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चेन्नई बाढ़ : एक मानव निर्मित त्रासदी

चेन्नई की बाढ़ जलवायु परिवर्तन के गंभीर परिणामों का एक भयावह उदाहरण तो है ही, इससे हुई तबाही ने मानव समाज की खतरनाक गलतियों के नतीजों को भी रेखांकित किया है. हाल के वर्षों में उत्तराखंड, कश्मीर समेत देश के विभिन्न इलाकों में बाढ़ की त्रासदी का कहर लगातार बढ़ा है. तेज शहरीकरण और विकास […]

चेन्नई की बाढ़ जलवायु परिवर्तन के गंभीर परिणामों का एक भयावह उदाहरण तो है ही, इससे हुई तबाही ने मानव समाज की खतरनाक गलतियों के नतीजों को भी रेखांकित किया है.
हाल के वर्षों में उत्तराखंड, कश्मीर समेत देश के विभिन्न इलाकों में बाढ़ की त्रासदी का कहर लगातार बढ़ा है. तेज शहरीकरण और विकास की आपाधापी में सरकार और समाज प्राकृतिक तंत्रों को बेतहाशा बरबाद कर रहे हैं. नदियां और ताल-तलैया स्वाभाविक निकास के रास्तों के जरिये अतिरिक्त बारिश के पानी को समेट लेने की क्षमता रखते हैं.
पर, शहरों के विस्तार ने इन जल निकायों, रास्तों और संग्रहण क्षेत्र पर बस्तियां बसा दीं. लचर प्रशासनिक प्रबंधन, नेताओं-अफसरों के भ्रष्टाचार, बिल्डरों की लालच और समाज की लापरवाही ने कोई वैकल्पिक व्यवस्था करना भी आवश्यक नहीं समझा. ऐसे में आपदा के लिए प्रकृति को दोष देना बेमानी है. चेन्नई त्रासदी के इन पहलुओं पर केंद्रित आज का समय…
दुनू रॉय
निदेशक, हजार्ड सेंटर
अकसर वैज्ञानिक हमें चेताते रहते हैं कि धरती का तापमान बढ़ रहा है. उनके आकलन के मुताबिक, पिछले सौ वर्षों में औसत वैश्विक तापमान में कमोबेश एक डिग्री की बढ़ोतरी हुई है. सिर्फ एक डिग्री! हमारे देश में गर्मियों में तापमान 40-45 डिग्री पर पहुंच जाता है, और सर्दियों में 4-5 डिग्री तक गिर जाता है, और इसे हम बखूबी झेलते हैं. ऐसे में वैश्विक तापमान में महज एक डिग्री की बढ़ोतरी हमारे लिए कितना मायने रखती है, यह शोध का विषय है.
लेकिन, इतना जरूर है कि महज एक डिग्री वैश्विक तापमान के बढ़ने से एक वक्त में कितनी बारिश होगी या नहीं होगी, यह बता पाना थोड़ी मुश्किल है. आप अगर गौर करें, कोई भी प्राकृतिक घटना होती है, तो लोग कहते हैं कि यह मौसम में बदलाव के कारण हुई है.
मैं समझता हूं कि यह कहना उतना सही नहीं है और अगर जलवायु परिवर्तन की व्याख्या हमें करनी है, तो थोड़ी दूर-दृष्टि अपनानी होगी. प्राकृतिक आपदाएं अगर जलवायु परिवर्तन से जुड़ी हुई हैं, तो इसके लिए हम अकेले कुछ भी नहीं कर सकते, न कोई शहर इससे बचने के लिए कुछ कर सकता है और न ही कोई देश कुछ कर सकता है. जलवायु परिवर्तन के लिए पूरे विश्व को एकजुट होना पड़ेगा और खास तौर से विकसित देशों को इसकी जिम्मेदारी लेनी होगी, जिनका इस तापमान को बढ़ाने में सबसे ज्यादा योगदान है.
