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अंटार्कटिका की पिघलती बर्फ से इंसानी वजूद के लिए खतरे की घंटी, जानें

ध्रुवीय बर्फ धरती के तापमान, जलवायु और पर्यावरण को संतुलित रखने के सबसे बड़े तंत्र हैं. पर, धरती के तापमान में वृद्धि ने उनके पिघलने की गति तेज कर दी है. इसका सबसे बड़ा कारण मनुष्य द्वारा ऊर्जा का अंधाधुंध इस्तेमाल है. इस संकट का नतीजा हमारी सभ्यता के विनाश के रूप में सामने आ […]

ध्रुवीय बर्फ धरती के तापमान, जलवायु और पर्यावरण को संतुलित रखने के सबसे बड़े तंत्र हैं. पर, धरती के तापमान में वृद्धि ने उनके पिघलने की गति तेज कर दी है. इसका सबसे बड़ा कारण मनुष्य द्वारा ऊर्जा का अंधाधुंध इस्तेमाल है. इस संकट का नतीजा हमारी सभ्यता के विनाश के रूप में सामने आ सकता है.
अगर साफ पानी के प्रमुख स्रोत दुनिया के अन्य ग्लेशियरों के पिघलने को भी जोड़ लें, तो स्थिति की भयावहता बहुत बढ़ चुकी है. एक तरफ समुद्री जल-स्तर का बढ़ना और दूसरी तरफ साफ पानी की कमी मनुष्य के भविष्य के लिए गंभीर प्रश्नचिह्न हैं. ध्रुवीय बर्फ से संबंधित मौजूदा हालात पर एक नजर आज के इन-डेप्थ में…
अंटार्कटिका में पानी के भीतर की बर्फ पिघलने की दर प्रत्येक 20 वर्षों में दोगुनी हो रही है, और समुद्र तल के बढ़ने का जल्द ही यह सबसे बड़ा स्रोत बन सकता है. दुनिया के सबसे विशाल ग्लेशियर के भीतर तक हासिल किये गये पहले पूर्ण मानचित्र से अनेक नये तथ्य सामने आये हैं.
‘नेचर जियोसाइंस’ में प्रकाशित एक अध्ययन रिपोर्ट में वैज्ञानिकाें ने बताया है कि समुद्री जल का तापमान बढ़ने के कारण वर्ष 2010 से 2016 के बीच दक्षिणी ध्रुव के निकट बर्फ की सतह प्रभावित होने से इस क्षेत्र में करीब 1,463 वर्ग किमी तक बर्फ का आधार सिकुड़ गया है. यूनिवर्सिटी ऑफ लीड्स के यूके सेंटर फॉर पोलर ऑब्जर्वेशन एंड मॉडलिंग द्वारा किये गये शोध में दर्शाया गया है कि ‘क्लाइमेट चेंज’ का असर अंटार्कटिका पर इसके पूर्व आकलनों से कहीं अधिक हुआ है, और समुद्र का स्तर संभवत: वैश्विक अनुमान से कहीं ज्यादा बढ़ सकता है.
हाल-फिलहाल तक अंटार्कटिका को अपेक्षाकृत स्थिर रूप में देखा गया था. नये अध्ययन में पाया गया है कि तापमान में यदि बहुत कम वृद्धि होने पर भी हिमशैलों के पिघलने की दर सालाना पांच मीटर से अधिक तेजी से हो सकती है, जिनमें से कुछ हिमशैल पानी के भीतर दो किमी से भी अधिक गहराई में मौजूद हैं.
सतह से काफी भीतर हो रहा बदलाव
इस शोध अध्ययन के एक लेखक प्रोफेसर एंड्रयू शेफर्ड कहते हैं, ‘अंटार्कटिका में आधारतल पिघल रहा है. हम इसे देख नहीं सकते, क्योंकि यह समुद्र की सतह से काफी भीतर हो रहा है. इस अध्ययन में करीब 16,000 किमी समुद्रतट को शामिल किया गया है.’
