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पुतिन के छह और साल रूसी वर्चस्व का नया दौर

एक दिखावटी चुनाव में पुतिन की जीत से बड़ा सवाल यह है कि आगामी सालों में वे और कौन-से चुनाव जीतेंगे. अभी वे चढ़ाव पर हैं. इस महीने इटली के चुनाव में बड़ी जीत हासिल करनेवाली दो पार्टियां- आप्रवासन विरोधी नॉर्दर्न लीग और पॉपुलिस्ट फाइव स्टार मूवमेंट- पुतिन की बड़ी समर्थक हैं. ऑस्ट्रिया के युवा […]

एक दिखावटी चुनाव में पुतिन की जीत से बड़ा सवाल यह है कि आगामी सालों में वे और कौन-से चुनाव जीतेंगे. अभी वे चढ़ाव पर हैं. इस महीने इटली के चुनाव में बड़ी जीत हासिल करनेवाली दो पार्टियां- आप्रवासन विरोधी नॉर्दर्न लीग और पॉपुलिस्ट फाइव स्टार मूवमेंट- पुतिन की बड़ी समर्थक हैं.

ऑस्ट्रिया के युवा चांसलर सेबेस्टियन कुर्ज के गठबंधन में धुर दक्षिणपंथी फ्रीडम पार्टी शामिल है जिसने अनुभवों के आदान-प्रदान के लिए 2016 में पुतिन की कठपुतली राजनीतिक पार्टी यूनाइटेड रशिया से एक समझौता किया था. पिछले साल सितंबर में जर्मनी में धुर वामपंथी लेफ्ट पार्टी और धुर दक्षिणपंथी ऑल्टरनेटिव फॉर जर्मनी ने बढ़त हासिल की है.

ये दोनों पार्टियां पुतिन को पसंद करनेवाले मतदाताओं में लोकप्रिय हैं. सूची में और भी नाम हैं- यूनान की वामपंथी एल्क्सिस सिप्रास की सरकार (2015 से सत्ता में), हंगरी की दक्षिणपंथी विक्टोर ओर्बैन की सरकार (2010 से सत्तारुढ़), फ्रांस में मरीन ला पेन और अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप. फिर ब्रिटेन है जहां पुतिन ने 2015 में जीत हासिल की जब नाटो-विरोधी जेरेमी कॉर्बिन लेबर पार्टी के नेता बने और उसके साल ब्रेक्जिट के जरिये ब्रिटेन को अलग-थलग कर दिया ताकि यूरोपीय टूट की गति तेज हो. इसी कड़ी में पूर्व रूसी जासूस और उसकी बेटी की हत्या की कोशिश को देखा जाना चाहिए.

पुतिन की आक्रामकता के संदर्भ में यूरोप की बड़ी मुश्किल निशाजनक और शायद ढुलमुल अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में नहीं है. पुतिन के तौर-तरीके- ट्रोल, दुष्प्रचार, हैकिंग, रिश्वत आदि- भी मुश्किल नहीं हैं. यह विचारधारा का मसला भी नहीं है. पुतिन वामपंथी, दक्षिणपंथी, टेक्नो-अराजक, उग्र पर्यावरणवादी आदि किसी से भी जोड़-तोड़ कर सकते हैं.

पुतिन के आकर्षण का मुख्य कारण उनका सत्ता के सिद्धांत में भरोसा करना है. वह सक्रियता दिखाते हैं. सत्ता का उनका उपयोग दुष्टतापूर्ण है, लेकिन, दुष्टता भी एक गुण है, खासकर तब जब इसके साथ राजनीतिक क्षमता, व्यक्तिगत शक्ति और ठोस चालाक छवि भी जुड़ जायें. इसकी तुलना बीते दशक के यूरोपीय नेताओं- डेविड कैमरन, मैटिओ रेंजी, निकोलस सारकोजी, जंकर, या फिर एंगेला मर्केल- से करें.

