अमूमन लोगों में ऐसी धारणा रही है कि बिहार के युवा उद्यम और व्यापार में रुचि नहीं लेते. सरकारी नौकरी में जाना उनका सबसे बड़ा लक्ष्य होता है.
मगर पिछले कुछ वर्षों में युवाओं के एक बड़े हिस्से ने उद्योग जगत में अपनी अलग पहचान बनायी है. खास बात यह है कि इन युवाओं की पारिवारिक पृष्ठभूमि कभी व्यापार की नहीं रही. आइये जानते हैं ऐसे ही दस युवाओं की कहानी जिन्होंने पढ़-लिखकर नौकरी हासिल करने के बदले नौकरी बांटने की राह को तरजीह दी और आज सफल उद्यमी हैं.
अमित धवल
हॉलीवुड का बड़ा काम पटना में
बहुत कम लोगों को पता है कि पटना शहर के किदवईपुरी मोहल्ले से फिलामेंट्स विजुअल इफेक्ट्स लिमिटेड नाम की एक कंपनी संचालित होती है.
इस कंपनी में हॉलीवुड के कई मशहूर फिल्मों के विजुअल इफेक्ट्स तैयार होते हैं. इस कंपनी ने मिशन इंपोसिबल- घोस्ट प्रोटोकॉल, आइ रोबोट- 3डी, द लीजेंड ऑफ जोरो, द हैपनिंग, टाइटेनिक थ्री-डी, बैटलशिप, पिरान्हा थ्री-डी, इम्मोर्टल, स्पाइ किड 4, पाइरेट्स ऑफ कैरीबियन, वाटर फॉर एलिफेंट्स, लाइफ ऑफ पाई, गोल्डन कंपास, जॉन एडम्स और जीआई जो, जैसी फिल्मों के लिए स्पेशल इफेक्ट्स क्रियेट किये हैं.
फिलामेंट्स विजुअल के संस्थापक अमित धवल हैं, जो इन दिनो कैलीफोर्निया में रहते हैं. वहां फिलामेंट्स का एक और दफ्तर है. पटना और यूएस के अलावा थाइलैंड में भी इस कंपनी का कारोबार है.
अपने अमेरिकन कांटेक्ट्स से उन्हें वीएफएक्स का अच्छा खासा काम मिलता रहता है और वह काम उनके पटना स्थित स्टूडियो में होता है. ऐसी जानकारी है कि उनकी इस कंपनी में दो सौ से अधिक मल्टीमीडिया आर्टिस्ट काम करते हैं.
इसके अलावा अमित धवल फ्रेमबॉक्स के नाम से एक मल्टीमीडिया और विजुअल इफेक्ट्स सिखाने का इंस्टीच्यूट भी संचालित करते हैं. यहां लड़के कोर्स करते हैं, फिर इन लड़कों को फिलामेंट में काम मिल जाता है.
1996 में डिज्नी से अपने कैरियर की शुरुआत करने वाले अमित ने बहुत कम उम्र में बहुत ऊंचा मुकाम हासिल किया है. हालांकि अमित के फिलामेंट डिजिटल से काफी पहले पटना में एक और वीएफएक्स कंपनी यूनो डिजिटल ने काम शुरू किया था, उनका काफी बड़ा सेटअप था. मगर कई वजहों से यूनो डिजिटल का काम आगे नहीं बढ़ पाया. जबकि फिलामेंट्स आज भी पेशेवर अंदाज में अपने काम को आगे बढ़ा रहा है.
दिलीप कुमार सिंह
दाना फैक्ट्री से दो सौ लोगों का दाना-पानी
कंपनी : हरिओम फीड्स
अगर इरादा बुलंद हो, तो सफलता जरूरत मिलती है. गोपालगंज जिले के बरौली प्रखंड के छोटका बढ़ेया गांव के दिलीप कुमार सिंह के जज्बे ने कुछ ऐसी ही मिसाल पेश की है. खुद के रोजगार के साथ दूसरों को नौकरी मिल सके, इसलिए रेलवे में क्लर्क की नौकरी को छोड़ दी. परिवार में विरोध के बावजूद वर्ष 2003 में मुर्गी दाना की फैक्ट्री खोल दी. कम पूंजी में खुली फैक्ट्री आज बिहार-यूपी के लिए मिसाल बन गयी है.
