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वर्षारंभ 2019 : आशंकाओं से घिरी दुनिया, वैश्विक संबंधों में सतर्क रहे भारत

पुष्पेश पंत अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार इस बात की संभावना बहुत कम है कि इस वर्ष अमेरका के सनकी तानाशाही मिजाजवाले राष्ट्रपति ट्रंप के स्वभाव या शैली में कोई खास फर्क देखने को मिल सकता है. यही सोचना तर्क संगत है कि एक-एक कर बचे-खुचे अनुभवी सलाहकार या तो उन्हें छोड़कर अपनी राह चल देंगे […]

पुष्पेश पंत
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार
इस बात की संभावना बहुत कम है कि इस वर्ष अमेरका के सनकी तानाशाही मिजाजवाले राष्ट्रपति ट्रंप के स्वभाव या शैली में कोई खास फर्क देखने को मिल सकता है. यही सोचना तर्क संगत है कि एक-एक कर बचे-खुचे अनुभवी सलाहकार या तो उन्हें छोड़कर अपनी राह चल देंगे या फिर दुनिया का सबसे शक्तिशाली समझा जानेवाला यह नेता उन्हें निकाल बाहर करेगा. इसके बुरे ही बुरे नतीजे सामने आ सकते हैं.
सीरिया हो या अफगानिस्तान, यूरोप हो अथवा पूर्वी एशिया, ट्रंप यानी अमेरिका का राजनय बहुत बुरी तरह भटक चुका है. ट्रंप अपना बचा-खुचा कार्यकाल अहंकारी मतिमंदता का प्रदर्शन करते काट देंगे. भारत जैसे देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती रहेगी निरंतर चंचल परदृश्य में अपने आर्थिक तथा सामरिक हितों का संरक्षण. न तो हम अमेरिका की तकनीकी क्षमता को नकार सकते हैं और न ही अपने से असहमत देशों को नुकसान पहुंचा सकने की अमेरिकी राष्ट्रपति की रुग्ण मानसिकता को. पाकिस्तान तथा पर्यावरण के सार्वभौमिक मुद्दों के मद्देनजर भारत को सतर्क रहना होगा.
कमोबेश ऐसी ही जटिल चुनौती चीन की तरफ से भी उभर रही है. शी ने अब तक के अपने आचरण से यही जगजाहिर किया है कि वह भले ही तुनकमिजाज न हों और उनकी नीतियों में भटकाव या असमंजस के दर्शन न होते हों, लेकिन चीन के पारंपरिक राष्ट्रहित के बारे में वह रत्तीभर समझौता नहीं करते.
यहां हम मात्र भारत चीन सीमा-विवाद की बात नहीं कर रहे. खाद्य सुरक्षा तथा ऊर्जा सुरक्षा के क्षेत्र में चीन के साथ हमारी कट्टर प्रतिद्वंद्विता जारी रहेगी और दक्षिण एशिया में नेपाल तथा पाकिस्तान के माध्यम से हमारी घेराबंदी के उसके प्रयास भी कम नहीं होंगे. इनके अलावा मालदीव, श्रीलंका, म्यांमार जैसी जगहों में भारत को अप्रस्तुत करने में चीन कोई कसर नहीं छोड़ेगा. भारत के लिए यह सोचना आत्मघातक भ्रम है कि अमेरिका द्वारा चीन के विरुद्ध छेड़े ट्रेड वार के कारण चीन के हमारे प्रति रवैये में नरमी आयेगी.
पुतिन के रूस ने कभी यह नहीं दर्शाया है कि उसकी पश्चिम विरोधी दीर्घकालीन सामरिक रणनीति में भारत का कोई स्थान है.पिछले बीसेक वर्ष में भारत क्रमशः रूस से दूर होता अमेरिका के पास जाता रहा है. ऐतिहासिक रिश्तों को तूल देना बेमानी है और यह सोचना निरर्थक है कि अचानक रूस फिर से भारत को अहमियत देने लगेगा. पुतिन के रूस का चेहरा तथा संस्कार यूरोपीय हैं और कभी सोवियत साम्राज्य का हिस्सा रहे मध्य-एशियाई गणराज्य ही आज हमें अपने करीब लगते हैं. इस साल यह देखने को मिल सकता है कि भारत कजाकिस्तान, उजबेकिस्तान, अजर बैजान आदि के साथ तेल-गैस आपूर्ति के साथ-साथ इस क्षेत्र में इस्लामी कट्टरपंथी का मुकाबला करने के लिए भी घनिष्ठता बढ़ाये.