यूरोपीय स्पेस एजेंसी के क्रायोसेट-2 से हासिल आंकड़ों द्वारा आर्किमीडिज के सिद्धांत के आधार पर बताया गया है कि इस तरह बर्फ पिघलने से समुद्र के स्तर में बड़ा बदलाव होने की आशंका है.
अंटार्कटिका के आसपास तेजी से सिकुड़ रही बर्फ की चादर
इसमें सबसे अधिक गिरावट तो पश्चिमी अंटार्कटिका में देखी गयी है.वहां मौजूद 65 बड़े ग्लेशियरों में से आठ के पिघलने की दर बीते आखिरी हिमयुग के बाद से पांच गुना अधिक तेजी से बढ़ी है. प्रोफेसर एंड्रयू शेफर्ड कहते हैं, ‘यही कारण है कि यह लोगों की चिंता का एक बड़ा विषय होना चाहिए. अब हमलोगों ने बर्फ के चट्टानों की व्यापक तौर पर मैपिंग की है, जिसमें अंटार्कटिका का शायद ही कोई हिस्सा छूटा रह गया होगा. अब हम मुकम्मल तौर पर यह कह सकते हैं कि हमने इस पूरे इलाके को छान लिया है और हम सभी क्षेत्रों तक पहुंच चुके हैं.’
नतीजन समुद्र के स्तर के ऊपर उठने के पूर्व के अनुमानों में संशोधन के संकेत मिले हैं. हालांकि, एक दशक पहले इसका प्रमुख क्षेत्र ग्रीनलैंड था, लेकिन ‘इंटरगवर्मेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज’ ने अंटार्कटिका को इसके केंद्र में शामिल किया. लेकिन अब तक के पूर्वानुमान दो प्रमुख पश्चिमी अंटार्कटिक ग्लेशियर – थ्वेट्स और पाइन आइलैंड, पर आधारित थे.
पिघल रहा है विशालकाय टॉटेन ग्लेशियर
वैज्ञानिकों ने कहा है कि टॉटेन ग्लेशियर अंटार्कटिका में सबसे तेज तैरने वाला और सबसे बड़ा ग्लेशियर है. वैज्ञानिक उस पर बेहद करीब से नजर रख रहे हैं कि वह कैसे पिघलता है.
शोधकर्ताओं ने पहले जितना अनुमान व्यक्त किया था, उससे कहीं अधिक आकार में यह ग्लेशियर तैर रहा है. यह अध्ययन बहुत महत्वपूर्ण इसलिए है, क्योंकि हालिया अध्ययनों में यह पता चला है कि टॉटेन ग्लेशियर का कुछ हिस्सा गर्मी से पहले ही पिघल रहा है. सेंट्रल वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के पॉल विनबेरी का कहना है कि इसका मतलब यह भी है कि टॉटेन भविष्य में जलवायु में होने वाले बदलावों के लिहाज से अधिक संवेदनशील है.
ग्लेशियर बर्फ का विशालकाय हिस्सा होता है, जो कई सदियों में धीरे-धीरे घाटियों, पर्वतों और निचले इलाके की ओर बढ़ता है. उनमें धरती के ताजा जल की बड़ी मात्रा होती है और जब वे पिघलते हैं, तो समुद्र का स्तर बढ़ने में उनका बड़ा योगदान होता है.
पिघली सालाना 125 गीगाटन बर्फ
नासा की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2002 से 2016 के बीच अंटार्कटिका में प्रति वर्ष 125 गीगाटन बर्फ पिघली. इसके परिणामस्वरूप दुनियाभर में समुद्र स्तर सालाना 0.35 मिलीमीटर बढ़ गया है.
अंटार्कटिका से अलग हुआ एक खरब टन का हिमशैल
पिछले वर्ष वैज्ञानिकों ने आशंका जतायी थी कि करीब एक खरब टन का हिमशैल अंटार्कटिका से टूट कर अलग हो गया है और अब दक्षिणी ध्रुव के आसपास जहाजों के लिए गंभीर खतरा बन सकता है. इस अलग हुए हिमशैल का आकार करीब छह हजार वर्ग किमी है, जिसे अब तक का सबसे बड़ा हिमशैल माना जाता है.