अर्बन प्लानिंग (नगरीकरण) को लेकर देश में गंभीरता से सोचना होगा, तभी हम चैन्नई जैसी विभीषिका से लड़ पायेंगे. और बात सिर्फ चेन्नई की नहीं है, बल्कि पूरे देश की शहरी व्यवस्था की है, जहां महज कुछ मिनटों की बारिश में पूरा शहर परेशान हो जाता है, उसकी गलियां पानी से भर जाती हैं.
अगर चेन्नई जैसी बारिश देश के हर बड़े शहर में हो, तो चेन्नई जैसी स्थिति उनकी भी होगी. देश का हर बड़ा शहर या तो समंदर के किनारे बसा हुआ है या फिर नदियों और तटों पर बसा हुआ है. यह बहुत ही स्वाभािवक है, क्योंकि बिना नदी के कोई शहर जी नहीं सकता. व्यापार भी उसी समंदर या नदी के द्वारा ही होता आया है और पानी का स्रोत भी नदी ही है. हमें कई तरह के मूलभूत साधन नदियों से ही मिलते हैं.
ऐसे में हमें अपने नगरीकरण की व्यवस्था करते हुए नदियों का बहाव, बारिश और बाढ़ से पैदा होनेवाली विभीषिका को ध्यान में रख कर ही कोई प्लानिंग करनी चाहिए. अफसोस है कि देश में ऐसा नहीं हो रहा है, जिसका खामियाजा चेन्नई त्रासदी के रूप में हमारे सामने है.
हमारा देश ट्रॉपिकल देश है- यानी मॉनसून के साथ जीनेवाला देश. ऐसे देशों में बारिश हर महीने या हमेशा नहीं होती, बल्कि एक निर्धारित समय के हिसाब से साल में तीन महीने के अंतराल में ही होती है. उसमें भी तीन महीने लगातार नहीं होती, 20-30 दिन ही भारी बारिश होती है.
इसका अर्थ यह हुआ कि नदियों के पानी की मात्रा भी उसी बारिश के हिसाब से घटेगी या बढ़ेगी. नदी फैलेगी, फिर संकुचित होगी, फिर फैलेगी और यह प्रक्रिया लगातार चलती रहती है. दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि नदी जब पहाड़ों से आती है, तो उसकी गति तेज होती है और खूब मिट्टी, रेत, कंकड़-पत्थर आदि लेकर आती है. जब वह मैदान में पहुंचती है, तब उसकी गति धीमी हो जाती है और फिर जैसे-जैसे वह नदी फैलती है, वैसे-वैसे अपने साथ लायी मिट्टी, रेत, कंकड़-पत्थर आदि को वहीं पाटती जाती है.
यानी पहाड़ से मिट्टी लाकर नीचे मैदान में पाट कर नदी एक प्रकार से जमीन बनाने के बाद समंदर में लौट जाती है. जब वह लौटती है, तो उस जमीन पर जगह-जगह बड़े-बड़े गड्ढे यानी तालाब छोड़ जाती है. चेन्नई शहर उसी पटी हुई जमीन पर बसा हुआ है. जाहिर है कि अब उस पटी हुई जमीन पर नदी दोबारा आयेगी, तो अपना फैलाव ढूंढेगी. जाहिर है, जब उसे फैलाव नहीं मिलेगा, तो वह शहर को ही डुबोयेगी.
नदियों के किनारे बसे तकरीबन हर शहर का यही किस्सा है. चेन्नई में यह स्थिति थोड़ी ज्यादा विकराल है, क्योंकि वहां पर यह पाटन बिल्कुल साफ दिखता है. दिल्ली, लखनऊ जैसे शहरों में यह उतना साफ नहीं दिखता है. लेकिन, पहले जमाने में भी यमुना, गोमती, कोसी आदि नदियां भी अगल-बगल की जमीनों को पाटते हुए गंगा में जाकर मिल जाती थीं. कहने का अर्थ यह है कि अगर इस पटी हुई जमीन को कोई बिगाड़ेगा या उस पर कोई निर्माण-कार्य करेगा, तो नदी की प्रकृति में व्यवधान आयेगा. यानी हम लोग नदी को वह काम करने से रोक रहे हैं, जो उसका प्राकृतिक चरित्र है.
