दुनियाभर में एंटीबायोटिक दवाओं के अंधाधुंध सेवन से रोगाणुओं में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती जा रही है और दवाओं का असर खत्म होता जा रहा है. परिणामस्वरूप गंभीर बीमारियां लगातार बढ़ रही हैं. चूंकि, भारत में एंटीबायोटिक दवाओं की खपत सबसे ज्यादा है, इस वजह से इसके दुष्परिणाम भी भारत में सबसे ज्यादा दिखायी दे रहे हैं. ऐसे में, एंटीबायोटिक दवाओं के दुरुपयोग से बचने के उपाय ढूंढ़ने बहुत जरूरी हैं. इन्हीं सारी बातों के इर्द-गिर्द आज का इन डेप्थ…
डॉ एके अरुण
जन-स्वास्थ्य वैज्ञानिक
विशेषज्ञ की निगरानी में ही दवा लें
एंटीबायोटिक अथवा जीवाणुरोधी दवाओं के अंधाधुंध दुरुपयोग की खबरें अब आम हैं. इसके दुष्प्रभाव ने चिकित्सा विज्ञान के समक्ष कई चुनौतियां खड़ी कर दी हैं. पहली एंटीबायोटिक दवा ‘पेंसिलीन’ की खोज जब की गयी थी, तब इसे चिकित्सा जगत के लिए वरदान के रूप में देखा गया था.
उसके बाद तो कई नये और अलग-अलग समूह के एंटीबायोटिक्स सामने आये. दरअसल, एंटीबायोटिक दवाएं बैक्टीरिया या जीवाणु के खिलाफ कारगर मानी जाती हैं, लेकिन विभिन्न वायरस पर इसका कोई असर नहीं होता.
आजकल बैक्टीरिया हमारे चारों ओर मौजूद हैं. वातावरण में, हमारे मुंह, नाक की झिल्ली, त्वचा पर और आंतों तक में. हमारे शरीर की कुदरती प्रतिरोध क्षमता इन बैक्टीरिया से हमारी रक्षा करती है. लेकिन, जब हमारे शरीर की रोग प्रतिरोधी क्षमता कमजोर पड़ जाती है, तब हमारे शरीर में पहले से ही मौजूद बैक्टीरिया शरीर के किसी कमजोर स्थान पर पहुंचकर हमारे शरीर में संक्रमण फैलाने लगता है.
ये बैक्टीरिया तेजी से अपनी संख्या में वृद्धि करते हैं और उत्तकों, कोशिकाओं को तबाह करने लगते हैं. इन बैक्टीरिया के जहर खून के रास्ते हृदय, मस्तिष्क, फेफड़ों और गुर्दे जैसे शरीर के महत्वपूर्ण अंगों को प्रभावित करते हैं.
मसलन- बुखार, दर्द, सूजन आदि लक्षण शरीर पर आ जाते हैं. एंटीबायोटिक दवाएं- गोलियां, कैप्सूल्स, सीरप एवं इंजेक्शन के रूप में आती हैं. ये बैक्टीरिया को मार डालती हैं और उम्मीद की जाती है कि बैक्टीरिया के मर जाने के बाद शरी की प्रतिरक्षण क्षमता शरीर को ठीक कर लेती है.
आजकल देखा जा रहा है कि अधिकतर बैक्टीरिया तो एंटीबायोटिक्स दवाओं के खिलाफ प्रतिरोध विकसित कर चुके हैं. ऐसा एंटीबायोटिक्स दवाओं के अंधाधुन उपयोग से हो रहा है. समय के अनुसार, एंटीबायोटिक्स की कई पीढ़ी आयी और प्रभावहीन हुई और अब तो ब्राडस्पेक्ट्रम एंटीबायोटिक्स भी खतरे में हैं.
इसलिए एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग सावधानी से करना चाहिए. अब एंटीबायोटिक की तरह एंटीबैक्टीरियल दवाइयां भी प्रचलन में हैं. इनमें ‘सल्फाड्रग्स’ महत्वपूर्ण है. इसका उपयोग मुत्रमार्ग के संक्रमण, निमोनिया, टीबी, कुष्ठ रोग, पेट के रोगों आदि में किया जाता है.