दिलीप कुमार सिंह स्नातक के साथ आइटी इंजीनियर हैं. रेलवे की नौकरी छोड़ कर दिलीप ने हरिओम फीड्स नामक दाना फैक्ट्री का कारोबार शुरू किया था. जब यह फैक्ट्री खुली थी तो इसकी लागत महज 15 लाख रुपये थी. आज इस फैक्ट्री में करीब दो सौ लोग काम कर रहे हैं. इतना ही नहीं मांझा के अलावा यूपी के गोरखपुर समेत कई दूसरे शहरों में भी इनकी दाना फैक्ट्री चल रही है.
खुद का कारोबार शुरू कर दिलीप इलाके में लोगों के बीच मिसाल बन गये हैं. दिलीप कुमार बताते हैं कि पहले दाना की मांग नहीं थी. लेकिन, आज के दौर में बिहार के हर जिले में मुर्गी दाना की सप्लाई हो रही है. मांग के अनुरूप आपूर्ति की जा रही है. वहीं, उत्तर प्रदेश में मुर्गी दाना की मांग होते देख गोरखपुर में हरिओम फीड्स का यूनिट खोला गया है.
रिपोर्ट- संजय अभय
फेंके हुए कतरन से खड़ा कर लिया 40 लाख का कारोबार
सोपान सिन्हा, भागलपुर
जिस कतरन को दर्जी फेंक देते हैं और उसका कहीं उपयोग नहीं होता. उसी कतरन को जमा कर यह बिहारी युवा समाज कई लोगों को रोजगार भी दे रहा है. हम बात कर रहे हैं एक ब्रांड बन चुके सोपन सिन्हा की. सोपन सिन्हा ने बताया कि समाजशास्त्र से स्नातक और खुला विश्वविद्यालय पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी करने के बाद धनबाद में कुछ दिनों तक पत्रकारिता की. इसी दौरान कुछ दोस्तों से अपना नाम अलग उद्यम करके रोजगार और नाम करने की प्रेरणा मिली.
बकौल सोपन सिन्हा 2004 में 4800 रुपये की पूंजी से हैंडीक्राफ्ट रेडिमेड उद्यम का सफर शुरू किया था. शुरुआत में जिला उद्योग केंद्र के तहत काम किया और मेले में अपनी प्रदर्शनी लगायी, ताकि अपने प्रोडक्ट को प्रोमोट किया जा सके.
फिर दिल्ली हाट, मुंबई नेशनल अवार्डी में भी प्रदर्शनी लगायी गयी. यहां पर फिल्मी हस्तियों ने उनके बने कपड़े को खूब पसंद किया. अब तो यहां तैयार कपड़े जम्मू-कश्मीर, हैदराबाद, डिब्रूगढ़, जोरहाट, मुंबई, दिल्ली हाट, अमृतसर, भाटिंडा, सामना व भोपाल तक डिमांड हो रही है. यहां से कोरियर के माध्यम से डिमांड पूरी की जा रही है.
यहां तैयार कपड़े की जम्मू-कश्मीर, हैदराबाद, डिब्रूगढ़, जोरहाट, मुंबई, दिल्ली हाट, अमृतसर, भाटिंडा, सामना व भोपाल तक डिमांड हो रही है
25 लोग सीधे पा रहे रोजगार
सोपन सिन्हा ने बताया कि मेरे उद्यम से चार लोग रंगाई, चार कढ़ाई, चार प्रिंटिंग और 10 लोग बुनाई करके रोजगार पा रहे हैं. इसके अलावा माल को बाजार पहुंचाने व प्रदर्शनी में ग्राहकों को कपड़े प्रदर्शित करने में तीन से चार लोगों को रोजगार मिल जाता है.