इनमें से कितने बीस साल बाद याद रह पायेंगे? व्लादिमीर पुतिन एक आपराधिक राष्ट्रपति हैं जो लोकतांत्रिक समाज के लिए सीधे तौर पर खतरा हैं. लेकिन कोई भी उन्हें असहाय, कमजोर या निर्णय लेने में ढीला नहीं कह सकता है. वे उस बाघ की तरह हैं जो शिकार पर झपटता है. जब तक उन्हें झपटने दिया जायेगा, वे नये प्रशंसक भी बनाते रहेंगे और चुनाव भी जीतते रहेंगे. और हां, सिर्फ अपना चुनाव ही नहीं.(द न्यूयॉर्क टाइम्स में छपे लेख का संपादित अंश)

यूरो-पुतिनवाद का उदय

ब्रेट स्टीफेंस

वरिष्ठ टिप्पणीकार

व्लादिमीर पुतिन

व्लादिमीरोविच पुतिन का जन्म 7 अक्तूबर, 1952 को लेनिनग्राद (सेंट पीटर्सबर्ग) में व्लादिमीर स्पिरिदोनोविच पुतिन और मारिया इवानोवा शेलोमोवा के घर हुआ.

लेनिनग्राद राजकीय विश्वविद्यालय से 1975 में लॉ में ग्रेजुएशन करने के बाद वे केजीबी में शामिल हो गये. यहां उन्होंने विदेशी खुफिया अधिकारी के रूप में 1990 तक काम किया.

रूस लौटने के बाद कुछ समय तक उन्होंने लेनिनग्राद यूनिवर्सिटी के प्रशासनिक पद पर काम किया. 1991 में वे उदारवादी राजनीतिज्ञ अनातोली सोबचाक के सलाहकार नियुक्त किये गये. सोबचाक के मेयर चुने जाने के बाद 28 जून, 1991 को वे लेनिनग्राद के महापौर कार्यालय में विदेश संबंध समिति के प्रमुख बनाये गये.

वर्ष 1994 में पुतिन सोबचाक के पहले उप मेयर बने. 1996 तक लेनिनग्राद के कई राजनीतिक व सरकारी पदों पर कार्य किया.

वर्ष 1996 में सोबचाक की हार के बाद पुतिन ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया और मॉस्को आ गये. यहां आकर वे राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन के प्रशासन कार्यालय में काम करने लगे.

वर्ष 1998 में राष्ट्रपति बोरस येल्तसिन द्वारा उन्हें राष्ट्रपति प्रशासन का उप प्रमुख नियुक्त किया गया. इसके थोड़े समय पश्चात इसी वर्ष वे संघीय सुरक्षा सेवा के प्रमुख और येल्तसिन के सुरक्षा परिषद के प्रमुख बनाये गये.

अगस्त 1999 में येल्तसिन ने तत्कालीन प्रधानमंत्री सर्गेई स्टापशिन व उनके मंत्रिमंडल को बर्खास्त कर दिया और सर्गेई की जगह पुतिन को रूसी संघीय सरकार का कार्यवाहक प्रधानमंत्री नियुक्त किया.

दिसंबर, 1999 में राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया. इसके बाद पुतिन कार्यवाहक राष्ट्रपति बनाये गये.

मार्च 2000 में रूस में हुए राष्ट्रपति चुनाव में पुतिन को जीत मिली और 7 मई, 2000 को वे देश के राष्ट्रपति नियुक्त किये गये.

2004 में एक बार फिर पुतिन रूस के राष्ट्रपति चुने गये और 2008 तक इस पद पर बने रहे.

पुतिन लगातार तीसरी बार राष्ट्रपति का चुनाव नहीं लड़ सकते थे, इसलिए 2008 में हुए राष्ट्रपति चुनाव में उन्होंने दिमित्री मेदवेदेव का समर्थन किया. मेदवेदेव की जीत हुई और उन्होंने व्लादिमीर पुतिन को रूस का प्रधानमंत्री बनाया.

वर्ष 2012 के राष्ट्रपति चुनाव में एक बार फिर पुतिन की जीत हुई और वे तीसरी बार रूस के राष्ट्रपति निर्वाचित हुए.

