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आध्यात्मिक ज्ञान से ही पहुंच सकते हैं लक्ष्य तक, जानें कैसे

श्रीश्री आनंदमूर्ति, आध्यात्मिक गुरु ज्ञान क्या है? ज्ञान है बाहरी विषयों का आत्मसात. यह व्यक्ति को स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर ले जाता है. अर्थात् जहां इस प्रकार की मानसिकता पायी जाती है, उसे ज्ञान कहा जा सकता है और जहां यह नहीं है, वहां ज्ञान नहीं है. ज्ञान का आधार क्या है? जहां ज्ञान […]

श्रीश्री आनंदमूर्ति, आध्यात्मिक गुरु
ज्ञान क्या है? ज्ञान है बाहरी विषयों का आत्मसात. यह व्यक्ति को स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर ले जाता है. अर्थात् जहां इस प्रकार की मानसिकता पायी जाती है, उसे ज्ञान कहा जा सकता है और जहां यह नहीं है, वहां ज्ञान नहीं है. ज्ञान का आधार क्या है? जहां ज्ञान भौतिक है, वहां ज्ञान का आधार मन है.
जहां यह संपूर्णतः आध्यात्मिक है, वहां उसका आधार आत्मा है. ज्ञान मन को आत्मा के साथ संयुक्त करता है. जो मन को आत्मा के साथ नहीं मिलाता है, वह ज्ञान नहीं है, बल्कि ज्ञान की भ्रांति है. इसी कारण तथाकथित ज्ञान से मन में अहंकार पैदा होता है. यदि तुम एक अहंकारी व्यक्ति को देखते हो, तो तुम्हें अवश्य समझना चाहिए कि इस व्यक्ति को ज्ञान नहीं, बल्कि ज्ञान की भ्रांति है.
एक बार दो बड़े विद्वानों में बहस छिड़ी, ‘‘पहले ध्वनि पैदा होती है या पहले ताड़ गिरता है.’’ वाद-विवाद महीनों चलता रहा, किंतु किसी निर्णय पर नहीं पहुंचा. तब उनलोगों ने निश्चय किया कि एक रात पेड़ के नीचे बैठकर ही व्यावहारिक रूप से देखा जाये कि पहले ताड़ गिरता है कि पहले ध्वनि होती है. अगली सुबह पाया गया कि माथे पर ताड़ गिरने के कारण दोनों पंडित मरे पड़े हैं. अतः यह तथाकथित ज्ञान बिल्कुल ज्ञान नहीं है, बल्कि ज्ञान की भ्रांति है जो तुम निश्चय ही अर्जित करना नहीं चाहोगे.
प्रथम स्तर में मन स्वयं ज्ञान का आधार है. कौरवों और पांडवों के बीच युद्ध के समय कौरवों को युद्ध का परिणाम समझाने की बहुत चेष्टा की गयी. यहां तक कि युधिष्ठिर ने उनलोगों में परिवर्तन लाने के लिए भगवान से प्रार्थना की.
वहां परमात्मा की अनुकंपा भी थी, किंतु जड़ भाव होने के कारण वे इसको समझ नहीं सकें. हां, अर्जुन के गाण्डीव की टंकार से वे आसानी से समझ सके थे. इसलिए अविकसित मन भौतिक शासन से ही शासित होता है, अन्य से नहीं.
सांसारिक ज्ञान अपने प्रथम स्तर में भौतिक-मानसिक होता है और इसके बाद मानसिक. जब इस ज्ञान को भौतिक जगत में कार्यान्वित किया जाता है तब यह मानसिक-भौतिक होता है. इस ज्ञान का भौतिक जगत में अल्प मूल्य है, किंतु इसका मूल्य बदलते रहता है. जो सिद्धांत आज पसंद किया जाता है, वह कल बदल जाता है.
तब यथार्थ ज्ञान क्या है? यथार्थ ज्ञान उस सत्ता का ज्ञान है, जिसमें देश, काल और व्यक्ति में परिवर्तन से भी उनमें कोई परिवर्तन नहीं हो. इस जगत में सभी कुछ सकारण है, अर्थात् कार्य कारण का परिणाम होता है और कारण का परिणाम कार्य होता है. यह इसी तरह चलता रहा है. जहां कार्य-कारण तत्व काम करता है, वहां अपूर्णता रहती है. इस ज्ञान से अथवा इस ज्ञान के आनेवाले स्त्रोतों पर कोई अहंकार नहीं कर सकता.
वेद में कहा गया है- ‘‘मैं कहता हूं कि मैं नहीं जानता हूं और न यह कहता हूं कि मैं जानता हूं, क्योंकि वह परमसत्ता सिर्फ उसी के द्वारा जाना जाता है, जो जानता है कि परमात्मा जानने और नहीं जानने के परे हैं,’’ जानना एक विशेष मानसिक धारा प्रवाह है.
परमसत्ता देश, काल और व्यक्ति के परे है. यह अपरिवर्तनीय होने के कारण यदि कोई व्यक्ति आध्यात्मिक-मानसिक ज्ञान अर्जित करने की चेष्टा करता है अपेक्षाकृत भौतिक-मानसिक ज्ञान के, अर्थात् यदि उसके ज्ञान का स्त्रोत बाह्य भौतिकता नहीं है, बल्कि आंतरिक आध्यात्मिकता है, तब उस अवस्था में वह ज्ञान यथार्थ ज्ञान होगा. जिस आध्यात्मिक मानसिक ज्ञान का अंतिम बिंदु आध्यात्मिक ज्ञान हो, वही एकमात्र ज्ञान है. इसी ज्ञान के माध्यम से मनुष्य अपने लक्ष्य तक पहुंच सकता है.
प्रस्तुति : आचार्य दिव्यचेतनानंद
Prabhat Khabar Digital Desk
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