वस्त्र मंत्रालय-भारत सरकार से है निबंधित
भारत सरकार वस्त्र मंत्रालय से भागलपुरी सिल्क एंड हैंडीक्राफ्ट के नाम से निबंधित है. इसी नाम से जीएसटी का भी रजिस्ट्रेशन कराया गया है.
रिपोर्ट- दीपक राव
उत्पादन दर पर मिल जाते हैं रेडिमेड कपड़े
यह देखकर आश्चर्य होता है कि उत्पादन दर पर ही रेडिमेड कपड़े उपलब्ध हो जाते हैं. कई लोग तो स्थायी ग्राहक हो गये हैं. सिलाई दर पर ही हैंडीक्राफ्ट बंडी, शर्ट, कुरता, दुपट्टा, सलवार-सूट आदि उपलब्ध है. यहां पर सिल्क, लिनेन व कॉटन की साड़ियां मधुबनी पेंटिंग में तैयार हो रहे हैं, जो ग्राहकों को खासा आकर्षित करता है.
तैयार की राज्य की पहली
बॉयो फर्टिलाइजर कंपनी
सुनील कुमार, नालंदा
कंपनी : क्षितिज एग्रोटेक
नालंदा जिले के युवा उद्यमियों ने अपनी मेहनत के बल पर न केवल अपने व्यवसाय को बढ़ाया बल्कि उद्योग के क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बनायी है. इन्हीं में से एक हैं हरनौत प्रखंड के नेहुसा के सुनील कुमार.
पटना का अपना पैतृक घर-बार छोड़ कर सुनील ने नेहुसा में आशियाना बनाया और यहां सूबे की पहली बायो फर्टिलाइजर फैक्टरी व वर्मी कंपोस्ट यूनिट स्थापित की. दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री लेने के बाद सुनील ने एमए इन मास कॉम्यूनिकेशन भोपाल से किया. इन्होंने तीन बार यूपीएससी की परीक्षा दी.
इसमें सफलता नहीं मिलने पर कारोबार करने की ठान ली. शुरुआत में एक लाख रुपये से अपना कारोबार मनरेगा में पौधा वितरण से शुरू किया. इसके बाद 2012 में नेहुसा में बायोफर्टिलाइजर एवं वर्मी कंपोस्ट यूनिट की स्थापना की. बिहार सरकार के जैविक प्रोत्साहन कार्यक्रम के तहत सुनील ने नाबार्ड से दो करोड़ रुपये लोन लेकर इसकी शुरुआत की.
अपनी मेहनत के बल पर बनायी पहचान
सुनील का बायो फर्टिलाइजर एवं वर्मी कंपोस्ट यूनिट सूबे का पहला इस तरह का यूनिट बना. तीन हजार मीटरिक टन प्रतिवर्ष उत्पादन इस बायो फर्टिलाइजर यूनिट की उत्पादन क्षमता थी, जबकि वर्मी कंपोस्ट यूनिट की क्षमता 3600 मीटरिक टन प्रतिवर्ष थी.
यह कारोबार तेजी से फैला आज क्षितिज एग्रोटेक के नाम से बायो फर्टिलाइजर एवं वर्मी कंपोस्ट की बिक्री बिहार के अलावा पश्चिम बंगाल के दार्जलिंग स्थित टी गार्डेन में की जा रही है. इसके अलावा झारखंड में भी सप्लाइ की जा रही है. आज सुनील का कारोबार छह करोड़ के टर्न ओवर तक पहुंच गया है.