18 मार्च, 2018 को रूस में राष्ट्रपति चुनाव संपन्न हुआ. केंद्रीय चुनाव आयोग के आकड़ों के मुताबिक, 76.68 फीसदी मतों के साथ पुतिन चौथी बार देश के राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं.

पुतिन और पश्चिमी दुनिया

पश्चिम के पास रणनीति नहीं

बतौर रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को छह साल का कार्यकाल और मिला है. आज अमेरिका समेत पश्चिम के साथ रूस के संबंध नहीं के बराबर हैं. ऐसे में भविष्य कैसा हो सकता है? इसका संभावित उत्तर आश्वस्त करने लायक नहीं है. पूर्व सोवियत जासूस सर्जेई स्क्रीपल और उसकी बेटी की हत्या के प्रयासों के बाद ब्रिटेन ने रूस की कड़ी निंदा करते हुए अनेक प्रतिबंध लगाये हैं, जिनमें 23 कूटनीतिकों को देश से निकाला जाना भी शामिल है. बदले में रूस ने इतने ही ब्रिटिश कूटनीतिकों को बाहर किया है और सेंट पीटर्सबर्ग के ब्रिटिश वाणिज्य दूतावास को बंद कर दिया है. अमेरिका में सिर्फ इसी बात पर कांग्रेस के सदस्य एकमत हो सकते हैं कि रूस एक शत्रु देश है. रूस भी पश्चिम और नाटो को आक्रामक मानता है, जिनका इरादा रूस को घेरने का है. दुर्भाग्य से कैसे यह संबंध खराब होता गया और रूस को कहां से हौसला मिला, ऐसे प्रश्न अनुत्तरित ही रह गये हैं.

ओबामा प्रशासन द्वारा रूस के साथ रिश्ते सुधारने की कोशिश के बावजूद लीबिया में गद्दाफी को अपदस्थ करनेवाला हस्तक्षेप और गृह युद्ध ने पुतिन को यह समझने का आधार पैदा किया कि अमेरिका न सिर्फ भरोसे के लायक नहीं है, बल्कि वह खतरनाक भी है. उसके बाद से रूस ने यूक्रेन और सीरिया में सैन्य हस्तक्षेप किया है, बल्कि नाटो और उसके सदस्य-देशों की एका को नुकसान पहुंचाने की सियासी कोशिशें भी की हैं.

अमेरिका और नाटो ने पहले की तरह बिना कल्पनाशीलता के प्रतिक्रिया दी और यूरोप में सेना बढ़ा दी, रक्षा पर ज्यादा खर्च का वादा किया और नाटो के दो कमान बना दिये. लेकिन रूस के ‘सक्रिय उपायों’ को रोकने के प्रयास न के बराबर हुए, जो कि राजनीतिक सक्रियताएं हैं यानी राजनीति में हस्तक्षेप, भ्रामक सूचनाएं प्रसारित करना तथा पश्चिमी गठबंधन को गलत दिशा में धकेलना.

अब पुतिन और अमेरिका क्या करेंगे? इसका जवाब है कि पश्चिम शायद बयानबाजी, दिखावे के प्रतिबंध और रक्षा खर्च बढ़ाने की मांग से आगे कुछ नहीं करेगा. पुतिन के लिए सारी संभावनाएं मौजूद हैं.

इंटरनेट पर रूसी खिलाड़ी राष्ट्रपति ट्रंप की जांच कर रहे विशेष काउंसल रॉबर्ट म्यूलर कहानियां गढ़ेंगे. पुतिन का इरादा म्यूलर को हटाना है, ताकि ट्रंप पर दबाव कम हो सके. रूस का मानना है कि ट्रंप रूस के साथ लेन-देन करना चाहते हैं या फिर उनसे ऐसा कराया जा सकता है. पर यह पैंतरा उलटा पड़ सकता है और अमेरिका में राजनीतिक भूचाल पैदा कर सकता है जो वाटरगेट से भी बड़ा साबित हो. रूस के मुकाबले के लिए सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि रिश्ते इस हद तक पहुंचे कैसे. लेकिन अमेरिका और पश्चिम ऐसा कर सकेंगे, यह सोच कर उत्साहित होने की जरूरत नहीं है.

