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गणतंत्र दिवस पर विशेष : समता का संकल्प और विषमता का राज

कृष्ण प्रताप सिंह हम भारत के लोग, भारत को संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता व अखंडता सुनिश्चित करने […]

कृष्ण प्रताप सिंह
हम भारत के लोग, भारत को संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता व अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए…
गणतंत्र दिवस के अवसर पर स्वाभाविक ही है कि 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा द्वारा अंगीकृत, अधिनियमित व आत्मार्पित और 26 जनवरी, 1950 से लागू देश के संविधान की इन शब्दों से शुरू होने वाली प्रस्तावना फिर से याद की जाये. नागरिकता कानून में ‘भेदभावकारी’ संशोधन से पीड़ित तबके तो खैर महीने भर पहले से इसका पाठ करते आ रहे हैं. लेकिन इस सबका तब तक शायद ही कोई अर्थ हो, जब तक इस कड़वे सच का सामना न किया जाये कि फिलहाल देश को जिन आर्थिक नीतियों पर बिना आगा-पीछा सोचे सरपट दौड़ाया जा रहा है, वे समता, स्वतंत्रता और न्याय के हमारे संवैधानिक संकल्प की विलोम बन गयी हैं.
बात समझने के लिए दावोस में वल्र्ड इकोनाॅमिक फोरम की 50वीं सालाना बैठक से पूर्व आक्सफैम द्वारा जारी ‘टाइम टु केयर’ अध्ययन पर एक नजर डाल लेना ही पर्याप्त है. यह अध्ययन कहता है कि इन नीतियों के चलते देष के संसाधनों का ऐसा संकेंद्रण हो चला है कि एक प्रतिशत अमीरों के पास 70 प्रतिशत गरीबों से चार गुना ज्यादा दौलत इकट्ठा हो गयी है. यह तब है जब संविधान ने ऐसे संकेंद्रण की साफ-साफ मनाही कर रखी है.
इतना ही नहीं, 63 अरबपतियों के पास केंद्र सरकार के सालाना आम बजट से चौगुना धन है. तिस पर नाना प्रकार के परिवर्तित हथकंडों से किये जा रहे शोषण का हाल ऐसा है कि एक घरेलू कामकाजी महिला अपनी कई जिंदगियां खपाकर भी किसी टेक कंपनी के सीईओ की एक साल की कमाई जितना भी अर्जित नहीं कर पाती. टेक सीईओ हर सेकेंड एक सौ से ज्यादा रुपये कमाता है और उसकी दस मिनट की कमाई किसी घरेलू कामगार की एक साल की कमाई से ज्यादा हो जाती है.
गौरतलब है कि समतामूलक समाज की अवधारणा को मुंह चिढ़ाने वाला यह अध्ययन तब आया है, जब हम अपने अब तक के सबसे कठिन गणतंत्र दिवस के सामने हैं. गण का एक हिस्सा संविधान बचाने के लिए धरने व प्रदर्शन को विवश है तो सरकार तानाशाहों की तरह जिद पर अड़कर एलान कर रही है कि वे कुछ भी कर लें, मनमानी की उसकी राह नहीं बदलने वाली. यों, पिछले गणतंत्र दिवसों से पहले आये आक्सफेम के अध्ययनों में भी समता की प्रतिष्ठा वाले तथ्य नहीं ही थे. वे भी यही प्रमाणित करते थे कि जिसे हम गणतंत्र कहते आ रहे हैं, वह तेजी अमीरों के तंत्र में बदल रहा है और सभी तरह की स्वतंत्रताओं व इंसाफों की साझा दुश्मन आर्थिक विषमता अपनी हद में रहने को तैयार नहीं है.
लेेकिन आज स्थिति इस मायने में ज्यादा विषम हो गयी है कि जहां सरकारी आंकड़ों में गरीबों की संख्या तक विवादास्पद बना दी गयी है, वहीं, संसद में उनका प्रतिनिधित्व शून्य हो गया है. साफ है कि समता का संवैधानिक सपना हमें तो क्या खुद को भी नहीं बचा पा रहा. कह सकते हैं कि यह अनर्थ भूमंडलीकरण की वर्चस्ववादी नीतियों से पोषित हमारी अर्थनीति का ऐसा ‘करिश्मा’ है, जो देश के गरीबों के ही नहीं, धनकुबेरों के प्रतिद्वंद्वियों के लिए भी किसी हादसे से कम नहीं है.