जब नदी की प्रकृति में व्यवधान आयेगा, तो उसका रूप विकराल होगा और उसका खामियाजा हमें भुगतना ही होगा. यह केवल बिल्डर की बात नहीं है कि उसने पोखर के ऊपर बिल्डिंग बना दी, बल्कि बाकायदा सरकारी तौर पर वहां सड़क बन जाती है, तटबंध बन जाता है, नदियों पर बांध बना दिया जाता है. इसके लिए सबसे बड़ा जिम्मेदार सरकारें हैं, क्योंकि बिल्डरों के कुछ मकान बनाने भर से कोई शहर नहीं बनता है. मकान बनाने की अनुमति सरकार देती है, तभी मकान बनाये जाते हैं.
और जब मकान बनने लगते हैं, तो उनमें रहनेवालों के लिए सड़क, बिजली, पानी जैसी मूलभूत चीजों की व्यवस्था करनी पड़ती है. अब इन व्यवस्थाओं में शहर के अधिकारी, प्रशासन, बिल्डर अपना हित साधने के लिए सांठगांठ करते हैं और बहुत सी प्राकृतिक चीजों की अनदेखी करते हैं, जिससे कि शहर प्राकृतिक आपदाओं को झेल पाने में असमर्थ हो जाता है.
चेन्नई की नगरीय व्यवस्था और उससे उपजी इस विभीषिका से हमें सबक सीखने की जरूरत है. इसके लिए तीन महत्वपूर्ण सबक हैं और कोई नये सबक नहीं हैं, हम इसे अच्छी तरह से जानते हैं.
सौ साल पहले इंजीनियर इसको पढ़ते-समझते थे, लेकिन आज पूंजीवादी व्यवस्था के चलते अपने व्यापारिक हित साधने के लिए निर्माण-व्यवस्था में लगे लोग इसे अनसुनी कर देते हैं. पहला सबक तो यह है कि पानी अपना रास्ता खुद बनाता है. उस रास्ते के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए. दूसरा यह कि पानी अलग-अलग मौसम में अलग-अलग तरह से रास्ता बनाता है.
उसका कोई एक रास्ता नहीं है. इसलिए आप ऐसा नहीं कर सकते कि पानी के बनाये जानेवाले रास्ते का आपने औसत निकाल लिया और उसके मुताबिक अपना निर्माण कार्य कर लिया. पानी द्वारा रास्ता बनाने का एक रेंज है, एक फैलाव है, उसमें भी न्यूनतम और अधिकतम फैलाव को देखना होगा कि कोई नदी अपने पानी द्वारा कितना फैलाव करती है. इन दोनों चीजों को लेकर समझना होगा, औसत का लेकर आप नहीं चल सकते. तीसरा और आखिरी सबक यह है कि पानी के बहाव के साथ आप काम कीजिए, बहाव के विपरीत नहीं. आज के इंजीनियरों को इन तीन सबक को अच्छी तरह से याद कर लेना चाहिए, ताकि वे निर्माण करते समय प्रकृति के विरुद्ध काम न करें.
जहां कहीं भी प्रकृति की अनदेखी होगी, उसे बाधा पहुंचायी जायेगी, तो वह भी अपनी प्रतिबद्धता पूरी करने के लिए विध्वंसक रूप धारण करेगी.
जब अंगरेज पहले-पहल भारत में आये, तो उनमें एक सर ऑर्थर कॉटन थे, जो अंगरेजों के सबसे बड़े इंजीनियर माने जाते हैं. कॉटन अपने एक लेख में लिखते हैं कि रेतीली जमीन पर ईंट का ढांचा बनाना हमने हिंदुस्तानियों से ही सीखा है.
इसका मतलब तो यह हुआ कि अंगरेजों को यह कला नहीं मालूम थी, बल्कि यहां के लोगों को यह कला मालूम थी. लेकिन इस कला के मालूम होने के बावजूद हिंदुस्तानियों ने उस समय तक किसी भी नदी के प्रवाह में रेतीली जमीन पर ईंट का बांध नहीं बनाया.
