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झारखंडी भाषाओं की पीड़ा हताशा और उम्मीदें

दीपक सवाल उलगुलान के महानायक बिरसा मुंडा ने जिस ‘अबुआ दिशुम-अबुआ राज’ की बात कही थी, वह अबुआ भाषाओं की संपन्नता के बगैर हकीकत में नहीं बदल सकती. सच कहें तो अबुआ भाषा, यानी झारखंडी भाषाएं ही यहां की मूल पहचान है. इसे पृथक कर झारखंड की मूल पहचान न तो बरक़रार रखी जा सकती […]

दीपक सवाल

उलगुलान के महानायक बिरसा मुंडा ने जिस ‘अबुआ दिशुम-अबुआ राज’ की बात कही थी, वह अबुआ भाषाओं की संपन्नता के बगैर हकीकत में नहीं बदल सकती. सच कहें तो अबुआ भाषा, यानी झारखंडी भाषाएं ही यहां की मूल पहचान है. इसे पृथक कर झारखंड की मूल पहचान न तो बरक़रार रखी जा सकती है, और न ही झारखंडी जन-मानस के अनुरूप विकास की संपूर्ण अवधारणा जमीं पर उतर सकती है. झारखंड अब बीस बसंत यह देख चुका है. कई सरकारें इस अवधि में तरह-तरह के वादे-इरादे लेकर आई और गई. पर इन बीस वर्षों में अमूमन सभी झारखंडी भाषाओं का हश्र और उनकी पीड़ा एक जैसी दिखी है. खोरठा भाषा के संदर्भ में भी हम बहुत-कुछ जान व समझ सकते हैं.

खोरठा की बात करें तो एक मायने में इसकी स्थिति ‘जड़विहीन बरगद’ की तरह है. वह इस मायने में कि कक्षा नवम से लेकर स्नातकोत्तर और उससे भी आगे पीएचडी तक करने की सुविधा अथवा प्रावधान तो खोरठा भाषा में उपलब्ध है. लेकिन, प्राथमिक कक्षाओं में इसकी पढ़ाई आज-तक शुरू नहीं हो पाई है. यह कैसे नीति? जड़ को मजबूत किए बिना पेड़ कितना फलेगा-फूलेगा?

द्वितीय राज-भाषा का सैद्धांतिक दर्जा तो मिला, पर व्यावहारिक तौर पर इसकी मजबूती अथवा इसे स्थापित करने के लिए आज-तक ठोस सरकारी पहल नहीं हो पाई. 2003 में अर्जुन मुंडा की सरकार में प्राथमिक शिक्षा की मान्यता मिल चुकी है, लेकिन वह अब-तक लागू नहीं हो पायी. यूनिसेफ तथा जनजातीय कल्याण शोध संस्थान के सहयोग से अांगबाड़ी के बच्चों के लिए भी किताब तैयार की गई और प्रकाशित भी हुई, लेकिन उसका उपयोग आज तक नहीं हो सका है.

खोरठा समेत अन्य झारखंडी भाषाओं को कार्यालयी भाषा या प्रयोजनमूलक भाषा बनाने के लिए भी व्यवस्थित तरीके से काम करने की दरकार है.

‘भाषा एकेडमी’ का गठन कर इस दिशा में ठोस काम किया जा सकता है. स्थानीय भाषाओं के मामले में व्यावहारिक तौर पर आगे नहीं बढ़ने का खामियाजा उन्हीं झारखंडियों को उठाना पड़ रहा है. उदाहरणतः अदालती कार्रवाई का उल्लेख भी किया जा सकता है. अदालतों में सभी तरह की कार्रवाई अमूमन अंग्रेजी अथवा हिंदी में होती है.

विभिन्न केस-मुकदमों में फंसकर झारखंड के गांव-देहात से आने वाले हजारों या कहें लाखों ग्रामीण कोर्ट के कठघरे में खड़े होकर अपनी पीड़ा अथवा बात ठीक तरह से नहीं रख पाते. वे पूरी तरह से अधिवक्ता व भगवान भरोसे होते हैं. सरकार लिए अदालतों एवं सरकारी कार्यालयों में संबंधित क्षेत्र की झारखंडी भाषाओं से जुड़े अनुवादक रखकर झारखंडियों की इस मुश्किल को आसान कर सकती है.

इससे सरकारी कार्यालयों में लोग अपनी ‘मायकोरवा भाषा’ में आवेदन देकर अपनी बात भी बेबाकी से रख सकेंगे. अनुवादकों की नियुक्ति से भाषाई समस्या तो दूर होगी ही, बड़े पैमाने पर लोगों को रोजगार भी उपलब्ध हो सकेगा. झारखंड के रेलवे स्टेशनों में संबंधित क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषाओं में उद्घोषणा का कार्य भी कराया जा सकता है.

प्राथमिक स्तर पर स्कूलों में खोरठा समेत सभी झारखंडी भाषाओं की पढ़ाई शुरू करना नितांत आवश्यक है. इसके लिए सरकारी स्तर पर पुस्तकों का प्रकाशन एवं शिक्षकों की बहाली की दिशा में कदम उठाकर प्राथमिक स्तर पर इसे अमलीजामा पहनाया जा सकता है. वर्तमान में नवम कक्षा से खोरठा की पढ़ाई का प्रावधान है. हालांकि, किताबें और शिक्षक जैसी सुविधा यहां भी नदारद है. उच्च कक्षाओं में भी स्थिति कमोबेश ऐसी ही है.

स्नातक स्तर पर खोरठा भाषा से ऑनर्स करने का प्रावधान तो है, लेकिन शिक्षकों की नियमित सुविधा उपलब्ध नहीं है. हालांकि, बहुत सारी किताबें लिखी गई है और वह पाठ्यक्रमों में शामिल भी है, लेकिन उसकी कोई रॉयल्टी इसके लेखकों को नहीं मिलती.

कुछ मामलों में तो सरकार ने देकर भी छीनने जैसा कदम उठाया है. इससे स्थानीय भाषा-भाषियों को अधिक निराशा हुई है. उदाहरणतः, सिविल सर्विसेज की परीक्षाओं में जन-जातीय व क्षेत्रीय भाषाओं को शामिल कर उसमें 400 अंकों का प्रावधान किया गया था. 2012 में इसे घटाकर 150 अंक कर दिया गया. अगर इतने अंकों में भी इसे अनिवार्य कर दिया जाए, तब भी स्थानीय भाषा-भाषियों को इसका लाभ मिल सकता है, लेकिन इसके वैकल्पिक प्रावधान ने इनके बीच निराशा ही फैलाई है.

बोकारो के चास में करीब सवा करोड़ की लागत से ‘खोरठा भाषा अनुसंधान केंद्र’ का निर्माण तो हुआ, लेकिन इसकी स्थापना के मूल उद्देश्यों में अब तक कोई काम नहीं हुआ. उदघाटन के समय सरकार ने यह घोषणा की थी कि राज्य की सभी नौ भाषाओं में अलग-अलग जगहों पर संबंधित क्षेत्रों में इस तरह के केंद्र की स्थापना की जाएगी. दूसरी जगहों पर स्थापना की बात तो दूर, एक मात्र जो बना, वह भी सफेद हाथी ही साबित हुआ है.

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