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उत्सर्जन बंद हो तो मौसम सामान्य हो

हिमांशु ठक्कर पर्यावरणविद् जलवायु परिवर्तन के बारे में बात करते हुए दुनियाभर के वैज्ञानिक यह भी बताते हैं कि उसका असर मौसम में बदलाव के रूप में देखा जाना स्वाभाविक है. कभी अत्यधिक सर्दी तो कभी अत्यधिक गर्मी या बाढ़ की विभीषिका, और बादलों का फटना आदि इन सब हालात का जिम्मेदार ग्लोबल वार्मिंग और […]

हिमांशु ठक्कर
पर्यावरणविद्
जलवायु परिवर्तन के बारे में बात करते हुए दुनियाभर के वैज्ञानिक यह भी बताते हैं कि उसका असर मौसम में बदलाव के रूप में देखा जाना स्वाभाविक है. कभी अत्यधिक सर्दी तो कभी अत्यधिक गर्मी या बाढ़ की विभीषिका, और बादलों का फटना आदि इन सब हालात का जिम्मेदार ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन ही हैं. मौसम में इस तरह के बदलाव को लेकर सिर्फ चिंता करने की ही नहीं, बल्कि ठोस कदम उठाने की जरूरत है.
ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में आग की वजह भी जलवायु परिवर्तन ही रहा है, हालांकि वहां के प्रधानमंत्री ने कहा कि इसका कारण ग्लोबल वार्मिंग नहीं है. इस बात पर लोग ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री की आलोचना कर रहे हैं, क्योंकि आज तक के इतिहास में ऑस्ट्रेलिया में कभी ऐसी भीषण आग नहीं देखी गयी थी.
मौसम वैज्ञानिकों का मानना है कि ऑस्ट्रेलिया जैसी हर घटना जलवायु परिवर्तन की पहचान है. जलवायु परिवर्तन में इतने सारे तथ्य हैं कि उनका विस्तार से अध्ययन किये बिना संभव ही नहीं है कि इस पर कुछ नियंत्रण हो सके.
मसलन, समुद्र के तापमान का भी असर होता है और हवा के तापमान का भी, जिससे बड़े-बड़े तूफान जन्म लेते हैं और बड़ी मात्रा में जान-माल का नुकसान करते हैं. बेमौसम बरसात या बादलों के फटने को भी जलवायु परिवर्तन से उपजी अप्रत्याशित घटना के मद्देनजर देखा जा सकता है.
कार्बन डाइऑक्साइड और मिथेन का उत्सर्जन जलवायु परिवर्तन की बड़ी वजह है. यानी एक ही उपाय है, वह है उत्सर्जन को कम करना या एकदम रोक देना.
साल 2015 में पेरिस समझौते में भी यही बात कही गयी थी कि अगर धरती के तापमान को और बढ़ने से रोकना है, तो इन गैसों का उत्सर्जन कम करने की कोशिश करनी होगी. हालांकि, वैज्ञानिक यह कह रहे हैं कि साल 2050 तक पूरी दुनिया से इन गैसों का उत्सर्जन पूरी तरह बंद हो जाना चाहिए. लेकिन, जो पर्यावरण कार्यकर्ता हैं, उनका मानना है कि यह 2030 तक ही खत्म हो जाना चाहिए, क्योंकि 2050 तक बहुत देर हो चुकी होगी.
और ऐसा नहीं है कि यह उत्सर्जन कम नहीं हो सकता. पिछले कई सालों से हम देख रहे हैं कि कोयले से बननेवाली बिजली का उत्पादन हम कम करते जा रहे हैं, क्योंकि अक्षय ऊर्जा, सोलर ऊर्जा और विंड एनर्जी से अब काफी मात्रा में बिजली बनने लगी है. बीस साल पहले किसी ने सोचा भी नहीं था कि ऐसा हो सकता है. इसलिए अगले दस साल का भी अगर हम लक्ष्य तय करें, तो निश्चित रूप से हम उत्सर्जन को पूरी तरह से बंद कर सकते हैं और जलवायु परिवर्तन की घटना को थाम सकते हैं.
इससे हम मौसम के अत्यधिक बदलाव से आसानी से बच सकते हैं. हमारा सपना अमेरिका जैसी जीवनशैली अपनाने की नहीं होनी चाहिए, क्योंकि वह ज्यादा समय तक टिकनेवाली नहीं है. हमारा सपनाें का आधार प्रकृति पर निर्भरता और उसके सीमित उपयोग पर टिका होना चाहिए, तभी संभव है कि हम जलवायु परिवर्तन के खतरों को कम कर सकेंगे और मौसम की असमय मार से बच सकते हैं.
Prabhat Khabar Digital Desk
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