(ऑब्जर्वर, लंदन में प्रकाशित लेख का अंश)

चीन से प्रभावित नहीं होगा भारत-रूस संबंध

रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के आर्थिक और विदेश नीति सलाहकार सर्गेई कारागानोव ने कहा है कि बदलते वैश्विक परिदृश्य में रूस की रणनीति होगी कि वह भारत और चीन के साथ संतुलन बनाए.

जानते है ंइस संबंध में सर्गेई कारागानोव के विचार :

रूस और चीन के बीच विकसित होते आपसी संबंधों से भारत की चिंता जुड़ी हुई है. आप इसे कैसे देखते हैं, और भारत इससे कैसे प्रभावित होगा?

भारत को इस तथ्य को समझना होगा कि इतिहास और भूगोल, दोनों ही के आधार पर चीन हमारा सबसे नजदीकी पड़ोसी देश है. हमारे संबंध उनके साथ बेहतर होंगे. भारत के साथ हमारा संबंध चीन के साथ हमारे संबंधों पर निर्भर नहीं है. हमें अलग तरीके से सोचना होगा. चीन के साथ हमें बड़ा संबंध कायम करना है, लेकिन अन्य देशों के साथ भी सकारात्मक तरीके से इसमें संतुलन बनाये रखना होगा. मौजूदा समय में भारत के रिश्ते चीन के साथ कुछ तनावपूर्ण हैं, लेकिन चीन के प्रति उसकी बेचैनी ठीक उसी तरह की है, जैसी अमेरिका के साथ रूस की है. चीन के साथ हमारे घनिष्ठ संबंध रहे हैं, अंतरराष्ट्रीय मसलों पर हम ज्यादा एक-दूसरे से जुड़े रहे हैं, और पिछले एक-डेढ़ दशकों में इसमें काफी फर्क आ चुका है.

भारत-रूस संबंध सरकारों तक ही सीमित हैं, आप कैसे अागे बढ़ा सकते हैं?

भारत और रूस के विश्वविद्यालयों के बीच कॉमन कोर्स यानी सामान्य पाठ्यक्रम होना चाहिए, हमारी अर्थव्यवस्था को आपस में एक-दूसरे के बीच नये सिरे से शुरू करने की जरूरत है, जिससे सात बिलियन डॉलर के कारोबार की संभावना पैदा हो सकती है. हमें पीपल-टू- पीपल कॉन्टैक्ट शुरू करना चाहिए, जो दोनों तरफ के लिए एकमात्र गुडविल है. रूस में कुछ संभ्रांत किस्म के लोग हैं, जो चीन की ओर से चिंतित रहते हैं, लेकिन उनकी संख्या ज्यादा नहीं है. लेकिन भारत के बारे में ऐसी चिंता किसी भी रूसी व्यक्ति को नहीं है.

रणनीतिक मसलों को यहां उदाहरण के तौर पर समझा जा सकता है, जहां हमारे बीच गंभीरता से विचार-विमर्श होता है, लेकिन यह केवल शीर्ष स्तर पर होता है. जहां तक रूस की विदेश नीति का भारत से जुड़ा सवाल है, तो भारत का भौगोलिक आकार व्यापक है और यहां ऐसी बहुत सी चीजें हैं, जिन ओर अब तक ध्यान नहीं दिया गया है. ऐसे में भारत के साथ संबंधों को और बेहतर बनाने के लिए हमारे पास व्यापक अवसर है.

रूस अौर पाकिस्तान के संबंधों की आप कैसे व्याख्या करेंगे?

पाकिस्तान एक महत्वूपर्ण घटक है, और हम चाहते हैं कि उससे भी हमारे संबंध बेहतर हों. लेकिन, पाकिस्तान को चीन या भारत की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता.

(द टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित साक्षात्कार

का संपादित अंश, साभार)

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