हिंदुस्तानी जानते थे कि नदी के प्रवाह को रोकने से भारी नुकसान होगा. अंगरेज चूंकि इस देश में रहते नहीं थे और उन्हें इस देश की प्रकृति, संस्कृति, परंपरा, मौसम और कला के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, इसलिए कहां ईंट का बांध बनाना चाहिए और कहां नहीं, वे समझ नहीं पाये. हमने उनके पदचिन्हों पर चलने लगे और आज नतीजा यह है कि अपनी जरा सी भी समझ का इस्तेमाल नहीं करते और बेतरतीब नगरीकरण करते जा रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप चेन्नई, मुंबई में बारिश से शहर पूरी तरह से थम जाता है.
जिन तीन सबकों की हमने चर्चा की, वे कोई पुरातन ज्ञान परंपरा के सबक नहीं है, बल्कि आज के आधुनिक विज्ञान के ही हैं, लेकिन फिर भी हम इसके विपरीत काम कर रहे हैं. सबक किसे कहते हैं, इसे हम बनारस के घाटों की बनावट से सीख सकते हैं.
बनारस में जहां काशी नरेश रहते हैं, उधर की तरफ घाट नहीं बनाये गये हैं, बल्कि दूसरी तरफ यानी इस पार बनाये गये हैं. इसके पीछे कारण है. उस जमाने की परंपरा के लोगों ने यह समझ लिया था कि इस पार में गंगा भले ही जमीन को काटती रहती है, लेकिन वह फैलती नहीं है. गंगा काशी की तरफ फैलती है, इसलिए उन्होंने काशी की ओर गंगा को फैलने के लिए जगह छोड़ दी.
और इस पार, जहां थोड़ा ऊंचा था, जिसको गंगा काटती थी, उस कटाव से बचने के लिए वहां घाट बना दिये गये. यही कारण है कि गंगा कभी बनारस में कोई विभीषिका नहीं ला सकती है, क्योंकि उसका पानी बाधित नहीं होता है.
कुल मिला कर चेन्नई की त्रासदी ने हमें एक बड़ी सीख दी है कि हम अपनी नगरीय व्यवस्था को किस तरह से संयमित बनायें, ताकि प्रकृति के क्रिया-कलाप बाधित न हों. खास तौर से, अब स्मार्ट सिटी बनाने का दौर है. स्मार्ट सिटी बनाने में ऊपर के तीन सबकों को ध्यान में रखा गया, तो यह न सिर्फ उस शहर के लिए बेहतर होगा, बल्कि प्रकृति के लिए भी बेहतर होगा.
इसके लिए हमें अपनी इंजीनियरिंग की शिक्षा-व्यवस्था में अपनी पारंपरिक और प्राकृतिक ज्ञान परंपरा को शामिल कर इंजीनियरिंग के छात्रों में ऐसी समझदारी पैदा करनी होगी, ताकि वे आनेवाले समय में ऐसे शहरों का निर्माण करें, जो प्रकृति के अनुकूल हो. अगर ऐसा हुआ, तो ही हम चेन्नई बाढ़ जैसी विभीषिका को उपजने से रोक सकते हैं.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
प्रशासनिक लापरवाही का भयानक परिणाम
श्रीसन वैंकटेश एवं सुष्मिता सेनगुप्ता
लेखकद्वय पर्यावरण शोध संस्था
सीएसइ से जुड़े हैं
नवंबर महीने में चेन्नई में हुई भारी बारिश से शहर ठहर गया. भारतीय मौसम विभाग के अनुसार, 11 नवंबर से 18 नवंबर के बीच शहर में 449.9 मिलीमीटर बारिश हुई, जो सामान्य बारिश 104 मिलीमीटर से 329 फीसदी अधिक है. इस समय देश में वर्षा उत्तर-पूर्व मॉनसून के कारण होती है.
लेकिन इस साल दो अलग कारणों और चक्रवाती मंदी के कारण वर्षा की तीव्रता अधिक रही. इस कारण नवंबर, 9 से 14 और नवंबर, 15 से 17 के बीच तेज बारिश हुई. जब तक सरकार बाढ़ के हालात को काबू में करती, तब तक 79 लोगों की जान जा चुकी थी.