कारोबार बढ़ने के साथ ही सुनील ने नेहुसा में 50 गायों की डेयरी स्थापित की. इसके अलावा 22 एकड़ में समेकित कृषि प्रणाली का मॉडल प्रस्तुत किया. वहां अमरूद का बगीचा, बहुत बड़ा तालाब, ड्रिप एरिगेशन आदि का मॉडल स्थापित किया है. यही नहीं नेहुसा में किसानों को प्रशिक्षण देने की भी व्यवस्था है. सुनील ने नाबार्ड के साथ मिल कर पूरे बिहार में 18 फाॅर्मर प्रोड्यूसर कंपनी स्थापित की है. इससे 12 हजार किसान जुड़े हुए हैं.
फैक्ट्रियों को देते हैं ट्रीटमेंट केमिकल
मो. अखलाक
डा. मो. अखलाक नौजवान उद्यमी हैं. वे इंडो केमिकल के संस्थापक व सीइओ भी हैं. इनकी फैक्ट्री में वाटर ट्रीटमेंट केमिकल तैयार होता है. इसे रेलवे, कोल्ड स्टोरेज समेत अन्य फैक्ट्रियों में सप्लाई किया जा रहा है. इन्होंने अपनी कंपनी में 20 नौजवानों को रोजगार दे रखा है.
अखलाक कहते हैं कि बचपन से ही उनके दिल में कुछ करने की तमन्ना थी. परंतु आर्थिक तंगी और माहौल बाधक था. पैतृक गांव समस्तीपुर जिले के सरायरंजन के सलहा में आरंभिक शिक्षा हासिल करने के बाद इन्होंने अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से 1998 में ग्रेजुएशन की डिग्री ली. यही वह वक्त था जब उनके नाना मो. नसीम उर्फ गांधीजी की एक चिट्ठी मिली. जिसमें लिखा एक वाक्य ‘तदवीर तकदीर में बदल जाती है’ ने सलहा के इस छोरे के जिंदगी की दिशा बदल दी.
मो अखलाक कहते हैं कि ग्रेजुएशन करने के दौरान ही इन्होंने केमिकल वाटर ट्रिटमेंट की तालीम हासिल की. उत्तर प्रदेश के डा. सईद जफर की प्रेरणा से वर्ष 1999 में एमबीए करने के उद्देश्य से अहमदाबाद गये. परंतु पढाई छोड़ दी.
तब डा. वी पद्मानंद ने बिहार लौट कर फैक्ट्री लगाने की सलाह दी. यहां आर्थिक तंगी के झंझावात राह में रोड़े अटकाये पहले से खड़े थे. बावजूद हिम्मत नहीं हारी. घर से ही केमिकल तैयार कर बाजार में संपर्क साधना शुरू किया. पहली बार 2001 में महुआ कोआपरेटिव कोल्ड स्टोर ने 22 हजार रुपये की केमिकल खरीदने की स्वीकृति दी.
कहते हैं कि इस सौदे के लिए मिली छह हजार रुपये की अग्रिम राशि से समस्तीपुर के हरपुर एलौथ स्थित इंडस्ट्रियल एरिया में जमीन खरीदी. फैक्ट्री का निर्माण किया. धन की कमी को पूरा करने के लिए बैंक के चक्कर लगाये. परंतु किसी ने सहयोग नहीं किया.
बावजूद हिम्मत नहीं हारी. खुद की मेहनत से आ रहे पैसों को फैक्ट्री में लगाकर उसे आगे बढाया. आज शमा डेयरी के सहयोगी भी हैं. इनकी सेवई की नयी फैक्ट्री प्रक्रियाधीन हैं. इनकी मेहनत को देख कर दिल्ली इंडियन इकोनोमिक डेवलपमेंट एंड रिसर्च एसोसिएशन ने वर्ष 2011 में केमिकल के क्षेत्र में अवार्ड से नवाजा. वर्ष 2013 में थाइलैंड के पूर्व उप प्रधानमंत्री कार्न दब्बारनसी इंटर नेशनल स्टेटस अवार्ड से सम्मानित किया.
