड़ी उम्मीद लिए अपने गांव लौटे. बिहार के एक सुदूर गांव से 25 साल पहले रोजी- रोजगार की तलाश में वे सूरत (गुजरात) गये थे. एक फैक्टरी में गांव के परिचित ने उन्हें काम दिलाया था. राम प्रसाद हर महीने लगभग 20 से 25 हजार की कमाई कर लेते हैं. परिवार में पत्नी व दो बच्चे हैं. ये जिस पृष्ठभूमि से आते हैं, इनके लिए 20 से 25 हजार की कमाई बहुत मायने रखती है. तीन भाइयों और दो बहनों में राम प्रसाद दूसरे नंबर पर हैं. इनके पिताजी चार भाई थे और कुल पांच बीघा जमीन थी. चार कमरे के खपड़े के घर (मड़ई) में खेती-बारी व पशुपालन से बमुश्किल जीवकोपार्जन हो पाता था. कालांतर में चार भाइयों में बंटवारा हो गया.

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25 साल पहले इनके गांव में सिर्फ एक पक्का मकान था. राम प्रसाद उस घर के सामने से जब भी गुजरते थे, हर बार उनकी तमन्ना होती थी कि काश उनका भी पक्का घर होता. पिछले 25 साल से राम प्रसाद सूरत में हैं. पैसे कमा-कमा कर उन्होंने गांव में तीन कमरों का एक पक्का मकान बनवा दिया, जिसमें उनके दो भाई सपरिवार रहते हैं. बहनों की शादी भी राम प्रसाद ने ही करायी. वे रहते थे सूरत में, लेकिन मन गांव की मिट्टी से जुदा नहीं हो पाया था. हर साल वे बच्चों की गर्मी छुट्टियों में सपरिवार गांव आने की कोशिश करते थे. पूरे परिवार के लिए जरूरी सामान व कपड़े लाते थे.

मार्च के महीने में कोरोना के कारण फैक्ट्री में लॉकडाउन हो गया. मजदूरों व कर्मचारियों में अपने गांव जाने की अफरा- तफरी मच गयी. राम प्रसाद ने भी तय किया कि वे भी अपने गांव जायेंगे. वहां उनका अपना घर है. भरा- पूरा परिवार है. कड़ी मशक्कत के बाद वे सपरिवार अपने गांव तो लौट आये, लेकिन उनके भाइयों व परिवार के लोगों ने उन्हें घर में जगह देने से साफ इनकार कर दिया. राम प्रसाद आज सपरिवार गांव के पंचायत भवन में रहने को मजबूर हैं.

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ये किसी एक राम प्रसाद की कहानी नहीं है. ऐसे कई रामप्रसाद हैं, जिन्होंने शहर में 10 गुणा 10 स्क्वायर फीट के कमरे में अपना जीवन इस उम्मीद में गुजार दिया कि गांव में उनका व पूरे परिवार का रुतबा बढ़ेगा, लेकिन घर वापसी के बाद अपनों की हिकारत झेलनी पड़ रही है कि कहीं वे अपना हिस्सा तो मांगने नहीं आ गये.

गांव से निकले लोगों ने गांव की तस्वीर बदली है. कोई केरल, पंजाब से निकलकर दुबई, कनाडा गया तो कोई बिहार, झारखंड व उत्तर प्रदेश से निकलकर महानगरों की ओर रुख किया. हर महीने पैसे भेज कर सिर्फ अपने परिवार का नहीं, बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को समृद्ध किया, लेकिन आज जब ये अपनी जड़ों की तरफ लौट रहे हैं, तो इन्हें एहसास हो रहा है कि जिन जड़ों पर उन्हें नाज था, वे अब कमजोर हो चुकी हैं.

शायद लोग भूल चुके हैं कि जो 1800 किलोमीटर पैदल चल कर, 1200 किलोमीटर अपने पिता को साइकिल पर बैठा कर, बैलगाड़ी के एक तरफ खुद को जोत कर घर वापसी कर सकता है, वो राख से फिर आग पैदा करने की भी ताकत रखता है. बिल्कुल दो बीघा जमीन के नायक बलराज साहनी की तरह. जो झुका तो है, लेकिन टूटा नहीं है. जिसे आज भी अपनी भुजाओं पर भरोसा है. उसके आगे तो दुनिया नतमस्तक है.

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