हमारी समझ में ईरान के संवेदनशील मामले में भी भारत को बहुत सतर्क रहने की दरकार है. यह सच है कि ईरान का बैर अमेरिका से ही नहीं, सऊदी अरब से भी पुराना है, किंतु हमें सिर्फ उभयपक्षीय हितों के समायोजन की चिंता करनी चाहिए, विश्वव्यापी शक्ति समीकरणों की नहीं. समस्या यह है भारत एक साथ अपने को दक्षिण, दक्षिण-पूर्व तथा मध्य-एशिया की सरहद का देश समझता है और इसी कारण उसकी प्राथमिकताएं गड़बड़ाती रहती हैं.
आशा की जो एक उज्ज्वल किरण झलक रही है, वह बांग्लादेश में शेख हसीना का फिर से नेतृत्व संभालना है. कम-से-कम इस मोर्चे पर भारत के लिए अचानक संकट उत्पन्न होने की संभावना कम है. लेकिन हां, जो बात जरा आशंका पैदा कर रही है, वह यह है कि लोकसभा चुनावों का वर्ष होने के कारण हमरा ध्यान वैदेशिक संबंधों से कुछ बहक-भटक सकता है!
अमेरिका-चीन में बढ़ सकता है तनाव
अमेरिका और चीन के बीच छिड़े व्यापार युद्ध में तनातनी जारी है, जिससे इस वर्ष के लिए अमेरिका की जीडीपी की वृद्धि दर धीमी हो गयी है. इससे वैश्विक अर्थव्यवस्था पर असर पड़ना तय है. बीते वर्ष इस तनाव के कारण परेशान हुए छोटे किसानों और व्यवसायों को इस वर्ष भी काफी परेशानी उठानी होगी.
इतना ही नहीं, उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रमों को चीन का समर्थन और प्रशांत महासागर में उसकी बढ़ती गतिविधियों से निपटने के लिए ही अमेरिका ने ताइवान के प्रति अपना समर्थन बढ़ाया है. इसके अलावा उसने दक्षिण चीन सागर में नौवहन की स्वतंत्रता को बढ़ाने की योजना भी बनायी है. इस कारण चीन के साथ अमेरिकी रिश्तों में और तनातनी आ सकती है.
इटली में उथल-पुथल
इटली में सत्तारूढ़ गठबंधन के साझेदारों के बीच तनाव, प्रतिष्ठानों के खिलाफ फाइव स्टार मूवमेंट और एंटी-माइग्रेशन लीग, ये सब मिलकर मई में होनेवाले यूरोपीय संसद के चुनावों से पहले या बाद में गठबंधन को गिरा सकते हैं. इस अराजक स्थिति के कारण इटली के बाजार वित्तीय में दबाव में आ सकते हैं, जिससे यहां आर्थिक संकट आ सकता हैं. इसका असर यूरोप की अर्थव्यवस्था पर पड़ना तय है.
ब्रेक्जिट को लेकर अस्पष्टता
इस वर्ष मार्च में यूरोपीय संघ से ब्रिटेन अलग हो जायेगा, हालांकि इसे लेकर ब्रिटिश संसद एकमत नहीं हैं. ऐसी स्थिति में सरकार के गिरने का खतरा बना रहता है. विशेषज्ञों की मानें, तो नॉन-डील ब्रेक्जिट की वजह से साल 2030 तक ब्रिटेन की जीडीपी सात प्रतिशत तक कम हो सकती है. लेकिन ब्रेक्जिट के बाद भी अगर ब्रिटेन यूरोपीय संघ के सीमा शुल्क यूनियन का हिस्सा बने रहता है, तो यह उसके लिए फायेदमंद होगा. हालांकि, इसे लेकर अभी तक अस्पष्टता बनी हुई है.