युवा उद्यमी डा. अखलाक कहते हैं कि सफलता की हर दास्तां की कोई न कोई शुरुआत होती है. जहां मिले मौके सोच के दायरे को विस्तार देता है. जोखिम उठाने से हिचकना नहीं चाहिए. वह यह भी कहते हैं कि अपने बिहार में लघु उद्योग की अपार संभावनाएं हैं.
परंतु युवाओं को पूंजी की कमी है. सरकार इसे दूर करने के लिए योजना भी लाती हैं परंतु धरातल पर वह सफलीभूत नहीं हो पा रहे हैं. यदि बैंक और सरकार थोड़ी संजीदगी दिखाये तो युवा उद्यमी यहां से बेरोजगारी को दूर कर सूबे की तस्वीर बदलने की कुबत रखते हैं.
जगजीवन सिंह उर्फ बब्लू
अगरबत्ती की दुनिया के बिहारी बादशाह
बादशाह अगरबत्ती के मालिक जगजीवन सिंह उर्फ बब्लू बिहार के उन युवा उद्यमियों में से एक हैं, जिन्होंने तय कर लिया था कि कभी किसी की नौकरी नहीं करनी है, खुद का अपना काम करना है. कार्टून बेचकर, पापड़ बेचकर, दुनिया से लड़-झगड़कर उन्होंने अपना कारोबार शुरू किया. अगरबत्ती का अपना ब्रांड तैयार किया और आज उनके इस ब्रांड का अपना शोरूम है. उनके साथ सौ लोग काम करते हैं.
अपनी कहानी बताते हुए बब्लू जी कहते हैं कि उनका परिवार एक रिफ्यूजी के रूप में बिहार आया था. पिताजी नमक का काम करते थे. आमदनी इतनी नहीं होती थी कि अपने बच्चों को पढ़ा सकें. लिहाजा आठवीं तक पढ़ने के बाद बब्लूजी ने खुद जिदकर पढ़ाई छोड़ दी और सावन स्टोर में लेबर का काम करने लगे. मगर जल्द ही उन्हें समझ में आ गया कि वे नौकरी के लिए नहीं बने हैं. ऐसे में वे घूम-घूमकर कार्टून और नमक बेचने लगे. फिर चाकलेट बेचने का काम शुरू किया.
इसी तरह वे लिज्जत पापड़ बेचते-बेचते एक दिन अगरबत्ती बेचने लगे. ऐसे में एक मित्र ने उन्हें आइडिया दिया कि अपनी अगरबत्ती खुद क्यों नहीं तैयार करते हो. उन्हें यह आइडिया जम गया और वे अगरबत्ती के लिए सेंट बनाने का काम सीखने बेंगलुरू चले गये. वहां काफी मशक्कत के बाद उन्होंने सेंट बनाना सीखा और फिर घर पर ही अगरबत्ती बनाना शुरू कर दिया. पहले इनके परिवार के लोग ही अगरबत्ती बनाते थे.
उन्होंने 25 रुपये की डमरू अगरबत्ती तैयार की और पूरे बिहार में घूम-घूम कर बेचने लगे. पहले लोग हंसते थे, फिर धीरे-धीरे इनका काम चल निकला और आज बादशाह अगरबत्ती एक ब्रांड है. इसका बोरिंग रोड पर अपना शोरूम है. सौ से अधिक लोग इनके साथ काम करते हैं. आगे उनका इरादा अगरबत्ती के कारोबार को बिहार से बाहर ले जाने का है और हेयर ऑयल भी तैयार करने का है.
अमृता सिंह
मन के ख्याल कोजमीन पर उतारा
कंपनी : कीया लेगिंग्स फैक्टरी
लेगिंग्स की दुनिया में तेजी से पॉपुलर हो रहे ब्रांड कीया लेगिंग्स की फैक्टरी फतुहा में है और जिस बिहार राज्य में उद्योग और कारोबार को लेकर लोगों में उत्साह की कमी है, वहां एक महिला होकर अमृता ने यह बड़ा उद्योग खड़ा किया है.
