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जादोपटिया : झारखंड की मनमोहक लोक चित्रकला

युगल किशोर पंडित पाषाण युग से ही चित्रकला लोगों का मन मोहती रही है, क्योंकि चित्रकला सिर्फ विधा नहीं है बल्कि मानवता के विकास का निश्चित सोपान प्रस्तुत करती है. झारखंड में भी चित्रकला खासकर लोक चित्रकला की समृद्ध परंपरा रही है, जिसमें मुख्य रुप से आदिवासी समुदायों की जीवनशैली, सामाजिक, धार्मिक व सांस्कृतिक मान्यताएं […]

युगल किशोर पंडित

पाषाण युग से ही चित्रकला लोगों का मन मोहती रही है, क्योंकि चित्रकला सिर्फ विधा नहीं है बल्कि मानवता के विकास का निश्चित सोपान प्रस्तुत करती है. झारखंड में भी चित्रकला खासकर लोक चित्रकला की समृद्ध परंपरा रही है, जिसमें मुख्य रुप से आदिवासी समुदायों की जीवनशैली, सामाजिक, धार्मिक व सांस्कृतिक मान्यताएं परिलक्षित होती हैं.

आदिवासी पुरातन समय से ही प्रकृति के उपासक रहे हैं. उनका जीवन प्रकृति के सहज सौंदर्य से प्रेरित रहा है और यह सौंदर्य बोध उनके द्वारा उकेरी जानेवाली चित्रकलाओं में स्पष्ट दिखती हैै. ऐसी ही प्राचीन लोक चित्रकला है जादोपटिया, जिसे झारखंडी लोकशैली भी कहा जाता है. जादोपटिया मुख्यत: समाज के उद्भव, विकास, धार्मिक मान्यताओं, मिथकों, रीति–रिवाजों और नैतिकता को अभिव्यक्त करता है. यह चित्रकला संतालों की पहचान है.

दरअसल, जादो संताल में चित्रकार को कहा जाता है. इन्हें पुरोहित भी कहते हैं. ये कपड़े या कागज को जोड़कर एक पट्ट बनाते हैं फिर प्राकृतिक रंगों से उसमें चित्र उकेरते हैं. जादो द्वारा कपड़े या कागज के छोटे–छोटे टुकड़ों को जोड़कर तैयार पट्टों को जोड़ने के लिए बेल की गोंद का प्रयोग किया जाता है जबकि प्राकृतिक रंगों की चमक बनाए रखने के लिए बबूल केे गोंद मिलाये जाते हैं.

चित्रकारी के लिए बनाया जानेवाला यह पट्ट पांच से बीस फीट तक लंबा और डेढ़-दो फीट चौड़ा होता है. इस पट्ट पर सुंदर चित्र उकेरकर लोगों के बीच प्रदर्शित किया जाता है. इसमें कई चित्र का संयोजन होता है. चित्रों में बॉर्डर का भी प्रयोग होता है. चित्रकला का विषय सिद्धू-कान्हू, तिलका मांझी, बिरसा मुंडा जैसे शहीदों की शौर्य गाथा के अलावा रामायण, महाभारत, कृष्णलीला आदि से लिया जाता है. इस चित्र को उकेरने के लिए लाल, पीला, हरा, काला, नीला आदि रंगों का प्रयोग किया जाता है. खास बात यह कि ये रंग प्राकृतिक होते हैं.

हरे रंग के लिए सेम के पत्ते, काले रंग के लिए कोयले की राख, पीलेे रंग के लिए हल्दी, सफेद रंग के लिए पिसा हुआ चावल आदि का प्रयोग किया जाता है. रंगों को भरने के लिए बकरी के बाल से बनी कूची या फिर चिडि़या के पंखों का प्रयोग करने की परंपरा है. चित्रित विषय की प्रस्तुति कथा या गीत के रूप में लयबद्ध कर की जाती है.

इसे इस समाज का पुश्तैनी पेशा कहा जा सकता है. प्रस्तुति के बाद लोग उन्हें दक्षिणा के रूप में अनाज या पैसे दिया करते हैं. वर्षों से ये चित्रकार वंश परंपरा के आधार पर इसे अपनाते आये हैं. यह कला वर्तमान पीढ़ी को पिछली पीढ़ी से विरासत में मिलती आयी है परंतु विडंबना है कि लोक चित्रकला के माध्यम से गांव-गांव घूमकर लोगों का मनोरंजन करनेवाले ये चित्रकार (जादो) अब दूसरा पेशा अपना रहे हैं. जादोपटिया का क्रेज कम होता जा रहा है. यह लोक कला विलुप्ति के कगार पर है.

हालांकि लुप्त हो रहे इस लोक कला को संजोने व विकसित करने के दिशा में सरकार भी कुछ कदम उठा रही है. पिछले दिनों हरियाणा के सुरजकुंड मेले में झारखंड को थीम स्टेट बनाया गया था, जहां जादोपटिया को प्रदर्शित करने का काम किया गया. मुंबई में कपड़े, बेड़शीट, चादर, साड़ी, पर्दा आदि पर आधुनिक जादोपटिया चित्रकारी की जा रही है. झारक्राफ्ट के माध्यम से इसे बेचा भी जा रहा है. अतिथियों को उपहार देने में भी इसका प्रयोग किया जा रहा है. हालांकि आधुनिक समय में इसमें काफी बदलाव आये हैं.

अब प्राकृतिक रंगों का प्रयोग नहीं होता और चित्रकार घर-घर जाकर इसका प्रदर्शन भी बहुत कम करते हैं. नये दौर में यह मनोरंजन और जानकारी का साधन तो नहीं रहा, पर इसे व्यावसायिक रूप देने का प्रयास सरकार व कुछ कद्रदानों द्वारा किया जा रहा है.

Prabhat Khabar Digital Desk
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