हालांकि, सरकार लगातार कहती रही है िक शहर में अप्रत्याशित बारिश हो रही है. लेकिन, इससे भारी बारिश से निबटने में सरकार की अक्षमता भी उजागर हो गयी. चेन्नई के साथ ऐसा नहीं होना चाहिए था, क्योंकि रेनवाटर हार्वेस्टिंग में यह अन्य भारतीय शहरों के लिए एक मॉडल है. वर्ष 1999-2000 में गंभीर सूखे का सामना करने के बाद सरकार ने वर्ष 2003 में सभी भवनों में रेनवाटर हार्वेस्टिंग को अनिवार्य बना दिया था. चेन्नई मेट्रोपोलिटन वाटर सप्लाइ और सीवेज बोर्ड ने इसे लोकप्रिय बनाने के लिए कई कदम उठाये.
शहर में स्टोर्म वाटर ड्रेन सिस्टम बनाया गया, ताकि भूजल के स्तर को भी बढ़ाया जा सके. शहर में मौजूद तालाब और झील को बेहतर बनाने का प्रयास किया गया, ताकि वर्षा के पानी इसमें जमा हो सके और भूजल के स्तर को बढ़ाया जा सका. कई प्राकृतिक नहरें और नाले सीधे शहर के दलदले क्षेत्र, जल-निकाय और कूम एवं अदियार नदी से जुड़े हैं. कूम नदी से अपने जल-संग्रहण क्षेत्र में 75 टैंक के अतिरिक्त पानी को जमा करने और अदियार से 450 टैंकों का अतिरिक्त पानी जमा करने की उम्मीद है.
ऐसा अनुमान था कि शहर 129 मिलियन क्यूबिक मीटर वर्षा के पानी की हार्वेस्टिंग करेगा. भौगोलिक तौर पर चेन्नई सीधा शहर है और यहां बेहतरीन ड्रेनेज सिस्टम होना चाहिए. प्राकृतिक और कृत्रिम ड्रेनेज को मिला कर कर ही चेन्नई को सूखा और बाढ़ से बचाया जा सकता है. ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार द्वारा की गयी कोशिशें सफल नहीं रही है.
सेंटर फॉर एनवयारमेंटल एंड वाटर रिसोर्स इंजीनियरिंग के मुताबिक, 1980 में चेन्नई में 600 जल-निकाय थे, लेकिन 2008 में जारी मास्टर प्लान के मुताबिक, केवल कुछ ही झील बेहतर हालत में हैं. राज्य के जल संसाधन विभाग के रिकाॅर्ड के मुताबिक, 19 झीलों को क्षेत्रफल- जो 1980 के दशक में 1,130 हेक्टेयर था- वह 2000 के दशक में घट कर 645 हेक्टेयर हो गया है. इससे इनकी स्टोरेज क्षमता में भारी कमी आयी है. नयी दिल्ली स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट आॅफ डिजास्टर मैनेजमेंट के अनिल कुमार गुप्ता का कहना है कि इस क्षेत्र में जल-निकाय पर लगभग 30 हजार झुग्गियां हैं. अतिरिक्त पानी ले जाने की क्षमता रखनेवाले नालों पर भी अवैध कब्जा हो गया है.
जर्मनी के यूनिवर्सिटी आॅफ फ्रेबर्ग के फिजिकल ज्योग्राफी विभाग और भारत के केयर अर्थ के संयुक्त शोध पत्र से पता चला है कि पल्लीकरनायी मार्स, जो वर्षा जल का संग्रहण का बड़ा स्रोत था, उस पर बड़े घर और सड़क बन गये हैं. मानव निर्मित नाले अकसर जाम हो जाते हैं. नेशनल इंस्टीट्यूट आफ डिजास्टर मैनेजमेंट के 2011 के अध्ययन के मुताबिक, चेन्नई में 2,847 किलोमीटर सड़कें हैं, लेकिन सिर्फ 855 किलोमीटर स्टॉर्मवाटर ड्रेनेज है. ऐसे में थोड़ी सी तेज बारिश से शहर में पानी भर जाता है. जबकि, पिछले सदी में शहर की आबादी 8 गुणा अधिक हो गयी.इतनी बड़ी आबादी के लिए शहर में ड्रेनेज सिस्टम नहीं है.