एंटीबैक्टीरियल दवाइयां सूक्ष्मजीवों की वृद्धि और विकास को रोकती हैं. साथ ही इनके दुष्प्रभाव भी घातक हैं. इसलिए सलाह यह है कि अनावश्यक एंटीबायोटिक्स एवं एंटीबैक्टीरियल दवाओं के अंधाधुंध उपयोग से बचा जाये. इस काम में डॉक्टरों, स्वास्थ्य विशेषज्ञों और सरकारों को अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए, ताकि देश में इससे बढ़ते स्वास्थ्य खतरों को कम किया जा सके.
यदि किसी रोग में एंटीबायोटिक्स या एंटीबैक्टीरियल दवाओं का उपयोग अनिवार्य ही है, तो किसी विशेषज्ञ की निगरानी में इनका प्रयोग किया जाना चाहिए. साथ ही इलाज के दौरान जिगर, गुर्दे एवं रक्त की नियमित जांच होती रहनी चाहिए. ध्यान रहे, एमडीआर (मल्टी ड्रग रेजिस्टेंस) के अधिकांश मामले एंटीबायोटिक्स के दुरुपयोग से ही उत्पन्न हुए हैं और ‘सुपरबग’ के युग में एंटीबायोटिक्स का विवेकपूर्ण इस्तेमाल तो बेहद जरूरी है.
एंटीबायोटिक प्रतिरोध के कारण हर वर्ष 7 लाख बच्चों की मौत
रोग गतिशीलता अर्थशास्त्र और नीति केंद्र (सीडीडीईपी) के अनुसार, एंटीबायोटिक प्रतिरोध से उत्पन्न संक्रमण के कारण दुनिया में हर वर्ष 7 लाख बच्चों की मौतें हो रही है, जिसमें से अकेले भारत में लगभग 58,000 मौतें हो रही हैं.
एंटीबायोटिक का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल प्रतिरोधक क्षमता के जोखिम को बढ़ा रहा है. अध्ययन के अनुसार, एंटीमाइक्रोबिअल प्रतिरोधक क्षमता (एएमआर) की समस्या बेहद गंभीर रूप ले चुकी है. ब्रिटिश सरकार की साल 2017 में एंटीमाइक्रोबिअल प्रतिरोधक क्षमता संबंधी समीक्षा में सामने आया था कि वर्ष 2050 तक एएमआर से एशिया व अफ्रीका में 40 लाख, उत्तर अमेरिका में हर साल 317,000 और यूरोप में 390,000 लोगों की जान का जोखिम खड़ा हो जायेगा.
एंटीबायोटिक के प्रति प्रतिरोधी बैक्टीरिया के चलते आने वाले समय में कीमोथेरेपी, अंगों का प्रत्यारोपण आदि करना असंभव होता जायेगा और गॉनरिया, दिमागी बुखार और टायफाइड जैसे संक्रमण का भी इलाज संभव नहीं रह जायेगा. भारत के लिए यह स्थिति ज्यादा चिंताजनक है, क्योंकि पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा एंटीबायोटिक का इस्तेमाल भारत में हो रहा है.
लेंसेट की साल 2010 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में उस वक्त लगभग 1300 करोड़ यूनिट की खपत हो रही थी. वहीं, चीन में यह आंकड़ा लगभग 1000 करोड़ यूनिट और अमेरिका में लगभग 700 करोड़ यूनिट था. साल 2000 से 2015 के बीच दुनियाभर में एंटीबायोटिक्स की खपत में 65 फीसदी का इजाफा देखा गया है, वहीं मध्यम एवं गरीब आय वाले देशों में इसी अवधि में 114 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. भारत में एंटीबायोटिक्स की खपत में 103 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गयी है, जिससे एंटीबायोटिक्स प्रतिरोध में भी बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है.
विभिन्न अध्ययनों में यह भी सामने आया है कि डेयरी और मांस उद्योग में भी एंटीबायोटिक का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता है. अमेरिका में 80-90 प्रतिशत एंटीबायोटिक की खपत जानवरों के लिए की जाती है, जिससे उन्हें समय से पहले मोटा किया जा सके. वहीं रिपोर्ट के अनुसार, जीवाणु प्रतिरोध की विकृति चीन के सुअर फार्म से आयी है.
एंटीबायोटिक विभिन्न उद्योगों और घरों से निकलनेवाले गंदे पानी के माध्यम से वापस हमारे पीने के पानी में मिल जाता है, वहीं मांस व दूध के जरिये भी हमारे शरीर के भीतर पहुंच रहा है. कुल मिलाकर हम खतरनाक मात्रा में एंटीबायोटिक ले रहे हैं, जिसके दुष्परिणाम आनेवालों सालों में दिखायी देंगे.
