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सब्जियों के नाम संस्कृत में, रांची सब्जी मंडी – जहां मुसलिम दे रहे हैं संस्कृत को बढ़ावा

रांची : सामान्य बोलचाल से गायब हो चुकी संस्कृत अब सिर्फ कर्मकांडों की भाषा बनकर रह गयी है, लेकिन अब इस प्राचीन भाषा को आम लोगों के दैनिक जीवन के व्यवहार में लाने के कई प्रयास किये जा रहे हैं. रांची के बेहद व्यस्तम इलाके बहू बाजार की सब्जी मंडी में आपको सब्जी के नाम […]

रांची : सामान्य बोलचाल से गायब हो चुकी संस्कृत अब सिर्फ कर्मकांडों की भाषा बनकर रह गयी है, लेकिन अब इस प्राचीन भाषा को आम लोगों के दैनिक जीवन के व्यवहार में लाने के कई प्रयास किये जा रहे हैं. रांची के बेहद व्यस्तम इलाके बहू बाजार की सब्जी मंडी में आपको सब्जी के नाम संस्कृत में मिल जायेंगे. दुकानदार भी यदा – कदा संस्कृत में बोलते नजर आते हैं. अचानक से आये इस बदलाव को देखकर आप चौंक जायेंगे, लेकिन इस अनूठे प्रयास के पीछे एक लंबी कहानी है.

संस्कृत की प्रचार – प्रसार से जुड़ी ‘संस्कृत भारती’ ने देशभर में इस तरह का व्यापक अभियान चलाया है. इस अभियान से जुड़ा एक और पहलू है जिसे जान आपको भारत के साझा मूल्यों के विरासत का अहसास होगा. जिन दुकानों में संस्कृत को बढ़ावा मिल रहा है, उन सब्जी दुकानों को मुसलमान चलाते हैं.
‘संस्कृत भारती’ से जुड़कर रांची में काम कर रहे पृथ्वीराज बताते हैं कि वह मूलत : अमेठी के रहनेवाले हैं लेकिन संस्कृत भाषा का प्रचार – प्रसार का काम उनके लिए किसी जुनून से कम नहीं है. संस्कृत क्यों जानना चाहिए ? इस सवाल के जवाब में पृथ्वीराज बताते है कि संस्कृत भारत की सभ्यता को समझने के लिए चाभी का काम करती है. इसके बिना भारतीयता के ज्ञान का दरवाजा खुल नहीं सकता है. देश की सभ्यता और समाज को समझना है तो यह भाषा जरूर जाननी चाहिए. पृथ्वीराज रांची के सरला – बिरला स्कूल में संस्कृत के अध्यापक है लेकिन उनका खाली समय संस्कृत के जिज्ञासुओं के बीच बीतता है. रोचक बात यह है कि उनके इस क्लास में गृहणी से लेकर मैनेजमेंट प्रोफेशनल्स भी आते हैं.
रांची के सब्जी मंडी व श्रृंगार की दुकानों में जब उन्होंने इस भाषा के इस्तेमाल के बारे में सोचा तो सब्जी विक्रेता शफीक खान तो कुछ देर के लिए असमंजस में पड़ गये लेकिन उन्होंने कहा ‘ यह तो ज्ञान का विषय है, जो लोग नहीं जानते हैं, वह विवाद खड़ा करेंगे. ज्ञान कभी भी किसी का जीवन खराब नहीं कर सकता. बहू बाजार में राजू खान एक और सब्जी विक्रेता है, जिन्हें इस बात से कोई समस्या नहीं है.
पृथ्वीराज ने बताया कि उन्होंने आइआइटी कानपुर के करीब 500 छात्रों को अपने इस अभियान से जोड़ रखा हैं. कुछ सालों पहले जब वह वहां गये थे तो वहां के छात्रों में भी इस भाषा को लेकर सहज जिज्ञासा था. वहां अब भी संस्कृत की भाषा जानने – समझने वाले बच्चों की समूह है, जो नये बैच के वैसे छात्रों को जोड़ते हैं जिन्हे इस भाषा को जानने की दिलचस्पी है. पृथ्वीराज के मुताबिक भारत जैसे विशाल देश की संस्कृति, समाज और चिंतन इस भाषा से प्रभावित होती है. ऐसे में यह जानना जरूरी है.
Prabhat Khabar Digital Desk
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