उद्यमी बनने की अपनी कहानी सुनाते हुए अमृता सिंह कहती हैं, हमारा कोई ऐसा बैकग्राउंड नहीं थी, पति जरूर ट्रेडिंग के कारोबार में थे, मगर परिवार में कोई बड़ा उद्यमी नहीं था. हमलोग जमुई शहर में रहते थे, पिता चिकित्सक थे. दिल्ली विवि से एनवायरमेंटल साइंस में एमएससी किया.
मेरी इच्छा थी कि कोई अपना उद्योग हो. तभी तय किया कि लेगिंग्स की फैक्टरी लगायेंगे. यह 2013 की बात है. सोच तो लिया मगर अपने पास इतने पैसे नहीं थे. लिहाजा लोन के लिए सरकार के पास पहुंच गये.
प्रधानमंत्री रोजगार योजना से 50 लाख की राशि बतौर लोन मिली और यह फैक्ट्री कीया टेक्सटाइल प्राइवेट लिमिटेड शुरू की. उस वक्त बाजार में लेगिंग्स के कई ब्रांड थे. हमारा लोकल ब्रांड था, इसलिए काफी टफ कंपिटीशन था.
मगर खुद जुट गयीं, डिजाइन से लेकर कलर कंबिनेशन तक खुद तय किया. धीरे-धीरे लोकल मार्केट में हमारा प्रोडक्ट पसंद किया जाने लगा. तब सात कलर स्कीम थी, अब 70 हैं. अब हमारा प्रोडक्ट पूरे भारत में तो जाता ही है, विदेशों में भी इसकी मांग हो रही है.
आज अमृता एक सफल उद्यमी हैं. कारोबार के साथ-साथ वे सामाजिक कार्यों में भी पूरा वक्त देती हैं. वे एक सेनेटरी नैपकीन बैंक का भी संचालन करती हैं, जो जरूरतमंद महिलाओं और किशोरियों को बहुत कम कीमत में सेनेटरी पैड उपलब्ध कराती हैं.
उनके पति पूर्णिया के रहने वाले हैं और वे भी उनके इस काम में उनका भरपूर सहयोग करते हैं. उनकी एक ग्यारह साल की बेटी है.अमृता का सिद्धांत है कि कोई भी कारोबार सिर्फ पैसे के लिए नहीं करना चाहिए. पैसा तो कारोबार के साथ आ ही जाता है. वे इससे आगे की बात सोचती हैं. इसलिए वे अपने समय का बड़ा हिस्सा सेनेटरी नैपकीन बैंक के संचालन में और सामाजिक कार्यों में लगाती हैं. पिछले साल भीषण बाढ़ में भी इन्होंने काफी सक्रियता दिखाई थी.
शशि कुमार
चला रहे शहद की प्रोसेसिंग यूनिट
कंपनी : शहद प्रोसेसिंग यूनिट
बचपन में अर्थाभाव का दंश और पैसे के कारण पढ़ाई छूटने की कसक ने शशि को शिवा एग्रो की नींव डालने को प्रेरित किया. आज गया के कइया इलाके में शिवा एग्रो की शहद प्रोसेसिंग यूनिट से सालाना करोड़ों का कारोबार हो रहा है. बचपन के दिनों को याद करते हुए शशि कहते हैं कि घर में खेती-किसानी का माहौल था.
लेकिन, आय अधिक नहीं होती थी. इसके कारण परिवार के सदस्यों का जीवन अभाव में बीतता था. प्राथमिक शिक्षा किसी तरह से पूरी करने के बाद शशि ने रसायनशास्त्र से स्नातक तक की पढ़ाई की. इसके बाद पैसे के अभाव आगे की पढ़ाई छूट गयी.