शहर में जल-निकाय, ड्रेनेज सिस्टम और हरित क्षेत्र की कमी से जाहिर होता है कि सरकार ने कभी भी बाढ प्रबंधन की ओर ध्यान नहीं दिया. लेकिन राज्य सरकार ने नदी सफाई और सीवेज इंफ्रास्ट्रक्चर पर बड़ी राशि खर्च की. सरकार ने 1998 में बाढ उन्मूलन योजना 300 करोड़ राशि से शुरू की. इसमें जल निकासी के रास्ते को साफ करना भी शामिल था. चेन्नई सिटी रिवर कंजरवेशन प्रोजेक्ट 2000 में 1,700 करोड़ रुपये की राशि से शुरू किया गया.
वर्ष 2009 में जेएनयूआरएम के तहत केंद्र सरकार ने 633 करोड़ रुपये आंवटित किया. वर्ष 2014 तक वहां की सरकार ने सिर्फ 394 करोड़ रुपये ही खर्च किया. कैग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि राज्य ने चेन्नई को बाढ़ से बचाने के पर्याप्त उपाय नहीं किये और इसके नियंत्रण की योजना में खामी है. नागरिकों ने जल-निकाय की रक्षा के लिए कई बार अदालत का दरवाजा खटखटाया.
वर्ष 2015 के सितंबर महीने में मद्रास हाइकोर्ट ने पल्लीकरनाइ झील के आसपास सभी अवैध कब्जे को हटाने का आदेश दिया था. तमिलनाडु प्रोटेक्शन आॅफ टैंक एंड इविक्शन आफ इक्रोचमेंट एक्ट 2007 जैसे कानून भी शहर में इसे रोक पाने में नाकाम साबित हो रहे हैं. कोर्ट के आदेश का क्रियान्वयन भी सही तरीके से नहीं हो पा रहा है. शहर को बाढ़ प्रबंधन के लिए एक समग्र योजना बनाने के साथ ही विभिन्न एजेंसियों के बीच बेहतर तालमेल के साथ काम करना होगा.
अन्ना विश्वविद्यालय के जियोलॉजी विभाग के प्रमुख इलांगो का कहना है कि बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों की मैंपिंग पहले ही की जा चुकी है, लेकिन यह पता नहीं है कि सरकार ने इस पर कोई कार्रवाई क्यों नहीं की. इन कदमों के अलावा सॉलिड वेस्ट और सीवेज सिस्टम का काम युद्ध स्तर पर करना होगा. शहरी क्षेत्र में जल-निकाय को बचाने के लिए कड़े कानून बनाने चाहिए. मौजूदा कानून नाकाफी हैं.
(साभार : डाउन टू अर्थ)
हमने बार-बार इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाया है कि दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, चेन्नई, श्रीनगर आदि शहरों में प्राकृतिक जल निकायों की उपेक्षा की गयी है. चेन्नई की हर झील के पास बाढ़ के पानी के लिए प्राकृतिक चैनल हैं जो अतिरिक्त जल को समाहित कर लेते हैं.
लेकिन हमने बहुत-से ऐसे जल निकायों पर भवन बना दिये हैं जिसे पानी का बहाव अवरुद्ध हो गया है. हमने जल-निकासी को कला को भुला दिया है. हम जमीन को निर्माण की जगह के रूप में देखते हैं, पानी के लिए नहीं. जल निकाय पानी की कमी वाले इस शहर में भू-जल को संरक्षित और बाढ़ का प्रबंधन करते हैं.
जब आप पूछते हैं कि इनके ऊपर निर्माण कार्य की अनुमति कैसे दी गयी, तो आपको असामान्य उत्तर मिलता हैः नगरपालिका भूमि कानूनों के अंतर्गत शायद ही दलदली जमीनों को दस्तावेजों में दर्ज किया जाता है, इस कारण किसी को भी उनके बारे में जानकारी नहीं होती है. योजना बनानेवालों को सिर्फ जमीन दिखती है, पानी नहीं नजर आता, और लालची बिल्डर उस पर कब्जा कर लेते हैं.
सुनीता नारायण
महानिदेशक, सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट

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