कई देशों में होने हैं चुनाव
इस वर्ष भारत सहित अर्जेंटीना, इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका व नाइजीरिया जैसी विश्व की कई उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों में चुनाव होने हैं. इस चुनाव में सताधारी दलों के जीत-हार का बाजार पर दूरगामी प्रभाव पड़ना तय है. वहीं ब्राजील चुनाव में धुर दक्षिणपंथी जाएर बोलसोनारो की जीत हुई है और वे इस वर्ष सत्ता पर आसीन रहेंगे. लिहाजा ब्राजील की राजनीति किस करवट बैठती है, यह इस वर्ष तय होना है. इस वर्ष कनाडा व ऑस्ट्रेलिया जैसे विकसित देशों में भी चुनाव होना है.
तेल की कीमतों में उतार-चढ़ाव का असर
इस वर्ष ईरान और अमेरिका के बीच तनातनी बनी रही, तो तेल उत्पादन का प्रभावित होना तय है. ऐसे में कच्चे तेल के दाम में वृद्धि भी हो सकती है. अगर ओपेक देश और इसके सहयोगी तेल उत्पादन में कटौती पर सहमत हो जाते हैं, तो इससे उन देशों की अर्थव्यवस्था ज्यादा प्रभावित होगी, जो इन देशों से ज्यादा तेल खरीदते हैं. वहीं पत्रकार जमाल खशाेजी की हत्या को लेकर भी सऊदी अरब के साथ अमेरिका व तुर्की के संबंध तनाव भरे हैं. यदि अमेरिका सऊदी से संबंध खत्म कर देता है, तो तेल की कीमतें आसमान छूने लगेंगी.
अमेरिकी नीतियों का प्रभाव
बीता वर्ष भारत-अमेरिका संबंधों के लिए मिला-जुला रहा. इस वर्ष जहां दोनों देशों ने 2 प्लस 2 डायलॉग के तहत कॉमकासा समझौते पर हस्ताक्षर किये, वहीं अमेरिका ने एशिया प्रशांत क्षेत्र में भारत के पक्ष का समर्थन किया. हालांकि, अमेरिकी संरक्षणवाद की नीति से भारतीय व्यापार को नुकसान भी पहुंचा.
नये वीजा कानून भी भारतीय पेशवरों के लिए नुकसानदेह साबित हो रहे हैं. ईरान के साथ इसके टकराव ने एक आेर जहां भारत की तेल खरीद को प्रभावित किया है, वहीं चाबहार बंदरगाह पर भी इसके विपरीत प्रभाव के आसार नजर आ रहे हैं. जाहिर है, वर्ष 2019 में इन सभी नकारात्मक पहलुओं के प्रभाव से निपटना भारत के लिए अासान नहीं होगा.
वैश्विक परिदृश्य के बारे में आशंकाएं जतायी जा रही हैं कि 2018 की छाया से 2019 का निकल पाना बहुत मुश्किल होगा. संरक्षणवादी अमेरिकी नीतियां, व्यापार युद्ध और यूरोपीय संघ के संकट के साथ मध्य-पूर्व में अशांति वे कारक हैं, जो इस साल को आकार देंगे. पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन के मुद्दे भी राजनीतिक और आर्थिक स्थिति पर असर डालेंगे. नये साल में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आशंकाओं और उम्मीदों के आकलन पर आधारित आज की विशेष प्रस्तुति…
क्या होगी भारत की विदेश नीति
यह भारत का चुनावी वर्ष है, लेकिन विदेश नीति को लेकर चुनौतियां इस वर्ष भी बरकरार रहनेवाली हैं. पड़ोसी देशों- चीन, पाकिस्तान हों या फिर अफगानिस्तान या अमेरिका, इन सभी के साथ हमारे संबंध क्या करवट लेते हैं, यह देखना इस वर्ष दिलचस्प होगा.
चीन से रिश्ते में आ सकता है बदलाव
एशिया की इन दोनों देशों की अर्थव्यवस्था और भू-सामरिक अपेक्षाएं इस वर्ष भी पड़ोसी देशों से लेकर पश्चिम में अमेरिका व रूस, पूर्व में जापान और आसियान देशों के साथ उसके संबंधों को परिभाषित करेंगी.