पढ़ाई छूटने के बाद इन्होंने कृषि के क्षेत्र में ही बेहतर काम करने की ठानी. कई तरह के बाजार सर्वे के बाद मधुमक्खी पालन करने का मन बनाया. महज 10 हजार की कम पूंजी से 1995 में काम शुरू किया गया. इसके बाद पूसा व लुधियाना जाकर इस संबंध में शशि ने बेहतर ट्रेनिंग ली. दूसरे वर्ष में काम को बढ़ाया व 50 बॉक्स में मधुमक्खी पालन करने लगे. इस काम के लिए अपने साथ तीन लोगों को जोड़ा.
देखते ही देखते इनका काम चल निकला. बाहर के व्यवसायी इनके यहां से मधु की खरीद करने लगे. लेकिन,कम कीमत ही देते थे. इसको दूर करने के लिए शशि ने प्रोसेसिंग का काम सीखा और 1997 से बॉटलिंग कर बाजार में उपलब्ध कराना शुरू कर दिया. अब थोक बाजार के मुकाबले दोगुनी आमदनी होने लगी. माल की खपत इतनी बढ़ गयी कि दूसरे किसानों से शहद लेकर बेचने लगे.
नामी कंपनी से है टाइअप
बैद्यनाथ जैसी कंपनी ने भी इनके प्रोडक्ट को सराहा और शहद लेने लगे. बेहतर काम के लिए इन्हें कर्नाटक यूनिवर्सिटी में अगस्त 1998 में ऑल इंडिया हनी फेस्टिवल में बुलाया गया.
वहीं, प्रोग्रेसिव फॉर्मर अवार्ड, किसान श्री व एनजी रंगा फॉर्मर अवार्ड समेत कई अन्य पुरस्कार भी शशि को मिले हैं. अभी के समय 20 कर्मचारी इस काम में योगदान दे रहे हैं. साथ ही बिहार के दो सौ किसानों से इनका टाइअप है. महज 10 हजार से शुरू हुई शिवा एग्रो का सालाना टर्न ओवर तीन करोड़ तक पहुंच चुका है.
खोली सर्जिकल कॉटन की फैक्ट्री
पल्लवी सिन्हा के माता-पिता अध्यापन के पेशे से जुड़े थे, विवाह के बाद ससुराल आयी तो यहां दवाओं का कारोबार था. मैन्यूफैक्चरिंग इंडस्ट्री का कहीं कोई पुराना अनुभव नहीं था. पति की पटना के गोबिंद मित्रा रोड में दवाओं की होलसेल की दुकान थी, जहां सर्जिकल कॉटन और बैंडेज बिकते थे. यह दुकान लगातार प्रतिस्पर्धा का सामना कर रही थी. ऐसे में पल्लवी ने तय किया कि वह खुद सर्जिकल कॉटन का उत्पादन करेगी.
अपनी फैक्टरी लगायेगी. उनका यह फैसला हालांकि विशुद्ध रूप से अपने पारिवारिक कारोबार को बढ़ाने का था, मगर इस लिहाज से अनूठा था कि बीसीए की पढ़ाई करने वाली पल्लवी को कभी किसी व्यवसाय या उद्योग का अनुभव नहीं था. मगर एक जिद थी.
जिद में काम शुरू किया, अपनी मशीन लगायी, प्रोडक्ट बाजार में उतार दिया. मगर अनुभवहीनता की वजह से पहला दावं ही गलत हो गया. कॉटन की क्वालिटी को बाजार ने रिजेक्ट कर दिया. पता किया तो मालूम हुआ कि उन्होंने जिस मशीन को लगाया है, वह आउटडेटेड हो चुकी है. अगर इस व्यापार में टिकना है तो नयी मशीन लगानी होगी.
पहली बार में रिजेक्ट हो गया था इनका उत्पाद
25-30 लाख का इवनेस्टमेंट हो चुका था. समझ नहीं आ रहा था कि फिर से रिस्क लें या कारोबार बंद कर दें. मगर ऐसे में उन्हें बैंक से लोन मिल गया जो बड़ा सहारा साबित हो गया. नयी मशीन से उत्पादन शुरू हुआ और एससीएम यानी श्री चितरंजन मेडीटेक कंपनी चल निकली.