क्योंकि इन कुबेरों ने यह बढ़त कठिन परिश्रम व नवाचार से नहीं बल्कि संरक्षण, एकाधिकार, विरासत और सरकारों के साथ सांठगांठ के बूते करचोरी, श्रमिकों के अधिकारों के हनन और ऑटोमेशन की राह चलकर बेहद अनैतिक ढंग से पायी है.
यह इस अर्थनीति की निष्फलता का भी द्योतक है, क्योंकि इन कुबेरों द्वारा संपत्ति में ढाल ली गयी पूंजी अंततः अर्थतंत्र से बाहर होकर पूरी तरह अनुत्पादक हो जानी है और उसे इस तथ्य से कोई फर्क नहीं पड़ना कि देश की जीडीपी वृद्धि दर किस तरह धड़ाम हो रही है. ऐसे में गरीबों की बेहद खतरनाक परिस्थितियों में भी ज्यादा देर तक काम करने और अधिकारों के बिना गुजर-बसर करने को मजबूर रहने की त्रासदी भी बनी ही रहनी है. वे भोजन तथा इलाज जैसी बुनियादी जरूरतों के मोहताज रहने ही रहने हैं.
नरेंद्र मोदी सरकार और उसके समर्थक इस कड़वी हकीकत से सिर्फ इस प्रतिप्रश्न की बिना पर अपनी लज्जा ढक सकते हैं कि क्या यह स्थिति 2014 में उनकी सत्ता के बाद अचानक पैदा हुई है? सीधा जवाब है-नहीं. इसमें पूर्ववर्ती सरकारों, विशेषकर मनमोहन सिंह के राज का भी योगदान है ही, जिन्हें देश में भूमंडलीकरण की नीतियों का प्रवर्तक माना जाता है. लेकिन देश न सिर्फ उन्हें बल्कि उनकी पार्टी को भी उनके किये की सजा सुना चुका है और उसे नये सत्ताधीशों से, जो अब उतने नये भी नहीं रह गये हैं, अपने नये सवालों के जवाबों की दरकार है.
इनमें सबसे पहला सवाल यह कि अपनी बारी में उन्होंने कोढ़ में खाज पैदा किया है या नहीं? उन्हें याद है कि नहीं कि मतदाताओं ने उनको इस वायदे पर चुना था कि वे परंपरा बनते जा रहे उनके शोषणों और दुर्दशाओं का एकमुश्त खात्मा करेंगे? याद है तो अपने शातिराने या काहिली को छिपाने के लिए ‘कांग्रेस राज’ की दुहाई क्यों देते आ रहे हैं?
यह क्या कि वे हमारे संवैधानिक संकल्पों को संविधान की पोथियों में भी चैन से नहीं रहने दे रहे और यह कुतर्क भी दे रहे हैं कि गैरबराबरी का भस्मासुर तो दुनिया भर की लोकतांत्रिक शक्तियों के सिर पर हाथ रखने के फेर में है या कि उसने दुनिया को इस तरह अपनी मुट्ठी में कर लिया है कि गरीबों के लिए दुनिया को मुट्ठी में करने के सपने का अर्थ झांसे का शिकार होना भर रह गया है?
फिर यह क्यों नहीं बताते कि जहां कई अन्य छोटे-बड़े देशों ने भूमंडलीकरण के अनर्थों को पहचानना और उनसे निपटने के प्रतिरक्षात्मक उपाय करना शुरू कर दिया है, वे उस पर कतई किसी पुनर्विचार को राजी क्यों नहीं हैं?
आखिर वे ‘हृदयहीन’ पूंजी को ब्रह्म और ‘श्रम के शोषक’ मुनाफे को मोक्ष मानकर ‘सहृदय’ मनुष्य को संसाधन की तरह संचालित करने वाली अर्थनीतियों के लिए अपनी सारी लोकतांत्रिक-सामाजिक नैतिकताओं, गुणों व मूल्यों की बलि कब तक देते रहेंगे? अगर इस गणतंत्र के सात दशकों का सबसे बड़ा हासिल यह एक प्रतिशत की अमीरी ही है तो बाकी 99 प्रतिशत के लिए इसके मायने क्या हैं? समता के सपने और विषमता के राज के बीच इन 99 प्रतिशत को कब तक अपने ही देश में अपने मन और मूल्यों की जगह का मोहताज रहना पड़ेगा?

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