चीन के वुहान में हुए सम्मेलन, डोकलाम गतिरोध के कारण उत्पन्न तनाव के कम होने और विदेश मंत्री वैंग यी की यात्रा के दौरान पीपुल-टु-पीपुल कॉन्टैक्ट के बावजूद दोनों देशों के बीच अनेक मतभेद अभी भी बने हुए हैं. हालांकि, ट्रेड वार व अर्थव्यवस्था के धीमे होने के कारण चीन इन दिनों दबाव में है, ऐसे में वह एशियाई देशों, खासकर भारत के साथ तत्काल के लिए ही सही, अपने संबंधों को बेहतर करना चाहेगा. वहीं भारत भी चाहेगा कि चीन आतंकवाद से लड़ाई, समुद्री सुरक्षा व संकट प्रबंधन जैसे सहयोग के क्षेत्रों की संवेदनशीलता को समझते हुए स्पष्ट समझ पैदा करे व भारत का साथ दे.
भारत-पाकिस्तान संबंध यथावत बने रहने के आसार
इन दोनों देशों के संबंध में भविष्य में कोई बदलाव होता नहीं दिख रहा है. पाकिस्तान द्वारा करतारपुर गलियारा पहल की सराहना या लंबे समय से बंद कैदियों की रिहाई जैसे कदमों से संबंधों को बेहतर बनाया जा सकता था, लेकिन दोनों ही देशों की इसमें रुचि नहीं है. करतारपुर गलियारा को भारतीय श्रद्धालुओं के लिए खोलने की पाकिस्तान की पहल की भारत निंदा कर चुका है इसके पीछे पंजाब में अलगवादियों को फिर से जीवित करने की आईएसआई की चाल मानता है. दोनों देशों के रिश्ते से कटुता हटाने के लिए विजिटर्स वीजा को आसान बनाना, एलओसी पर संघर्ष विराम बनाये रखने के लिए सहमत होना जैसे कुछ कदम इस वर्ष उठाने हाेंगे, तभी सकारात्मक नतीजे प्राप्त हो सकते हैं.
तालिबान के साथ वार्ता
अंतरराष्ट्रीय मंच पर पाकिस्तान को अलग-थलग करने के भारत के बयान से उलट पाकिस्तानी सेना अफगानिस्तान में तालिबान के साथ समझौते में मुख्य भूमिका निभा रही है. हालांकि, अभी इसकी योजना स्पष्ट नहीं है. इतना ही नहीं, वहीं अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान से अपने 7,000 सैनिकों को वापस बुलाने की बात करने से स्पष्ट हो जाता है कि तालिबान से वार्ता को लेकर ट्रंप के पास भी कोई स्पष्ट योजना नहीं है. क्योंकि ट्रंप की इस घोषणा से अशरफ गनी के साथ ही ईरान व रूस शायद ही प्रसन्न हों. जहां तक भारत की बात है, तो उसने अफगान मामले से खुद को अलग कर लिया है. इस वर्ष अफगानिस्तान में प्रासंगिक बने रहना भारत के लिए चुनौती होगी. वहीं इस वर्ष यह भी देखना होगा कि तालिबान के साथ वार्ता के क्या नतीजे निकलते हैं.
दक्षिण एशियाई देश व भारत
बीते वर्ष मालदीव में अब्दुल्ला यामीन की चुनावी हार, श्रीलंका में राजनीतिक खींचतान में रानिल विक्रमसिंघे का पुन: प्रधानमंत्री बनना एक ओर जहां भारत के लिए राहत की बात रही वहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पुरजोर कोशिश के बावजूद नेपाल पर चीन की बढ़ती पकड़ ने इस पड़ोसी देश को हमसे दूर कर दिया. वहीं डोकलाम विवाद के बाद भूटान भारत से व्यापार और निवेश में इजाफा चाहता है, ताकि वहां रोजगार का सृजन हो सके. बीते वर्ष इन सभी पड़ोसी देशों में चीन के बढ़ते दखल से भारत को ज्यादा परेशानी हुई है, क्योंकि ये देश सामरिक दृष्टिकोण से हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं. नये वर्ष में इन देशों के साथ भारत अपने संबंधों को कैसे बनाये रखता है, यह इसके लिए चुनौती होगी.

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