ऐसा समय भी आ सकता है, जब कोई भी व्यक्ति दुकान से पेंसिलीन खरीद सकेगा. इसमें यह खतरा है कि अज्ञानी व्यक्ति आसानी से थोड़ी-थोड़ी मात्रा में इसका सेवन कर अपने रोगाणुओं/जीवाणुओं को इस दवा को लेकर प्रतिरोधी बना दे.
-अलेक्जेंडर फ्लेमिंग, पेंसिलीन के अाविष्कारक, 1945 में नोबेल पुरस्कार स्वीकार करते हुए.
एंटीबायोटिक क्या है?
एंटीबायोटिक मूलतः एक ग्रीक शब्द है, जो एंटी और बायोस की संधि से बना है. इसमें, एंटी का मतलब होता है विरोध और बायोस का अर्थ है जीवाणु यानी बैक्टीरिया.
अतः एंटीबायोटिक का मतलब हुआ बैक्टीरिया का विरोध करने वाला. एंटीबायोटिक जीवाणुओं के विकास को रोक देती है और बैक्टीरिया के संक्रमण को रोककर उपचार संभव बनाती है. एंटीबायोटिक सूक्ष्म जीवों से होनेवाले संक्रमण से शरीर की रक्षा करती है.
आमतौर पर एंटीबायोटिक्स को एंटीबैक्टीरियल भी कहा जाता है. जब शरीर में नकारात्मक बैक्टीरिया का असर बढ़ता है, तब हम बीमार पड़ जाते हैं. ऐसी स्थिति में एंटीबायोटिक बैक्टीरिया के संक्रमण को नष्ट कर देती है. सामान्यतया, शरीर में अपनी प्रतिरोधक क्षमता होती है. शरीर में उपस्थित व्हाॅइट सेल्स यह काम करती हैं.
लेकिन, जब बैक्टीरिया का संक्रमण अत्यधिक हो जाता है, तो प्रतिरोधक तंत्र के लिए लड़ना मुश्किल होता है और उस वक्त एंटीबायोटिक्स की मदद ली जाती है. एंटीबायोटिक शब्द का सबसे पहला प्रयोग साल 1942 में सेलमन अब्राहम वाक्समैन ने एक सूक्ष्म जीव द्वारा उत्पन्न किये गये ठोस-तरल पदार्थ के लिए किया था, जो उच्च तनुकरण में अन्य सूक्ष्म जीवों के विकास को रोक रहे थे.
कब हुई थी खोज?
साल 1928 से पहले दुनिया में कोई भी दवा, जीवाणुओं से होनेवाले रोगों का उपचार नहीं कर सकती थी. पेंसिलीन के रूप में पहली प्रतिजीवाणु (एंटीबायोटिक) दवा की खोज की गयी थी. पेंसिलीन की खोज साल 1928 में स्कॉटिश चिकित्सक और माइक्रोबायोलॉजिस्ट सर अलेक्जेंडर फ्लेमिंग ने की थी.
अलेक्जेंडर फ्लेमिंग ने ही पेंसिलीन का आविष्कार करके संक्रामक रोगों से लड़ना और उपचार कर पाना संभव बना दिया था. हालांकि, यह खोज आकस्मिक थी. फ्लेमिंग रोगों के जीवाणुओं के साथ प्रयोग कर रहे थे और एक पेट्री डिश का इस्तेमाल कर रहे थे. उस दौरान उन्होंने पाया कि पेट्री डिश में पड़ी जैली में फफूंद उग गयी थी. दिलचस्प बात यह थी कि जहां भी यह फफूंद उगी थी, वहां सभी बैक्टीरिया नष्ट हो गये थे. उन्होंने इस फफूंद का पता लगाया जो कि पेनिसिलियम नोटाटम थी.
इस फफूंद से निकले रस द्वारा रोग-जीवाणु नष्ट हो जा रहे थे. इस तरह अचानक पेंसिलीन एंटीबायोटिक जैसी औषधि का पता चल पाया था, जो उस समय जीवनदायी थी. इसे औषधि के रूप में ढालनेवाले ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हावर्ड फ्लोर और अर्नेस्ट चेन थे. उन्होंने ‘फ्रिज ड्राइंग’ तकनीक द्वारा औषधि का रूप दिया था. पहली बार इस दवा का इस्तेमाल साल 1941 में किया गया था.