12 फीसदी से ज्यादा घट गया अंटार्कटिका
इस रिपोर्ट के मुताबिक, बड़े हिमशैल के अलग होने के कारण अंटार्कटिका का आकार बदल गया है. हालांकि, यहां हिमशैल अलग होना असामान्य घटना नहीं है, लेकिन बड़ा हिमशैल होने के कारण इसे असामान्य घटना समझा गया है.
भारत पर गंभीर असर की आशंका
समुद्री जलस्तर में वृद्धि होने से अंडमान निकोबार के कई टापू और अनेक हिस्से डूब सकते हैं. हालांकि, इसका असर काफी समय के बाद दिखेगा. लेकिन भारतीय समुद्री तट को इससे खतरा जरूर है.
समुद्री जल-स्तर बढ़ने का खतरा
बीती एक सदी में धरती के तापमान में आधे डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है और इसके चलते ध्रुवीय बर्फों के पिघलने की गति बढ़ती जा रही है. अमेरिका के पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी का आकलन है कि सौ सालों में समुद्री जल-स्तर छह से आठ इंच (15 से 20 सेंटीमीटर) बढ़ा है. अंटार्कटिका के पाइन आइलैंड बे इलाके के दो सबसे बड़े ग्लेशियर सबसे तेजी से पिघलनेवाले ग्लेशियर भी हैं.
यदि ये पिघल जायेंगे, तो दुनिया के समुद्रों का जल-स्तर 11 फीट तक उठ सकता है. इसका मतलब यह है कि समुद्र के किनारे बसे धरती के सभी शहर डूब जायेंगे. ये ग्लेशियर कब तक पिघलेंगे, यह हमारे समय के सबसे बड़े सवालों में से एक है. इसका आकलन लगाने के लिए वैज्ञानिक 11 हजार साल पहले के अंतिम हिम युग का अध्ययन कर रहे हैं.
उस समय वैश्विक तापमान लगभग आज के बराबर ही था. अब तक के सबूत यह इंगित करते हैं कि उस समय पाइन आइलैंड बे के ग्लेशियर बहुत तेजी से टूटे थे और दुनियाभर के तटीय इलाकों में बाढ़ आयी थी. अंटार्कटिका के इस हिस्से के केंद्र की ओर सामुद्रिक सतह गहरी होती जाती है.
इस कारण जब भी कोई नया आइसबर्ग टूटता है, तो टूटन की खाई बड़ी होती है. बर्फ के भार को सहना इन खाइयों के लिए असंभव हो जाता है. ऐसे में अगर टूटन की प्रक्रिया तेज हो जाती है, इसे रोका नहीं जा सकता है. वैज्ञानिक इसी प्रक्रिया की गति का अनुमान लगाने की कोशिश में जुटे हुए हैं. बर्फ के कई रूप हैं.
समुद्र में तैरते बर्फ से जल-स्तर नहीं बढ़ता है, पर जमीन का बर्फ जब समुद्र में गिरता है, तो पानी का आयतन बढ़ जाता है और जल-स्तर उठ जाता है. अंटार्कटिका एक बड़ा इलाका है. उसका आकार अफ्रीका का लगभग आधा है. इस पर जमी बर्फ की चादर एक मील से अधिक मोटी है.
जीवाश्म ईंधनों के उपयोग के कारण वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ती मात्रा गर्मी को घनीभूत करती है जिसके चलते धरती गर्म होती जा रही है. इसके चलते ध्रुवीय बर्फ के टूटने की गति बढ़ रही है. इनकी टूटन से समुद्र में ऊंची लहरें उठेंगी और किनारे धीरे-धीरे डूबते जायेंगे.
करोड़ों की तादाद में लोग जलवायु शरणार्थी होने को अभिशप्त होंगे. और, यह सब अगले 20 से 50 सालों के भीतर घटित हो सकता है. दुर्भाग्य की बात यह है कि हमारे पास तैयारी के लिए बहुत समय नहीं है. इस सदी में धरती के तापमान का जो स्तर अनुमानित है, वैसा ही लगभग 30 लाख साल पहले था. तब समुद्र का जल-स्तर आज की तुलना में दर्जनों फीट ऊंचा था.