तीन साल की परेशानियों के बाद आज वे सफल उद्यमियों की श्रेणी में हैं. आज पटना के चिकुड़ा और फतुहा में उनकी प्रोडक्शन यूनिट है. जहां 25-30 लोग काम करते हैं. इसके अलावा सेल्स और दूसरे विभाग में लोग हैं. पल्लवी सिंहा काम के साथ सामाजिक कार्यों में भी जुड़ी रहती हैं. खास कर महिला सशक्तीकरण उनका प्रिय विषय है.
गार्ड से मिला आइडिया, खड़ी की ई-रिक्शा कंपनी
कंपनी : सेफ ग्लोबल लाइफ
पटना के आशियाना नगर के रहनेवाले कृष्णा जी ने रांची से दसवीं की परीक्षा पास करने के बाद पटना के कॉमर्स कॉलेज से अर्थशास्त्र में स्नातक की है. पारिवारिक पृष्ठभूमि में ये फस्ट जेनेरेशन उद्यमी हैं.
इनके पिता राजस्व विभाग में सेक्शन ऑफिसर थे. घर का माहौल नौकरी का ही रहा है. बावजूद इसके इन्होंने व्यवसाय की ओर रुख कर मुकाम हासिल की. 40 वर्षीय कृष्णा बताते हैं कि स्नातक करने के बाद आइएमटी, गाजियाबाद से एमबीए कर 2007 में आइसीआइसीआइ बैंक ज्वाइन कर लिया. वर्ष 2015 तक बैंकिंग सेक्टर में काम किया. बैंक में नौकरी के दौरान ही एक गार्ड ने इ-रिक्शा के लिए लोन उपलब्ध कराने का अनुरोध किया.
बकौल कृष्णा इसी दिन गार्ड की जरूरत ने मुझे इ-रिक्शा की कंपनी स्थापित करने की ओर प्रेरित किया. इसके बाद बैंक में साथ काम करनेवाले सुमन कुमार सिंह (40 वर्षीय) से मिल कर इस संबंध में तमाम जानकारियां जुटानी शुरू कर दीं. उसी समय 23-27 दिसंबर,2015 को दिल्ली के प्रगति मैदान में ऑटो एक्सपो लगा था.
दोनों साथियों ने वहां जा कर काफी कुछ समझा और कंपनी के रजिस्ट्रेशन के लिए आवेदन कर दिया. कंपनी के मालिक कृष्णा जी और सुमन बताते हैं कि वे काम से 200 फीसदी संतुष्ट हैं. कंपनी को स्थापना के महज दो साल में अच्छी उपलब्धि मिली है. साल भर का टर्नओवर अच्छा खासा हो गया है.
अपने काम से खुश दाेनाें साथियों ने अगस्त तक बाजार में इलेक्ट्रीक बाइक बाजार में लाने की योजना बनायी है. स्ट्राटअप के साथ काम करनेवाले युवा उद्यमियों के लिए इनका काम सफलता की गाथा लिखने में निश्चय ही सहयोगी होगा.
कंपनी का रजिस्ट्रेशन नंबर मिलने के बाद दोनों साथियों ने लोन के बजाय बैंकिंग सेक्टर से कमाई की हुई पूंजी (40 लाख)को इस काम में लगाने की योजना बनायी. 13 मई, 2016 को नोएडा और पटना के गोला राेड में वर्कशॉप बना कर काम शुरू किया गया. इ-रिक्शा के लिए रॉ-मैटेरियल अलग-अलग जगहों से खरीद कर इसे एसेंबलिंग की जाती है. नोएडा की फैक्टरी में गाड़ी का ढांचा बनाया जाता है. वहीं, टायर ,बैटरी, लाइट व वायरिंग का काम पटना में किया जाता है.