इसकी खोज के बाद डिप्थीरिया, निमोनिया, रक्त विषाक्तता, गले का दर्द, फोड़े और गंभीर घावों का इलाज आसानी से करना संभव हो गया था. इस खोज के लिए साल 1945 में सर अलेक्जेंडर फ्लेमिंग को और विश्लेषण व विस्तार के लिए हावर्ड फ्लोर और अर्नेस्ट चेन को संयुक्त रूप से चिकित्सा क्षेत्र का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया था.
भारत में टीबी के मामले बढ़े
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, 50 फीसदी से ज्यादा भारतीय दवाओं के नकारात्मक असर की चिंता नहीं करते और डॉक्टर से पूछे बिना एंटीबायोटिक दवाएं इस्तेमाल करते हैं. एंटीबायोटिक के इस्तेमाल की वजह से टीबी की बीमारी के मामले भयावह रूप से भारत में बढ़े हैं. साल 2010 में भारत में टीबी के 4 लाख 40 हजार नये मामले देखने में आये थे. लोगों में एंटीबायोटिक का कोई असर नहीं हो रहा था और इसी वजह से देश में 1.5 लाख लोगों की मौत भी हो गयी थी.
सुपरबग बैक्टीरिया का कहर
सुपरबग बैक्टीरिया असर तेज होता जा रहा है. लैंसेट के अनुसार, सुपरबग की वजह से साल 2015 में भारत में मृत्यु दर 13 फीसदी थी, वहीं विकसित देशों में यह आंकड़ा दो से सात प्रतिशत का रहा.
जॉन्स होपकिन्स यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ मेडिसिन और द सेंटर फॉर डिजीज डायनमिक्स, इकोनॉमिक्स एंड पॉलिसी (सीडीडीइपी) की एक रिपोर्ट के अनुसार, साल 2030 तक सुपरबग संक्रमण की दर वर्तमान दर से चार गुना बढ़ने की आशंका जतायी है.
सुपरबग वह बैक्टीरिया है, जिस पर कोई एंटीबायोटिक दवा असर नहीं करती है. जानकार इस बैक्टीरिया को आनेवाले समय में एड्स और एचआइवी से कम खतरनाक नहीं मान रहे हैं. सुपरबग से पीड़ित मरीज पर सामान्य बीमारी भी बड़े बीमारी का असर दिखा सकती है.
सुपरबग संक्रमण दो रूपों में मौजूद है. पहला है मल्टी ड्रग रेसिस्टेंट और दूसरा एक्सट्रीमली ड्रग रेसिस्टेंट. सीडीडीईपी की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2050 तक विश्व के 2.4 मिलियन लोगों की सुपरबग संक्रमण से मृत्यु हो सकती है. इसे रोकना तभी संभव हो पायेगा, जब एंटीबायोटिक दवाओं के अनावश्यक उपयोग पर रोक लगेगी.
माना जाता है कि सुपरबग का पहला रोगी स्वीडन का था. वह साल 2009 के दिसंबर माह में नयी दिल्ली में बीमार पड़ गया था. दिल्ली के अस्पताल में इलाज से ठीक न होने पर वह स्वीडन लौट गया. जहां इलाज के दौरान उसके शरीर में रोगाणुओं में एंटीबायोटिक दवाओं को बेकार कर देनेवाले एक नये किस्म के एंजाइम का पता चला. चूंकि, वह व्यक्ति नयी दिल्ली से आया था, इसलिए, इस एंजाइम का नाम नयी दिल्ली से जोड़ते हुए एनडीएम-1 कर दिया गया था.
एंटीबायोटिक लेने से पहले ध्यान रखें
डॉक्टर की सलाह से ही एंटीबायोटिक दवायें खायें, क्योंकि डॉक्टर बीमारी के अनुसार ही दवा देते हैं.
अपनी मर्जी से सेवन करने से सही मात्रा और समय की जानकारी हमें नहीं होती, जिससे शरीर पर बुरा असर भी पड़ सकता है.
एंटीबायोटिक दवा लेने का समय भी बहुत जरूरी होता है, अतः चिकित्सक की सलाह के अनुसार ही खायें.
डॉक्टर की सलाह पर शुरू हुए एंटीबायोटिक का कोर्स निश्चित ही पूरा करना चाहिए, अन्यथा कुछ बैक्टीरिया बचे रह जाते हैं और दोबारा संक्रमण फैला सकते हैं.
हर शरीर की अपनी अलग दशा होती है, जिसका ध्यान रखकर ही डॉक्टर एंटीबायोटिक देते हैं. किसी दूसरे के लिए लिखी एंटीबायोटिक दवा अपनी मर्जी से नहीं खानी चाहिए.