वर्ष 2017 की रिपोर्ट का आकलन
तेजी से पिघल रही उत्तरी ध्रुव की बर्फ
वर्ष 2017 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में आर्कटिक के बर्फ रहित हो जाने की आशंका जतायी गयी थी. इस रिपोर्ट में यह चिंता जतायी गयी थी कि वैज्ञानिकों के अनुमान से कहीं ज्यादा तीव्र गति से आर्कटिक की बर्फ पिघल रही है.
आर्कटिक परिषद् की आर्कटिक निगरानी व मूल्यांकन कार्यक्रम की रिपोर्ट का भी इस संबंध में मानना था कि इस ध्रुव के पिघलने की यही गति अगर जारी रही तो 2030 की गर्मियों तक यह हिम मुक्त हो जायेगा. इससे पूर्व के अध्ययनों ने संभावना जतायी थी कि इस सदी के मध्य गर्मियों तक उत्तरी ध्रुव बर्फ मुक्त हो जायेगा.
दक्षिणी ध्रुव के पिघलने की गति धीमी
2017 में आयी एक रिपोर्ट में अंटार्कटिक के पिघलने का भी जिक्र था, लेकिन तब रिपोर्ट में यह कहा गया था कि यहां की बर्फ आर्कटिक की तुलना में व पूर्व मे लगाये गये अनुमान के मुकाबले धीमी गति से पिघल रही है.
लीड्स यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों का इस बारे में कहना था कि पूर्व में जो अनुमान लगाया गया था, उसके लगभग एक तिहाई के आसपास की दर से ही अंटार्कटिका की बर्फ पिघल रही है. वैज्ञानिकों ने यह भी बताया कि 1990 के बाद से हिमनद के प्रवाह में वृद्धि दर्ज हुई है.
हालांकि, तब वैज्ञानिकों ने यह भी बताया था कि अंटार्कटिका की बर्फ लगातार पिघल रही है और बहुत जल्द इसके चौथे सबसे बड़े बर्फ की चट्टान में टूट देखने को मिल सकती है. टूट के कारण बर्फ के चट्टान के उस टुकड़े के समुद्र में गिरने की आशंका भी वैज्ञानिकों ने जतायी थी.
तेजी से बर्फ पिघलने के कारण
तमाम वैज्ञानिक इस बात से सहमत हैं कि वैश्विक तापन के कारण दोनों ध्रुवों की बर्फ पिघल रही है. वैश्विक तापन के कारण वातावरण और जल का तापमान बढ़ रहा है, और इस वजह से दोनों ध्रुवों की बर्फ तेजी से पिघल रही है. शीतकाल की अवधि में पानी के अत्यधिक ठंडा होने के कारण वह स्वत: ही बर्फ में परिवर्तित हो जाता है, लेकिन अब यह अवधि ही छोटी होने लगी है, जिस कारण बर्फ के टुकड़े छोटे होने लगे हैं.
ध्रुवों के महत्वपूर्ण तथ्य
आर्कटिक के ज्यादार हिस्से धरती से घिरे हैं, इस कारण इसकी बर्फ ज्यादा मोटी परत वाली होती है और गर्मियों में ज्यादा देर तक जमी रहती है. सर्दियों में यह ध्रुव जमने के बाद 60 लाख वर्गमील तक के इलाके को ढक लेता है, जबकि गर्मियों में यह 70 लाख वर्ग किमी के इलाके तक फैला रहता है.
अंटार्कटिका की बात करें, तो इसकी भौगोलिक स्थिति आर्कटिक के एकदम विपरीत है. यह चारों ओर से महासागर से घिरा है. ठंड के महीने में यह ध्रुव जमने के बाद 70 लाख वर्गमील के इलाके को ढक लेता है, जबकि गर्मियों में इसकी ज्यादातर बर्फ पिघल जाती है और जो बच जाती है वह महज 30 लाख वर्ग किलोमीटर के इलाके को ही ढक पाती है.
Prabhat Khabar Digital Desk
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